Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
चान
Co
जैन इतिहास
तीसरा भाग।
किसनदी
लेखक:प०मूल बद जन वत्सल
विद्यारत्न-दमोह
प्रकाशक
डिया
उत्तकालय
दिगम्बर जैन
HIDE
तनसुख.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
'सविताबाई कोडिया, स्मोक ग्रन्थमाला नं०
प्राचीन जैन इतिहास
तीसरा भाग ।
लेखक:
पं० मूलचन्द्र जैन वत्सल, विद्यारत्न साहित्यशास्त्री ।
प्रकाशक:
मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, मांधी चौक,
4000+
दिगाभवन-सूरत ।
प्रथमावृत्त]
वार सं २४६५
[ प्रति १०००
“दिगम्बर जैन" के ३२ वे वर्षका उपहारग्रन्थ ।
मूल्य - बारह आने
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
मूलचन्द किसनदास कापडिया
जैन विजय प्रेस.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
सौ० सविताबाई मूलचंद कापड़िया स्मारक ग्रंथमाला नं०८
हमारी स्वगीय धर्मपत्नी सौभाग्यवती सविताबाईका वीर सं० २४५६ में सिर्फ २२ वर्षकी मायुमें एक पुत्र चि० बाबूभाई
और एक पुत्री चि० दमयंतीको विलखते छोड़कर स्वर्गवास होगया था, तब उनके स्मार्थ हमने २६१२) का दान किया था। उसमेसे २०००) स्थायी शास्त्रदानके लिये निकाले थे जिसकी मायसे उपरोक्त ग्रन्थमाला प्रकट की जाती है।
भाजतक इस ग्रन्थमालासे निम्नलिखित ७ ग्रन्थ प्रकट हो चुके हैं और दिगम्बर जैन तथा जैन महिलादर्शके ग्राहकोंको भेट दिये जा चुके हैं१-ऐतिहासिक स्त्रियां (ब्र० पं० चन्दाबाई जी कृत) ॥) २-संक्षिप्त जैन इतिहास (द्वि० भाग प्र० खण्ड) १m) ३-पंचरत्न (बाबू कामताप्रसादजी कृत) ४-संक्षिप्त जैन इतिहास (द्वि० भाग द्वि० खण्ड) ५-वीर पाठावलि ( बाबू कामताप्रसादजी कृत) ६-जैनत्व (रमणीक बी० शाह वकील कृत) ७-संक्षित जैन इतिहास (भाग ३ खण्ड १)
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४ ]
और यह बाठवां ग्रन्थ-प्राचीन जैन इतिहास तीसरा भाग प्रकट करके " दिगम्बर जैन " के ३२ वें वर्षके ग्राहकोंको मेट चांटा जा रहा है । तथा कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं ।
यदि जैन समाज के श्रीमान शास्त्रदानका महत्व समझें तो ऐसी कई स्मारक ग्रन्थमालाऐं दिगम्बर जैन समाजमें निकल सकती हैं। ( जैसा कि श्वेताम्बर जैन समाजमें लाखों रु० के दानकी हैं लेकिन इसके लिये सिर्फ दानकी दिशा बदलने की आवश्यकता है; क्योंकि दिगम्बर जैन समाजमें दान तो बहुत निकाला जाता है जो या तो अपनी बहियोंमें पड़ा रहता है या मान बड़ाई के लिये धर्मके नामसे खर्च किया जाता है। अतः अब तो जैन समाज समयुकी मको समझें और शास्त्रदानकी तरफ अपना लक्ष्य फेरें यही मावश्यक है ।
- प्रकाशक ।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
= प्रस्तावना। = २१ वें तीर्थंकर श्री नमिनाथसे लेकर २४ वें तीर्थकर भगवान् श्री महावीर तथा उनके समकालीन तथा बाद के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य और जैन सम्राटोंका कोई ऐसः पयुक्त इतिहास आजतक प्रगट नहीं हुआ है, जो विद्यार्थियोंको पढ़ानेम सुगम हो तथा सामान्य पढ़ेलिखे भाइयोंको भी स्वाध्यापयोगी हो। अत: हमने यह 'प्रा० जैन इतिहास तीसरा भाग' नामक पुस्तक पं० मूलचन्दजी जैन वत्सल विद्यारत्न ( दमोह ) से प्राचीन शास्त्रोंके आधारसे तैयार कराई है। तथा साथमें वीरके सुयोग्य सं० बा० कामताप्रसादजी रचित पांच आचार्योंके चरित्र भी उपयोगी होनेसे इसमें संनिलित किये हैं। इस पुस्तककी रचना ऐसी सुगम व संक्षिप्त की गई है कि सामान्य पढ़ा लिखा हरकोई भाई या बहिन इसको समझ सकेगा।
हम मं० मूलचन्द्रजी वत्सलके बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तककी रचना कर दी है। साथमें प्रसिद्ध इतिहासज्ञ बाबू कामताप्रसादनीकी साहित्य सेवाको भी हम भूल नहीं सकते। दि. जैन समाजपर भापका उपकार अवर्णनीय है। ___इस ऐतिहासिक ग्रन्थका सुलभतया प्रचार हो इसलिये यह "दिगम्बर जैन के ३२ वें वर्षके ग्राहकोंको भेटमें देने की व्यवस्था की गई है तथा कुछ प्रतियां विक्रयार्थ मी निकाली गई हैं । आशा है इस प्रथमावृत्तिका शीघ्र ही प्रचार हो जायगा।
.... निवेदकसुरत, वीर ४६५ । ... मूलचन्द किसनदास कापड़िया, ज्येष्ठ सुदी १५ ।
प्रकाशक । ता. १-६-३९.
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची।
पाठ १-भगवान नमिनाथ-इक्कीसवें तीर्थंकर .... पाठ २-जयसेन चक्रवर्ती । पाठ ३-भगवान् नेमिनाथ-बाईसवें तीर्थंकर पाठ ४-महासती राजमती पाठ ५-जरासिंधु पाठ ६-श्री कृष्ण बलदेव पाठ ७-श्री कृष्ण-जन्म और उनका पराक्रम .... पाठ ८-श्री प्रद्युम्नकुमार पाठ ९-पांच पांडव .... .... ... पाठ १०-पितृभक्त भीष्मपितामह ... .पाठ ११-मांसभक्षी.राजा बक पाठ १२-बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ... पाठ १३-भगवान पार्थनाथ-तेईसवें तीर्थकर .... पाठ १४-भगवान महावीर-चौवीसवें तीर्थंकर पाठ १५-महाराजा श्रेणिक पाठ १६-अभयकुमार ..... ... पाठ १७-तपस्वी वारिषेण पाठ १८-सवी चन्दना पाठ १९-अमयरत्न-जीवंधरकुमार ....
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ७ ]
पाठ २० - अंतिम केवली - श्री जम्बूकुमारजी
पाठ ११ - विद्युत्प्रभ चोर
पाठ २१ - श्री भद्रबाहु - अंतिम श्रुतकेवली
पाठ २३ - महाराजा चन्द्रगुप्त
पाठ २४ - सम्राट् ऐल खारवेळ
पाठ २९ - श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य पाठ १६ - आचार्यमवर उमास्वामी महाराज
....
04.0
....
....
....
....
...
....
...
पाठ २७ - स्वामी समन्तभद्राचार्य पाठ २८ - श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्त - चक्रवर्ति और वीर - शिरोमणि चामुण्डरायजी
पाठ २९ - श्रीमद् भट्टाकळङ्कदेव
....
....
....
....
७२
७५
७६
<•
८६
८९
९९
९७
१०७
११९
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
"दिगम्बर जैन"
हिंदी गुजराती भाषाका सुप्रसिद्ध । मासिक पत्र, सचित्र विशेषांक तथा उपहाग्ग्रन्थ भी दिये जाते हैं । उपहारी पोस्टेज सहित वार्षिक मूल्य २)। नमूना मुफ्त भेजा जाता है।
मनेजा,
दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरत ।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
868
भगवान् नेमिनाथ और राजुलके विवाह-वैराग्यका दृश्य ।
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास ।
तीसरा भाग ।
पाठ १ ।
भगवान नमिनाथ - इक्कीसवें तीर्थंकर ।
( १ ) भगवान मुनिसुव्रतनाथ के मोक्ष जाने के साठ लाख वर्ष बाद श्री नमिनाथ तीर्थंकरका जन्म हुआ ।
(२) आश्विन ( कुँवार) वदी द्वितीयाको आप गर्भमें आए। माता महादेवीने रात्रि के पिछले पहर में १६ स्वप्न देखे | इन्द्र तथा देवताओंने उनका गर्भकल्याणक उत्सव मनाया । गर्भ में आनेके छह मास पहिले से जन्म होने तक रत्नोंकी वर्षा हुई और देवियोंने माताकी सेवा की ।
( ३ ) आपका जन्म मिथिलानगरी के राजा विजयके यहां आषाढ वदी दशमीको तीन ज्ञान युक्त हुआ । आपका वंश इक्ष्वाकु और गोत्र काश्यप था ।
( ४ ) दश हजार वर्षकी आयु थी और पन्द्रह धनुष्य ऊंचा सुवर्णके समान शरीर था ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। २
(५) भापके साथ खेलनेको स्वर्ग से देव माते थे और वहीसे सापके लिए वस्त्राभूषण माया करते थे।
(६) पच्चीससौ वर्ष तक माप कुमार भवस्था रहे, बादमें मापने पांच हजार वर्ष तक राज्य किया। भापका विवाह हुआ था।
(७) एक दिन अपने पूर्वमवोंका स्मरण कर उन्हें वैराग्य होभाया। उसी समय लौकान्तिक देवोंने भाकर स्तुति की और इन्द्र मादि मन्य देव माए । मिनी भाषाढ वदी दशमीके दिन एक हजार राजाओं के साथ साथ उन्होंने दीक्षा धारण की। देवोंने तपकल्याणक उत्सव मनाया । उन्हें उसी समय मनःपर्यय ज्ञान उत्सन्न हुमा ।
(८) एक दिन उपवास कर दूसरे दिन वीरपुर नगरके राजा दत्तके यहां आपने माहार लिया, तब देवोंने राजाके यहां पञ्चाश्चर्य किए।
(९) नौ वर्ष तक ध्यान करने के बाद जिस वनमें दीक्षा ली थी उसी वनमें बकुलवृक्ष के नीचे मगसिर सुदी पूर्णिमाको चार पातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया, समवशरण सभाकी देवोंने रचना की और ज्ञानकल्याणक उत्सव मनाया। (१०) भापकी सभामें इसप्रकार मनुष्यजातिके सभासद थे
४५० पूर्वज्ञानके धारी १२६०० शिक्षक मुनि १६०० भवधिज्ञानी १५०० विक्रिया ऋद्धिके धारी १६०० केवलज्ञानी
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
१२५० मनःपर्यय ज्ञानी १००० वादी मुनि
२०००० ४५००० मार्यिका १००.०० श्रावक २००००० श्राविकाएं
(१२) मायुके एक मास शेष रहने तक मापने सारे आर्य खंडमें विहार किया और विना इच्छाके दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश देकर प्राणियों का हित किया।
(१३) जब आयु एक मास बाकी रह गई तब दिव्यध्वनिका होना बन्द हुमा और सम्मेद शिखर पर्वतपर इस एक माहमें शेष कर्मोका नाश कर एक हजार मुनियों सहित वैसाख वदी १४ को मोक्ष पधारे। इन्द्रोंने मोक्षल्याणक उत्सव मनाया।
पाठ २। जयसेन चक्रवर्ती ।
(ग्यारहवें चक्रवर्ती) (१) भगवान् नमिनाथके समयमें ग्यारहवें चक्रवर्ती जयसेन हुए। ये कौशांबी नगरीके इक्ष्वाकुवंशी राजा विजय और रानी प्रभाकरीके पुत्र थे।
(२) इनकी आयु तीन हजार वर्षकी और शरीर माठ हाय
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ४ ऊंचा था। इनके चौदह रत्न और नबनिधिये मादि संपत्ति थी, जो सभी चक्रवर्तियों के प्राप्त होती हैं। इन्होंने छहों खण्डोंको विनय किया था । बत्तीस हजार राजा इनके भाधीन थे । छयानवे हजार रानियां थीं।
(३) हजारों वर्षतक राज्य भोगने के बाद एक रात्रिको तारा टूटता हुआ देखकर इनको वैराग्य उत्पन्न हुआ । इन्होंने अपने बड़े पुत्रको राज्य देना चाहा । परन्तु उसने उसे स्वीकार नहीं किया, तब छोटे पुत्रको राज्य देकर वरदत्त केवलीके पास दीक्षा धारण की,
और सम्मेदशिखरपर सन्यास धारण करके जयंत नामक अनुत्तर विमानमें महमिन्द्र हुए।
पाठ ३। भगवाननेमिनाथ (बाईसवें तीर्थकर)
(१) भगवान् नमिनाथके मोक्ष जाने के पांच लाख वर्ष बाद श्री नेमिनाथ तीर्थंकरका जन्म हुआ।
(२) कार्तिक सुदी ६ के दिन आप गर्भमें आए । माताने रात्रिके पिछले पहरमें १६ स्वप्न देखे। इन्द्र तथा देवताओंने उनका गर्भकल्याणक उत्सव मनाया। गर्भ में आने के छह मास पहिलेसे जन्म होने तक रत्नोंकी वर्षा हुई और देवियोंने माताकी सेवा की।
. (३) मापका जन्म शौर्यपुरके महाराजा समुद्रविजय रानी। शिवादेवीके श्रावण सुदी ६ के दिन तीन ज्ञानयुक्त हुमा । मापका; वंश हरिवंश और गोत्र काश्यप था ।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
तीसरा भाग (४) एक हजार वर्षकी आपकी आयु थी और दश धनुष्य ऊंचा शरीर था।
(५) मापके साथ खेलनेको स्वर्गसे देव माते थे और मापके वस्त्र तथा आभूषण भी देवलोकसे आते थे। .. (६) एक दिन मगधदेशके रहनेवाले एक वैश्यने राजगृहके स्वामी जरासिंधुसे द्वारिका नगरीकी सुंदरताका वर्णन किया। यह सुनकर जरा सिंधु क्रोधसे अंधा होगया और युद्धको चकदिया। नारदने यह खबर श्रीकृष्णको सुनाई । सुनते ही श्रीकृष्ण शत्रुको मारनेके लिए तैयार हुए। उन्होंने श्री ने मिकुमारसे कहा कि भाप इस नगरकी रक्षा कीजिए । भवधिज्ञानके धारी प्रसन्नचित्त ने मिकुमारजी मधुर नेत्रोंसे हंसे और 'ओं' कह कर स्वीकारता दी। नेमिकुमारके हंसनेसे श्रीकृष्णने बिजयका निश्चय कर लिया। . (७) एक समय माप कुमार अवस्था में अपनी भावनों ( श्रीकृष्णकी रानियों ) क साथ जलक्रीड़ा करते थे । स्नान करनेके बाद हंसते हुए उन्होंने सत्यभामासे अपनी धोती धोनेको कहा। सत्यभामाने तानेके साथ कहा-क्या आप कृष्ण हैं, जिन्होंने नागशय्यापर चढ़कर शारंग नामका तेजवान धनुष्य चढ़ाया और सर्व दिशाओंको कंपादेनेवाला शंख बजाया है । ऐसा साहसका काम मापसे नहीं होसकता। .. (८) सत्यभामाकी बात सुनकर वे मायुधशालामें आये । वहां पहिले तो वे महाभयंकर नाग शैयापर चढ़े, फिर धनुषको चढ़ाया और बादमें अपनी भावानसे सब दिशाओंको पूरनेवाला
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
माचीन जेन इतिहाम। ६ शंख बजाया । सभामें बैठे हुए श्रीकृष्ण अचानक इस अद्भुत कामको सुनकर व्याकुल हुए। उन्होंने अपने सेवकोंको भेजकर सब समाचार पूछा । सेवकोंने सब समाचार उन्हें सुनाया। सेवककी बातें सुनकर श्रीकृष्ण सावधान होकर सोचने लगे कि कुमारके चित्तमें बहुत दिनोंमें राग उत्पन्न हुआ है। ये महाबलवान हैं, इसलिये राज्यकी रक्षाका प्रबन्ध करना चाहिये ।
(९) राजा उग्रसेनके यहां जाकर भी श्रीकृष्णने उनकी सुंदर कन्या राजमती श्री नेमिकुमारको देने की याचना की। राजा उग्रसेनने प्रसन्नता सहित अपनी कन्या देना मंजर किया । शुभ घड़ी मुहूर्तमें विवाहका उत्सव प्रारम्भ हुमा ।
(१०) विवाह के एक दिन पहले श्रीकृष्णको लोभकर्मने सताया। उनके मनमें शंका हुई कि नेमिकुमार बड़े बलवान हैं, के मेरा राज्य लेलेंगे। तब उन्होंने श्री ने मिकुमारको विरक्त करने के लिए भनेक व्याधोंसे पशु पकड़वाकर एक बाड़ेमें बंद करवा दिये और उनकी रक्षा करनेवालोंसे कह दिया कि यदि नेमिकुमार उन्हें देखने भावें तो तुम सब उनसे कहना कि आपके विवाहमें मारनेके लिये ये पशु इकट्ठे किए हैं।
(११) श्री नेमिकुमार चित्रा नामक पालकीपर सवार होकर बारात सहित उग्रसेनके द्वारपर जारहे थे । इसी समय उन्होंने घोर करुण स्वरसे चिल्ला चिल्लाकर बाड़ेमें इधर उधर फिरते हुए भयसे दीन पशुओंको देखा । उन्हें देखकर उनको बड़ी दया उत्पन्न हुई। उन्होंने उनके रक्षकसे पूछा कि यह पशुओंका समूह एक जगह
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग किसलिये इकट्ठा किया गया है ? रक्षकोंने कहा-मापके विवाह महोत्सवपर मारने के लिये श्रीकृष्णने इन पशुओंको इकट्ठा किया है।
(१२) रक्षकोंकी बात सुनकर उनके मनमें बड़ी दया उत्पन्न हुई। वे विचार करने लगे कि ये पशु वनमें रहते हैं, तृण खाते हैं और किसीका अपराध नहीं करते, ऐसे पशुओंको मेरे विवाह के लिए मारा जाता है ! इस तरह सोचकर वे विरक्त हुए, उन्होंने विवाहके माभूषण उतारडाले ।
(१३) वैराग्य होनेपर लौकांतिक देवोंने भाकर उन्हें प्रणाम किया और इन्द्रादि देवोंने उनका दीक्षा कल्याण उत्सव किया ।
(१४ ) देवों के द्वारा उठाई गई देवकुरु पालकीपर सवार होकर सहस्राम्रजनमें श्रावण शुक्ला षष्ठीके दिन चित्रा नक्षत्रमें संध्या समय तेला नियम लेकर दीक्षा धारण की।
(१५) कुमार कालके तीनसौ वर्ष बाद आपने दीक्षा धारण की थी। आपके साथ एक हजार राजा दीक्षित हुए थे।
(१६) तीन दिन के बाद उन्होंने द्वारावती नगरीमें राजा वरदत्तके यहां माहार लिया, जिससे उनके यहां पंचाश्चर्य हुए।
(१७) छप्पन दिन तपश्चरण करने के बाद रैवतक पहाड़ पर बांसवृक्षके नीचे माश्विन वदी पडवाके सबेरे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया और समोशरण सभा बनाई। . १८ मापके समोसरणमें इस प्रकार शिष्य थे
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जन इतिहास।
८
११ वरदत्त आदि गणधर ४०० श्रुतज्ञानके धारी ११८०० शिक्षक मुनि १५०० भवधिज्ञानी १५०० केवलज्ञानी ११०० विक्रिया ऋद्धिके धारी ९०० मनःपर्यय ज्ञानी ८०० बादी मुनि १८०११ १००००० श्रावक ३००००० श्राविकाएं
(१९) छहसौ निन्यानवे वर्ष नौ महीना चार दिन उन्होंने सब देशोंमें विहार कर धर्मोपदेश दिया। अन्तमें भायुका एक मास शेष रहनेपर मापने उपदेश देना बन्द कर दिया । और गिरनार पर्वतपर आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन कर्मों का नाशकर मोक्ष पधारे । इन्द्रादि देवोंने आपका मोक्ष कल्याणक मनाया। .
पाठ ४। महासती राजीमती। (१) राजीमती मथुराके राजा उग्रसेनकी पुत्री थी। उनका विवाह श्री नेमिकुमारजीके साथ होना निश्चित हुभा था।
(२) जिस समय श्री नेमिकुमार विवाह के लिए भा रहे
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
थे उस समय मार्गमें जीवोंको घिस हुआ देखकर उन्हें दया भा गई, मौर उन्होंको वैराग्य हो भाया।
(३) राजीमती विवाहकी खुशीमें अपने झरोखेपर बैठी हुई बारातकी चढ़ाई देख रही थी। उसने श्री नेमिकुमारको रथ वापिस लौटाते हुए देखा। सखियोंसे पूछनेपर उसे उनके वैराग्यका समाचार मालूम हुआ।
( ४ ) समाचार सुनकर वह एकदम बेहोश होगई। कुछ समयके बाद होशमें आनेपर वह बड़ा खेद करने लगी।
(५) उसके मातापिताने बहुत समझाया कि यदि श्री नेमिकुमार वैरागी होगए हैं तो क्या हुआ, भभी उनके साथ तेरा विवाह तो हुआ ही नहीं है । किसी दूपरे सुन्दर राजकुमारके साथ तेरा विवाह करा दिया जायगा ।
(६) माता पिताकी इन बातोंसे उसे बड़ा दुःख हुमा । उसने कहा-मेरे तो एक पति श्री नेमिकुमार ही हैं. उनके सिवाय सब मेरे पिता पुत्र के समान हैं। इतना कहकर वह श्री नेमिकुमारके मनानेको रैवतक पहाड़पर पहुंची।
(७) उसने श्री नेमिकुमारको फिरसे लौट चलनेको बहुत कहा परन्तु उनका मन भडोल रहा, तब राजीमती भी उनके पास दीक्षा लेकर आर्थिका बन गई।
(८) राजीमती भगवानके समोशरणकी प्रधान मार्यिका हुई और उसने महान् तप करके सोलहवें स्वर्गमें इन्द्रप्रद प्राप्त किया।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहाम। १०
पाठ ५। जरासिंधु।
( नवमां प्रतिनारायण) (१) जरासिंधु राजगृहके राजा सिंधुपतिका पुत्र था। बाल्यावस्थासे ही वह बड़ा पराक्रमी और बलवान था।
(२) उसने अपने पराक्रमसे मगध देशके सभी राजाओंको अपने वशमें कर लिया था।
(३) कुछ समयके पश्चात् उसको चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई जिसके बलसे उसने तीन खण्डके राजाओंको जीत लिया।
(४) श्रीकृष्ण नारायण के द्वारा जरासिंधुका वध हुआ और वह मरकर नर्क गया।
पाठ ६।
श्रीकृष्ण-बलदेव। (नवमें बलभद्र और नारायण श्रीकृष्णके पूर्वज)
(१) शौर्यपुर नगरके हरिवंशी राजा सूरसेन थे। उनके अंधकवृष्टि और नरवृष्टि नामक दो पुत्र हुए थे।
(२) अंधकवृष्टिकी रानी सुभद्राके १० पुत्र हुए। जिनमें समुद्र विजय सबसे बड़े और वसुदेव सबसे छोटे थे। कुंती और मादी नामकी दो पुत्रियां भी उनके हुई थीं। नरवृष्टिकी रानी पद्मावतीसे उग्रसेन भादि तीन पुत्र और गांधारी नामक पुत्री हुई।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग (३) महाराज अंधकवृष्टि समुद्रविजयको राज्य देकर मुनि होगए। समुद्रविजयने पाठों भाइयोंमें अपना राज्य बांट दिया ।
(४) कुमार वसुदेव बहुत सुन्दर थे । वे विहारके लिए प्रतिदिन नगरके नहर जाया करते थे । वे ठीक देवकुमार जैसे मालूम पड़ते थे । नगरकी नारियां उन्हें देखकर मोहित होजाती थीं और अपना कामकाज भूलकर एकटक इन्हें ही देखती रह जाती थीं। अपनी सास मादिकी भी कुछ बात नहीं सुनती थीं इसलिए कुमार वासुदेवके बाहर निकलने से नगरके लोग बहुत दुःखी होते थे। एक दिन सबने मिलकर महाराजा समुद्र विजयसे अपना दुःख प्रकट किया। महारानने वसुदेवके लिए राजमंदिरके चारों ओर मनोहर वन, राजभवन और कृत्रिम पर्वत बनवाकर उनसे उसमें घूमने के लिए कहा । अब बाहर न जाकर वे वहीं घूमने लगे।
(५) एक दिन एक सेवकके द्वारा उन्हें मालूम हुआ कि महाराज समुद्रविजयने उन्हें बाहर जाने से रोक दिया है । इससे उन्हें दुःख हुमा । दूसरे दिन किसीसे विना कहे सुने वे विद्या सिद्धिके बहाने अकेले ही नगरसे बाहर निकल गए । समुद्र विजयने उनकी बहुत खोज कराई परन्तु उनका कुछ पता न कगा।
(६) नगरसे निकलकर वे विजयपुर ग्राममें पहुंचे और विश्रमके लिए भशोक वृक्षके नीचे घनी छायामें बैठ गए । उस वृक्षकी छाया कभी स्थिर नहीं होती थी। उनके बैठनेसे वृक्षकी छाया स्थिर होगई। मालीने उस वृक्षको छायाको स्थिर देखकर मगक देशके राजाको उसकी खबर दी । राजासे निमित्तज्ञानीने कहा था कि.
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास ।
१२
जिसके बैठने से छाया स्थिर होगी वही तेरी कन्याका पति होगा । -इसलिये मगधेशने अपनी श्यामला नामक कन्या वसुदेवको समर्पण की ।
(७) वसुदेवने वहां से चलकर अनेक देशों में भ्रमण किया . और अपनी वीरता और पराक्रमके प्रभावसे अनेक राजाओंको वशमें -किया और उनके द्वारा अनेक सुन्दर कन्याएं ग्रहण कीं ।
( ८ ) एक समय घूमते २ वे अरिष्टनगर में आए। वहांके राजा हिरण्यवर्माकी पुत्री रोहिणीका स्वयंवर होरहा था । वे भी वहां 'एक स्थानपर जाकर खड़े होगए । कन्या रोहिणीने सब राजाओंको -छोड़कर वसुदेवके गलेमें वरमाला डाली । इससे अन्य सभी राजा क्रोधित होगए । महाराज समुद्रविजय भी स्वयंवर में आए थे । उन्होंने वेष बदले वसुदेवको नहीं पहचाना और वे भी सब राजा - ओंके साथ कन्याको हर लेजानेके लिये युद्धको तैयार होगये। उसी समय वसुदेवने अपना नाम खुदा हुआ एक बाण समुद्रविजय के पास भेजा, उसको पढ़कर उन्हें बड़ा आश्चर्य और हर्ष हुआ, उन्होंने सब राजाओं को युद्ध से रोका और अपने सब भाइयोंके साथ वसुदेवसे मिलने गये । वसुदेवने उनको नमस्कार किया और जो भूमिगोचरी तथा विद्याधरोंकी कन्याए उन्होंने विवाही थीं, उन्हें लाकर सुखपूर्वक नगर में रहने लगे ।
( ९ ) नव मास व्यतीत होनेपर रोहिणी रानीके पद्म नामक नौवें बलभद्रका जन्म हुआ ।
(१०) राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती के गर्भसे एक बालक पैदा हुआ । जन्म समय ही वह भौंहे चढ़ाये अपने ओठोंको दबाये
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
तासरा. भागः
हुए टेढ़ी-निगाहसे देख रहा था। माता-पिताने उसे अनिष्टकर जानकर कांसोंकी एक संदूक में रखकर उसे यमुनामें बहा दिया। कौशांबी नगरीकी एक शूद्र स्त्री मन्दोदरीको वह संदूक मिली। उसने बालकको निकाल कर उसका कंस नाम रखकर पालन-पोषण किया। बड़ा होनेपर अधिक उपद्रवी होनेके कारण उसने कंसको घरसे निकाल दिया । वह सूरीपुर पहुंचा और वसुदेवका सेवक वनकर रहने लगा।
(१०) राजा जरासिंधुका एक शत्रु था जो किसीसे नहीं, जीता जाता था। उसके जीतने के लिए उन्होंने अपना प्राधा राज्य और कन्या देनेकी घोषणा की। वसुदेवने कंसको साथ लेजाकर शत्रुको जीत लिया। इसलिये जरासिंधुने अपना भाषा राज्य और कन्या वसुदेवको देना चाही । परन्तु वसुदेवको वह कन्या पसंद नहीं थी। इसलिये उन्होंने जरासिंधुसे कहा कि शत्रुको कंसने जीता है उसे ही यह इनाम मिलना चाहिये । जरासिंधुने कंसका कुल मादि जानकर उसे अपना आधा राज्य और कन्या दे दी। कंसको जब भपना पिछला हाल मालूम हुआ तो पूर्वभवके वैरके कारण उसे. माता पितापर बड़ा क्रोध आया। वह मथुरापुरी गया और माता पिताको पकड कर उन्हें नगरके दरवाजे पर कैदमें रख दिया। इसके बाद वह वसुदेवको नगरमें लाया और प्रसन्न होकर उसने अपने काका देवसेनकी पुत्री अपनी छोटी बहिन देवकीका उनके साथ विवाह कर दिया।
(११) एक समय कंसके यहां मतिमुक्तक नामक मुनि
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। १४ माए । उन्हें देखकर उसकी स्त्री जीवंद्यसाने देवकीके ऋतु वस्त्र दिखलाकर उनकी हंसी की। तब मुनिराजने कहा-“तू क्या हंसी कर, रही है ? इसी देवकीका पुत्र तेरे पति और पिताका नाश करनेवाला होगा। जीवंद्यशाने कंससे यह बात कही। इन बातोंसे कंस बहुत डरा, क्योंकि वह जानता था कि मुनियोंकी बातें कभी झूठ नहीं होती।" तब उसने राजा वसुदेवसे बड़े प्रेमसे यह याचना की कि मापकी माज्ञानुसार देवकी मेरे ही घरमें प्रसुति करे। बसुदेवने उसकी बात मान ली।
(११) दूसरे दिन मतिमुक्तक मुनि माहारके लिये देवकीके यहां आए, तब उन्होंने देवकीसे कहा कि तेरे सात पुत्र होंगे उनमें से छह पुत्र तो दूमरी जगह पाले पोसे जाकर मुक्ति जायेंगे और सातवां पुत्र नारायण होगा ।
(१२) देवकीने तीन वारमें दो दो चरमशरीरी पुत्र उत्पन्न किये। जब जब ये पुत्र हुए तब उसी समय ज्ञानी इन्द्रकी भाज्ञासे नेगमर्ष नामके देवने सब पुत्र उठाकर भद्रिक नगरकी मलका नामक वैश्य वधूके यहां रख दिये और उसके उसी समय पैदा हुए मरे पुत्रोंको देवकीके आगे डाल दिया। कंसने उन मरे पुत्रों को देखकर सोचा कि इन मरे पुत्रोंसे मेरी क्या हानि होसकती है, परन्तु फिर
शंका बनी रहनेके कारण उन मरे हुए बच्चोंको भी शिलापर . पटकवा दिया।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५
पाठ ७ ।
श्री कृष्ण जन्म और उनका पराक्रम ।
(१) माद कृष्ण अष्टमीको देवकीके सातवें महीने महाप्रतापी श्रीकृष्णका जन्म हुआ । जन्म होते ही वसुदेव और बलभद्रने कंसको विना जताये ही नन्द गोपके घर पहुंचा देने का विचार किया । बलभद्रने श्रीकृष्णको उठा लिया और वसुदेवने उसपर छत्र लगाया । रात अंधेरी थी, इसलिये श्रीकृष्णने पुण्य कर्मके उदयसे नगरके देवताने बैकका रूप धारण किया और अपने दोनों सींगोंवर मणियां लगाकर भागेर चलने लगा । उसी समय बाळक के चरणस्पर्श होते ही नगरके बड़े दरवाजे के किवाड़ खुल गये । रात्रिमें किवाड़ खुलते देखकर बंबनमें पड़े राजा उग्रसेनने बड़े मश्चर्य से पूछा । इस समय किवाड़ किसने खोले । यह बात सुनकर बलभद्रने वहाआप चुप रहिये | यह किवाड खोलनेवाला, इस बंधन से आपको शीघ्र छुड़ायगा । वहांसे वे दोनों पिता पुत्र रात ही यमुना नदीपर पहुंचे । नारायण के प्रभावसे यमुनाने भी मार्ग देदिया ।
तासरा भाग
(२) वे दोनों अचरज के साथ यमुनाको पार कर भागे चले। उन्होंने बड़े यत्न से बालिकाको गोदीमें लेकर आते हुए नंदगोपालको देखा । उन्हें देखकर बलभद्रने पूछा- आप रात्रिमें ही भले वय म रहे हैं ? इसके उत्तर में नमस्कार कर नंदगोपालने कहा- मेरी स्त्रीने पुत्र पानेके लिए देवीकी उपासना की थी। उस देवीने पुत्र होनेका आश्वासन देकर आज सबमें ही एक कन्या काकर दी है
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन हातहास। १६
और कहा है कि यह कन्या आपको दे भाना, इसलिए मैं रातमें ही भापके यहाँ पहुँचनेके लिए जा रहा हूं। नंदगोपकी यह बातें सुनकर दोनों पिता पुत्र संतुष्ट हुए, उन्होंने नंद गोपसे पुत्री लेकर अपना पुत्र दे दिया और समझा दिया कि यह बालक होनहार चक्रवर्ती है। इसके बाद ये दोनों पिता पुत्र छिपकर विना किसीको मालूम हुए मथुरा लौट आए।
(३) नंदगोप उस बालकको लेकर अपने घर गया और स्त्रीसे कहने लगा कि उस देवताने प्रसन्न होकर मुझे बड़ा ही पुण्यवान पुत्र दिया है। यह कहकर अपनी स्त्रीको बालक सौंप दिया। . . (४) कंसने सुना कि देवकीके पुत्री हुई है, सुनते ही वह तुरन्त दौड़ा भाया । माते ही पहले तो उसकी नाक काट डाली।
और फिर जमीन के नीचे तलघरमें बड़े प्रयत्नसे पालन करने के लिये घायको सौंप दी।
(५) मथुरानगरमें अकस्मात् बहुतसे उत्पात होने लगे तब कंसने वरुण नामक निमित्तज्ञानीसे उसका फल पूछा। निमित्त ज्ञानीने कहा कि आपका बड़ा भारी शत्रु उत्पन्न होचुका है। इस बातको सुनकर उसे बड़ी चिंता हुई। तब उसने पहले जन्मकी मित्र देवियोंको स्मरण किया । देवियोंने आकर कहा-हमारे लिये क्या काम है ? तब कंसने कहा कि मेरा शत्रु उत्पन्न हुआ है, उसे ढूंढकर तुम मार माओ।
(६) उनमें पूतना नामकी एक देवीने विभंगा अवधिसे वासुदेवको जान लिया । उस दुष्टनीने माताका रूप धारण किया।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७ . सासरा भाग स्तनोंमें विष मिलाकर उन विष भरे स्तनोंको पिलाकर कृष्णको मारनेका विचार किया। वह बालकका पालन-पोषण करने लगी। परन्तु कणके दूध पीते समय किसी दुसरी देवीने माकर उसके कुचोंमें ऐसी पीड़ा पहुंचाई कि जिसे वह सह न सकी और भागकर चली गई। इसके बाद दूसरे दिन दुसरी देवी गाड़ीका रूप धारण कर कृष्णके ऊपर भाई, परन्तु कृष्णने लात मार कर तोड दी। एक दिन नंद गोपकी स्त्री कृष्णकी कमर एक ऊखलसे बांध कर जल लेने गईं, परन्तु कृष्ण उसे तोड़ कर उसक पीछे २ गए। उसी समय बालकको पीड़ा देनेके लिए दो देवियोंने भाकाशमें उड़नेवाले दो वृक्षोंका रूप बनाया, परन्तु कृष्णने उन दोनों वृक्षोंको जड़से उखाड़ कर फेंक दिया। उसी समय एक देवीने ताड़का रूप बना लिया और दूसरी फल बन कर कृष्णके मस्तक पर पड़नेको तैयार हुई। तीसरीने गधीका रूप बनाया और कृष्णको काटनेके लिये माई। परन्तु कृष्णने गधीके दोनों पैरों पर उस वृक्षको दे पटका । दूसरे दिन एक देवी घोड़ेका रूप बना कर उन्हें मारने भाई, पान्तु कृष्णने क्रोध भाकर उसका मुंह खूब ही ठोका। अंतमें उन सातों देवियोंने कंसके पास जाकर कहा कि हम उसे नहीं मार सकती और वे अपने स्थानको चली गई।
(७) देवकी और वसुदेवने भी कृष्णका पौरुष सुना । वे दोनों बलभद्र तथा परिवार के साथ गोमुखी उपवासके बहाने बड़ी विभूति सहित गोकुल.माए। भाते ही उन्होंने एक बड़े भारी बलवान उन्मत्त बैलकी गर्दन पकड़कर लटकते हुए श्रीः कृष्णको
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास ।
૮
देखा । उन्होंने उस बेलरूपी देवकी गर्दन तोड़ दी थी। श्री कृष्णको देखकर उन्होंने पहले तो गन्धमाला आदिसे उसकी मानता की, फिर बड़े प्रेमसे आभूषण पहिनाए और प्रदक्षिणा दी। उस समय देवकी के स्तनोंसे दूत्र निकलने लगा और अभिषेक करते समय श्रीकृष्णके मस्तक पर पड़ने लगा । उसे देखकर बलभद्र सोचने लगे कि इस तरह भेद खुलने का डर है । वे बुद्धिमान कहने लगे कि उपवास के खेदसे या पुत्र मोहसे वह मूर्च्छित होगई है । इसके बाद कृष्ण का अभिषेक किया। फिर व्रजके सब लोगों का यथायोग्य आदर सत्कार किया और बड़ी प्रसन्नता से गोपाल कुमारों के साथ कृष्णको भोजन कराया और फिर वे सब मथुरा नगरको चल दिये ।
(८) एक दिन व्रजमें पानी बहुत बरसा, तब कृष्णने गोवर्द्धन नामका पर्वत उठा कर उसके नीचे गायों तथा गोवाकोंकी रक्षा की। इससे उनकी कीर्ति संसार में फैल गई ।
( ९ ) एक दिन मथुरा नगर में प्राचीन जिनालय के समीप पूर्व दिशा के अधिष्ठाता देव मंदिर में सर्प शय्या, धनुष और शंख ये तीन रत्न उत्पन्न हुए। उन तीनों रत्नोंकी देव रक्षा करते थे और वे तीनों रत्न कृष्णकी होनहार लक्ष्मीको सूचित करते थे । उन्हें देखकर मथुगका राजा कंस डरने लगा । और वरुण नामके निमित्त ज्ञानीसे उनके प्रगट होने का फल पूछा । उसने कहा कि इसका सिद्ध करनेवाला आपका नाशक होगा। तब कंसने नगर में यह घोषणा करा दी कि जो मनुष्य नाग शैय्या पर चढ़कर एक हाथसे शंखको
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग पूरेगा और फिर इस धनुष्यको चढ़ा लेगा उसे मैं अपनी पुत्री दूंगा। श्री कृष्णने जब उन तीनों रत्नोंको प्राप्त किया तब उन्हें तलाश करनेवाले सिगहियोंने निवेदन किया कि नंदगोपके पुत्रने ही ये तीनों काम एक साथ किए हैं।
(१०) शत्रुका निश्चय होजाने पर कंसने उसके जाननेकी इच्छासे नंद गोपको कहला भेजा कि नागराज जिसकी रक्षा करते हैं ऐसा एक हजार दलवाला कमलका फूल लाकर दो। यह सुनकर नंद गोपके शोकका पारावार न रहा। उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा कि तू ही उपद्रव करता रहता है, अब तु ही कमल लाकर राजा कंसको दे। श्रीकृष्णने कहा यह क्या कठिन काम है, मैं अभी ले आऊंगा। वे महानागोंसे सुरक्षित सरोवरमें निशंक होकर कूद पड़े। उन्हें माता देख यमराजके समान नागराज खड़ा होकर उन्हें निगलनेके लिये तैयार होगया। वह क्रोषसे कांप रहा था और श्वासोंसे मग्निके कण फेंक रहा था। कृष्ण जलसे भीगा हुआ पीतांबर उठा कर उसकी फणा पर धोने लगे। वह नागराज व्रजपातके समान उस पीतांबरके गिरनेसे छोटे पक्षीके समान डर गया और कृष्णके पूर्व पुण्य कर्मके उदयसे अदृश्य होगया । कृष्णने इच्छानुसार कमक तोड़े और कंसके पास पहुंचा दिए । कमलोंको देखकर कंसको निश्चय होगया कि मेरा शत्रु नंद गोपके समीप ही है।
(११) एक दिन कंसने नंदगोपालको कहला भेजा कि तुम अपने मल्लों के साथ २ मल्ल युद्ध देखने माओ । नंदगोप कृष्ण : मादि सब मल्लोंको लेकर निर्भय हो मथुराको चले । नगरमें घुसते ही
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । २० कृष्णकी भोर एक हाथी दौड़ा। वह हाथी मदोन्मत्त यमके समान था । उसे अपनी ओर दौड़ता हुमा देखकर कुमार कृष्णने खड़े होकर उसका एक दांत तोड़ लिया और फिर उसी दांतसे उसे मारने लगे जिससे वह हाथी डरकर भाग गया। गोपोंको उत्साहित कर वे कंसकी सभामें पहुंचे और अपनी सब सेना सजाकर एक जगह खड़े होगए। बलभद्र अपनी भुजाओंको ठोकते हुये कृष्णके साथ रङ्गभूमिमें उतरे और इधर उधर घूमने लगे। कंसकी आज्ञासे महा पराक्रमी चाणूर मादि मल्ल उठे और रङ्गभूमिके चारों ओर बैठ गए । कृष्णने मकस्मात् सिंहनाद किया। कृष्णको देखकर क्रोधित हुमा कंस मल्ल बनकर भाया परन्तु कृष्णने उसके दोनों पैर पकड कर छोटे अंडेके समान भाकाशमें फिगया और फिर उसे जमीन पर दे पटका। उसके प्राण पखेरू उड़ गये । उसी समय देवोंने पुष्पोंकी वर्षा की और जयके नगाड़े बजने लगे।
(१२) एक दिन जीवंद्यशा पतिके मरनेसे दुःखी होकर जरासिंधुके पास गई। अपने पतिकी मृत्युके समाचार पिताको सुनाए, सुनकर जरासिंधुको बहुत क्रोध माया और यादवोंको मारने के लिए अपने पुत्रोंको भेजा । यादव भी अपनी सेना सजाकर युद्धको निकले, उन्होंने जरासिंधुके पुत्रोंको हरा दिया। तब फिर उसने अपराजित पुत्रको भेजा, वह भी हार गया। इसके बाद पिताकी माज्ञासे कालयवन नामक पुत्र चलनेको तैयार हुमा।
(१३) कालयवनको माता हुमा मुनकर अग्रसोची यादवोंने हस्तिनापुर, मथुरा और गोकुल तीनों स्थान छोड़ दिए । कालयवन
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाम
उनके पीछे २ जा रहा था तब यादवोंकी कुल-देवता बहुतसा ईंधन इकट्ठा कर बहुत ऊँची लौवाली ममि जलाकर एक बुढ़ियाका रूप बनाकर मार्गमें बैठ गई। उसे देखकर कालयवनने पूछा कि यह क्या है, तब बुढ़िया बोली कि हे राजन् ! आपके डरसे यादवों सहित मेरे सब पुत्र इस ज्वालामें पड़कर जल गए हैं। बुढ़ियाकी बातें सुनकर कालयवनने सोचा, निश्चय ही मेरे भयसे सब शत्रु अग्निमें चल गए हैं। वह अपने देशको लौट गया ।
(१४ ) यादवोंकी सेना समुद्रके किनारे पहुंची और अपना स्थान बनाने के लिये वहीं पर ठहर गये । फिर कृष्णने शुद्ध भावोंसे दर्भशय्या पर बैठ कर विधिपूर्वक मंत्रोंका जप करते हुये भाठ दिनका उपवास किया। तब नैगम नामके देवने कृष्णसे कहा कि घोड़ेके आकारका एक देव भाज भायेगा उसपर सवार होकर समुद्र में बारह योजन तक चले जाना, वहांपर आपके लिये एक नगह बन जायगा। कृष्णने वैसा ही किया। कृष्णके पुण्य कर्मके उदय और तीर्थकरकी उत्पत्ति के कारण इन्द्रकी माज्ञासे कुबेरने वहीं पर उसी समय एक मनोहर नगरी बनाई । उसका नाम द्वारावती रक्खा गया। उसमें पिता और बड़े भाइयों के साथ कृष्णने प्रवेश किया। तथा सब यादवोंके साथ सुखसे रहने लगे।
(१५) एक दिन मगधदेशके रहनेवाले कुछ वैश्य पुत्र समुद्रका मार्ग भूल कर द्वारावतीमें आ पहुंचे। वहांकी राजलीला और विभति देखकर उन्हें बड़ा माश्चर्य हुआ। उन्होंने वहांसे बहुत मच्छे २ रत्न साथ लिये और राजगृह नगरमें पहुंचे। वहां उन्होंने
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। २२ वे रत्न चक्ररत्नके स्वामी राजा जरासिंधुको भेंट किये। राजाने उन सबका आदर सत्कार करके पूछा कि यह रत्नोंका समूह तुम्हें कहांसे मिला । तब उन वैश्य पुत्रोंने कहा कि “ समुद्रके बीचमें एक बहुत ही सुन्दर नगर है, उसका नाम द्वारावती है, उसमें यादवोंका राज्य है, उसी नगरसे ये रत्न हमें मिले हैं । यह सुनकर जरासिंधु क्रोषसे अन्धा होकर यादवोंका नाश करनेके लिए अपनी सब सेना' लेकर चला।
(१६) नारदने बड़ी शीघ्रतासे उसी समय श्रीकृष्णक समीप जाकर जरासिंधुके मानेकी खबर सुनाई, सुनते ही कृष्ण शत्रुको मारने के लिए तैयार होगए। वे अपनी सेना सजाकर जरासिंधुसे युद्ध करने के लिए चल दिए, उनकी सेनामें पांचों पांडव आदि शूरवीर राजा थे।
(१७) जरासिंधु, भीष्म, कर्ण, द्रोण भादि राजाओं के साथ श्रीकृष्णके सामने युद्धके लिए पहुंचा। दोनों सेनाओंमें भयंकर युद्ध हुआ। जरासिंधुने कृष्णके ऊपर अनेक शस्त्र चलाए पर उनका कुछ भी असर नहीं हुआ, तब क्रोधित होकर उसने उनपर सुदर्शन चक्र चलाया । चक्र श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा देकर उनकी दाहिनी भुजामें जाकर ठहर गया। श्रीकृष्णने उसी चक्रसे जरासिंधुका सिर काट डाला। उनकी सैनामें जीतके नगारे बजने लगे।
(१८) श्रीकृष्णने चक्ररत्नको मागे रख कर बकदेवजीको
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
तीसरा भाग साथ लेकर तीन खंडके विद्याधर, म्लेच्छ तथा देवताओं को अपने वशमें कर लिया। वे तीन खंडके स्वामी होकर रहने लगे।
(१९) श्रीकृष्णकी आयु एक हजार वर्षकी थी। दश धनुष ऊंचा शरीर था। नील कमलके समान शरीरका वर्ण था। चक्र, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दंड और तलवार ये उनके सात रत्न थे। उनके सोलह हजार रानियां थीं।
(२०) रत्नमाला, गदा, हल, मूसक ये चार महारत्न बलदेवके थे। उनके आठ हजार रानियां थीं।
(२१) एक समय कुछ यादवकुमार बाहर वनक्रीडाको गये थे। वे बहुत थक गये थे, प्यासकी पीड़ा उन्हें बहुत सता रही थी। उन सबने पास ही वावड़ी देखी। उस वावडीमें नगरकी सब शराव फैंक दी गई थी। उसके पानीको पीकर वे सब मदोन्मत्त होगये, उन्हें तन मनकी सुधि न रही। वे मस्त होकर जब लौटे तो उन्होंने द्वीपायन मुनिको देखा । द्वीपायन मुनिके द्वारा द्वारिका जलेगी ऐसा उन्होंने भगवान नेमिनाथ के समवशरणमें सुना था । इसलिए मुनिको देखकर उनके मन में क्रोध पैदा हुआ। वे द्वीपायनको पत्थरोंसे मारने कगे। मुनिराज बहुत देर तक मारको शांत भावसे सहते रहे परन्तु जब पत्थरोंकी मार और गालियोंकी वर्षा अधिक बढ़ती गई तब उन्हें क्रोध भागया। उन्होंने संकल्प किया कि मेरे योग बलसे यह सारी द्वारिका भस्म होजावे । उनके इतना कहते ही शरीरसे एक मनिका पुतला निकला और उसने सारी द्वारिकाको भस्म कर दिया। केवल श्रीकृष्ण, बलराम और जरत्कुमार ही बचे ।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाचीन जैन. इतिहास। २४
(२२) श्रीकृष्ण और बलराम अपनी जान लेकर भागे और जाकर जंगलमें एक पेड़ के नीचे थक कर पडे रहे। उन्हें प्यासने सताया। बलराम उन्हें सोता छोड़कर पानी ढूंढनेको चले गये। श्री कृष्ण पेडके सहारे लेट रहे। उनके तलवे में पद्मका चिह्न था, वह दूरसे चमक रहा था। जरत्कुमार भी इस वनमें मा निकला। उसने दूरसे चमकता हुमा पद्म देखा। उसे हिरणका नेत्र समझ कर उसने चट कमानपर तीर चढ़ाया और निशाना ताक कर इस तरह मारा कि श्रीकृष्णके पद्मको आर पार कर गया। श्रीकृष्ण चिल्लाए। उनका चिल्लाना सुन कर जरत्कुमार उनके पास आया। श्रीकृष्णको देखकर उसके होश गुम होगये । श्रीकृष्णने उससे कहा-माई ! बलराम पानी लेने गये हैं, वह न माने पायें, इससे पहिले ही तुम यहांसे चले जाओ, नहीं तो वह तुम्हें विना मारे न छोडेंगे । श्रीकृष्णकी भाज्ञासे जरत्कुमार वहांसे चला गया। श्रीकृष्णको मृत्यु होगई।
(२३) बलरामने उन्हें देखा तो वे उनके मोहमें पागल होगये । श्रीकृष्ण के शबको लेकर वे लगातार छह महीने तक इधर उधर घूमते रहे । जब उन्हें एक देवने आकर संबोधित किया तब उनका मोह छूटा। और उन्होंने श्रीकृष्णका दाह कर्म किया ।
(२४) श्रीकृष्ण मरकर तीसरे नर्क गये। बलरामने संसारसे उदास होकर तप किया और वे स्वर्ग गए।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
पाठ ८॥
प्रद्युम्नकुमार। (१) प्रद्युम्नकुमारका जन्म श्रीकृष्णकी प्रधान पटरानी रुक्मणीके गभसे हुभा था।
(२) जिस समय प्रद्युम्न का जन्म हुमा उसी समय उनके पूर्व जन्मका शत्रु धूमकेतुदेव विमानपर बैठा जारहा था। अचानक श्रीकृष्णके महलपर भाते ही उसका विमान रुक गया, उसने भवधिज्ञानसे अपने शत्रुको जानकर मायासे महकमें प्रवेश किया और बालक प्रद्युम्नको उठाकर भाकाश मार्गसे ले गया । वह उसे मारनेकी इच्छासे एक विशाल शिलाके नीचे रखकर चला गया ।
(३) विजयार्द्ध पर्वतके मेघकूट नगरका विद्याधर गजा कालसंभव अपनी रानी सहित घूमता हुआ उस शिलाके निकट भाया। उस शिलाको हिलती देखकर उसे अचंभा हुआ। उसने अपने विद्याबलमे शिला उठाई और बालक प्रद्युम्नको उठाकर उसने अपनी रानीको दिया ।
(४) रुक्मिणी तथा कृष्णको पुत्र वियोगका बहुत दुःख हुआ। परन्तु नारदके यह कहनेपर कि १६ वर्ष बाद पुत्र मिलेगा, उनका यह दुःख कम होगया।
(५) प्रद्युम्नकुमार जवान हुये उस समय उन्होंने कालशत्रुके प्रबलशत्रु अग्निराजको विजय किया। वे बहुमूल्य भूषणोंसे सजकर महलको मारहे थे कि उन्हें देखकर रानी कांचनमाला उनपर मोहित
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । २६ होगई। उसने अपनी कामवासनाकी बातें प्रकट की और दो बहुमूल्य विद्याएं देनेका वचन दिया । प्रद्युम्नने विद्याएं तो ले ली परन्तु उसे माता कहकर प्रणाम किया ।
. (६) कांचनमालाकी कामवासना पूर्ण न होनेसे उसने राजासे जाकर कहा कि कुमार मुझसे बलात्कार करना चाहता है । विचारशून्य राजाने उसकी बात मानकर अपने पांचसौ पुत्रोंको हुक्म दिया कि तुम इसे किसी एकांतमें ले जाकर मार डालो।
(७) वे सभी पुत्र कुमारको मारने के लिए सोलह भयंकर गुफाओं, वावड़ियों, तथा वनों में ले गए। वहांपर बड़े भयानक राक्षस, यक्ष तथा मजगर आदि रहते थे, वहां जाकर उन राक्षसों, यक्षों और अजगरों को जीतकर प्रद्युम्नने अनेक विद्याएं, हथियार तथा भाभूषण प्राप्त किए । जब उन सभी स्थानोंसे प्रद्युम्न लाभ लेकर जीते लौट आए, तब अन्तमें उन्होंने पातालमुखी वावड़ीमें फंसा कर मारनेका विचार किया। प्रद्युम्नने प्रज्ञप्ति नामकी विद्याको अपना रूप बना कर वावड़ीमें कुदा दिया और जब वे सब राजकुमार उसे मारने वावड़ीमें कूदे तब प्रद्युम्नने उस बावड़ीको एक बड़ी शिलासे ढक दिया और छोटे पुत्रको नगरमें भेज दिया और वे शिला पर बैठ गये ।
(८) शिला पर बैठे हुये उन्होंने नारदको उतरते देखा। नारदने प्रद्युम्नको उनके माता पिता भादिका साग हाल सुनाया। उसी समय कालसंभव विद्याधरने क्रोधित होकर अपनी सेना लेकर उसे घेर लिया पर प्रद्युम्नने सबको युद्ध में हरा दिया। और अंतमें अपना सब सच्चा हाल सुनाया। तब कालसंभवने प्रद्युम्नसे क्षमा
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७ .तीसग भाग मांगी। उन्होंने राजासे द्वारिका जानेकी भाज्ञा मांगी और वे नारदके साथ द्वारिकाको चल दिये।।
(९) द्वारिका जाकर विद्यासे नारदको तो रथ ही रोक दिया और भाप बन्दरका रूप धारण कर अकेले ही नीचे आया। भाते ही अपनी माता रुक्मिणिकी सौत सत्यभामाका वावन नामका बहु सुन्दर बाग उजाड डाला और उसमें बाव. डीका सब जल कमंडलुमें भर लिया। इसी तरह भनेक प्रकारके कौतूहल करता हुआ वह क्षुल्लकका रूप धारण कर अपनी माता रुक्मिणीके पास पहुंचा। और कहने लगा कि हे सम्यग्दर्शनको पालन करनेवाली मैं भूखा हूं, मुझे अच्छी तरह भोजन करा । उसके दिए हुए अनेक तरहके भोजन खाए परन्तु तृप्त नहीं हुमा । तब मन्तमें एक बड़ा मोदक खाकर संतुष्ट होकर वहां बैठ गया । उसी समय रुक्मिणीने देखा कि असमयमें ही चंग, अशोक भादिके सब फूल फूल गए हैं। उन्हें देखकर रुक्मिणीको बहुत आश्चर्य हुआ। वह प्रसन्नचित्त होकर पूछने लगी कि क्या आप मेरे पुत्र हैं और नारदके कहे अनुसार ठीक समयपर आये हैं। माताको यह बात सुनकर प्रद्युम्गने अपना रूप प्रकट किया और माताके चरणोंमें मस्तक नवाया। माताकी इच्छानुसार भनेक तरहकी बालक्रीड़ाएं कर उसे प्रसन्न किया और वहीं ठहरा ।
___ कुछ समय बाद अत्यंत बुढेका रूप बनाकर वह गलीमें सोरहा और बलभद्रके जगानेपर अपने पैर लम्बेकर उन्हें ठगा । फिर मेढेका रूप बनाकर बाबा वसुदेवका घोंटू तोड़ा और सिंह बनकर
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। २८ बलभद्रको निगलकर मदृश्य कर दिया। फिर माताके पास पहुंचा और कहने लगा कि तु यहीं ठहरना । उसने अपनी विद्यासे रुक्मिणीका वैसा ही मनोहररूप बनाया और उसे विमानमें बैठाकर शीघ्र ही कृष्णके पास पहुंचा और कहने लगा मैं भापकी पत्नीको दरलिये जाता हूं, यदि सामर्थ्य हो तो छुड़ाओ। यह बात सुनकर यमके समान श्रीकृष्ण सब सेना लेकर भाये, परन्तु भीलका रूप धारण करनेवाले प्रद्युम्नने मायामयी नरेन्द्रजाल विद्य से सबको जीत लिया। इतने में नारद कृष्ण के समीप आये और कहने लगे कि अनेक विद्या. वाला यह भापका पुत्र है । उसी समय प्रद्युम्नने भी अपना रूप प्रकट कर श्रीकृष्णको प्रणाम किया। श्रीकृष्णने बड़े प्रेमसे उसका आलिंगन किया और हाथीपर चढ़कर नगरमें प्रवेश कराया। उन्होंने बहुत समय तक अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत किया।
(१० ) अंतमें गिरनार पर्वतसे मुक्ति लाम किया।
पाठ ९।
पांच पांडव । (१) हस्तिनापुरके राजा पांडु और धृतराष्ट्र दोनों भाई थे । राजा पांडु के कुन्ती पत्नीसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनका जन्म हुआ तथा माद्रीसे नकुल भौर सहदेव उत्पन्न हुए थे, यह पांचों पांडुके पुत्र पांडव कहलाए ।
(२) धृतराष्ट्र के गांधारी नामक पत्नीसे दुर्योवन, दुःशाषन भादि १०० पुत्र उत्पन्न हुए जो कौरव नामसे प्रसिद्ध हुए ।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
(३.) पांडव और कौरवोंने द्रोणाचार्य के निकट धनुष्यविद्याकी शिक्षा ली थी। इन सबमें अर्जुन धनुष्यविद्य में बहुत ही. निपुण थे। अन्य चारों पांडव भी वीर और पराक्रमी थे।
(४) कुछ समयके बाद राजा पांडु संसारसे विरक्त होगए, उन्होंने अपना राज्य धृतराष्ट्रको दिया और युधिष्ठिर भादि पांचों पुत्रोंको उनके सुपुर्द कर दिया। वे साधु होकर जंगलको चले गए। राजा धृतराष्ट्र के निकट पांडव सुखसे रहे ।
(५) कुछ समय बाद राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्र कौरवों और पांडवोंको माधा २ राज्य देकर साधु होगए ।
(६) पांडव बड़े प्रतापी थे, वे अपने धनुष बाण और लक्ष्य. वेधसे बड़े २ राजाओंको चकित करते थे। दुर्योधन मादि कौरवोंसे पांडवोंका प्रताप न देखा गया, उनका वैर विरोध परस्पर बढ़ता ही गया। कौरव चाहते थे कि हमें, सारा राज्य प्राप्त हो इसलिये कौरवोंक मारनेकी चेष्टामें लगे रहते थे। परन्तु ऊपरसे प्रीति ही दिखलाते थे और उनक साथ सुंदर २ प्रदेशोंमें क्रीड़ा करते थे।
(७) आधे राज्यको भोगते हुये पांडव और कौरव एक दिन सभाभवनमें बैठे थे। उस समय कौरवोंने कहा कि हम सौ भाई हैं
और पांडव केवल पांच माई हैं । इसलिये आधा २ राज्य नहीं बट सकता । गज्यके १०५ भाग किये जाय और इन्हें ५ माग देकर हमें १०० भाग दिये जाय । इससे भीम बहुत क्रोधित हुमा परन्तु. युधिष्ठिरके समझानेसे वह शांत होगया।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ३०
(८) एकवार दुर्योधनने कपटसे लाखका महल बनवाया । - वह महल पांडवोंको रहने के लिये दे दिया गया।
(९) एक समय जब पांडव सोये थे, माधीरातको कौरवोंने उस महलमें भाग लगवादी । पुण्ययोगसे पांडवोंको जमीनके नीचे • एक सुरंग मिल गई। वे सुरङ्गके मार्गसे निकलकर बाहिर होगये । लोगोंने समझा कि पांडव जल चुके हैं, इससे सबको दुःख हुआ।
(१०) पांडव ब्राह्मणका वेष रखकर आगे चलकर गंगाके किनारे पहुंचे। वे एक नावपर चढ़कर गंगाके उस पार चलने लगे। नाव बीचधारमें पहुंचकर अचल होगई । धीवरसे पूछने पर पांडवोंको मालूम हुआ कि यहां तुंडिका नामक जलदेवी रहती है, वह नावको रोककर भेंट मांगती है, इसे मनुष्यकी बलि चाहिए । यह सुनकर पांडवोंको बहुत दुःख हुभा । इसी समय भीम सबको सान्तवना देता हुमा गंगामें कूद पड़ा । तुंडी भयंकर मगरका रूप रखकर आई, दोनोंमें भयंकर युद्ध हुमा, भन्तमें भीमकी मारसे व्याकुल होकर तुंडी भाग गई । भीम गंगाको तैरकर भागया ।
(११) गंगा पार कर पांडव अनेक स्थानोंपर भ्रमण करते हुए भपने पराक्रमका परिचय देते एक वनमें पहुंचे। वहां एक पिशाचसे युद्ध कर भीमने हिंडवा नामक कन्याकी रक्षा की और उससे पाणिग्रहण किया, जिससे घुटुक नामक पुत्र हुमा । वहां भी भीमने भीमासुर नामक राक्षसको जीता।
(१२) भ्रमण करते हुए पांडव माकन्दी नगरी पहुंचे। वहांका राजा द्रुपद था, उसकी द्रोपदी नामकी युक्ती कन्या थी,
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१ . तीसरा भाम राजाने उसका स्वयंवर रचा था। स्वयंवरमें दुर्योवन, कर्ण, यादव मादि सभी राजा भाए थे । ब्राह्मण वेषधारी पांडव भी वहां का पहुंचे । राजाने घोषणा की कि जो कोई गांडीव धनुषको चढ़ाकर राधावेध करेगा वही कन्याका वर होगा। किसी भी राजाका साहस धनुष चढ़ानेका नहीं हुआ, तब अर्जुन धनुष चढ़ानेके लिए उठा। उसने धनुष चढ़ाकर राधाकी नाकके मोतीको बातकी बातमें वेव डाला, तब द्रौपदीने अर्जुनके गलेमें वरमाला डाली, दैववशात् माला वायुके वेगसे टूट गई जिससे पासमें बैठे हुए चारों पांडवोंकी गोदमें उसके मोती पड़े। लोगोंने मूखतावश यह कह दिया कि इसने पांचों पांडवोंको वरा है। इससे मन्य राजा बहुत क्रोधित हुये । उन्होंने अर्जुनसे युद्ध करना चाहा परन्तु सभी पराजित हुये। अंतमें द्रोणाचार्य युद्ध करनेको तैयार हुये, तब मर्जुनने धनुषमें एक पत्र चिपका कर उन्हें भात्मपरिचय दिया। परिचय प्राप्त होने पर वे तथा सभी राजा बड़े प्रेमसे मिले और सबने मिलकर पपर क्षमा करा कर कौरव पांडवोंको मिला दिया। पांडव पांच ग्राम लेकर अलग रहने लगे।
(१३) एकवार श्रीकृष्णने अर्जुनको द्वारिका बुलाया। वहांपर श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्राको देखकर वे मोहित होगये। वे सुभद्राका हरण कर लेआए। पश्चात् उसके साथ उनका विवाह हुमा।
(१४) एक समय दुर्योधनने कपटसे पांडवों को बुलाकर उनसे जूमा खेलने के लिये कहा। दोनोंमें पासा फिकने लगा कौर. वोंका पांसा अनुकूल पडता था। परन्तु कभी २ भीमकी हुंकारसे
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ३२ पांसा उल्टा होजाता था इसलिए उन्होंने किसी बहाने भीमको बाहर भेज दिया और युधिष्ठिरका सारा राज्यपाट जीत लिया यहांतक कि युधिष्ठिरने अपनी रानियां और भाइयोंको भी रख दिया।
(१५) वे बारह वर्षको अपना सारा राज्य हार चुके थे । दुष्ट दुःशाषन महल में आकर द्रौपदीकी चोटी पकड़कर उसे महलसे बाहर सभामें खींच लाया । मांसू बहाती और रोती हुई द्रौपदी सभामें लाई गई । इससे भीम और अर्जुन बहुत क्रुद्ध हुए परन्तु युधिष्ठिर ने सबको शांत कर दिया और वे सब द्रौपदीको साथ लेकर बनको चल दिए।
(१६) मकिन वस्त्र धारण कर अनेक स्थानोंपर भ्रमण करते हुए वे विराटनगरमें पहुचे । उनसे बारह वर्ष भ्रमण करते हुए व्यतीत होचुके थे, भर एक वर्ष वे वेष बदलकर यहीं बिताने लगे। युधिष्ठिरने भोजन बनानेवाले रसोइया, मर्जुन नाटककी नायिका, नकुल घोड़ोंका रक्षक, सहदेव गोवन चरानेवाला और द्रौपदी मालिन बनकर रहने लगी।
(१७) एक समय विराटके साले कीचकने द्रौपदीको देखा, वह उसपर मासक्त होगया। जहां द्रौपदी जाती वहां वह उसके पीछे २ जाता और कामसे अन्धा होकर उसके साथ प्रेमकी बातें बनानेका यत्न करता । उसका यह कलुषित हाल देखकर द्रौपदीने उसे बहुत डांटा पर कीचकने इसपर कुछ ध्यान नहीं दिया। इसके बाद एक समय किसी एक सूने मकानमें उस दुष्टने द्रौपदीका हाथ पकड़ लिया और उससे अश्लीलताकी बातें करने लगा। उस वीर
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
Cineer
तेइसवें तीर्थंकर श्री १००८ भगवान् पार्श्वनाथ ।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३
तीसरा भाग
नारीने झटका मारकर हाथ छुड़ा लिया और युधिष्ठिर के पास जाकर उस दुष्टके दुष्कृत्यको कहा । द्रौपदीकी बातें सुनकर युधिष्ठिरकी मांखें चढ़ गई. वह उसे सान्त्वना देने लगे । भीम द्रौपदीके ऊपर इस अत्याचारको सुनकर लाल होगया और कीचकके मारनेको तैयार होगया। उसने द्रौपदीसे कहा, कि तुम जाकर उससे कल रातको बनके एकांत स्थानमें मानेके लिये संकेत कर माओ। द्रौपदी कीचक के पास गई और उसने उस कपटीसे कहा कि मैं आपको चाहती हूं, आप रात्रिके समय नाट्यशाला में माना । रात्रि होने पर भीमने स्त्रीका वेष धारण किया और संकेत स्थान में जाकर बैठा। काम पीड़ित कीचक भी भागया और उसने भीमका हाथ पकड़ा। भीमने उसे तुरन्त ही पकड कर जमीन पर पटक दिया। जिससे उसका उसी समय देहांत होगया।
(१८) इसी बीचमें दुर्योधनने अपयशके कारण अपने सेवकोंको पांडवोंकी खोजमें भेजा और भीष्मपितामहने पांडवोंको फिरसे हस्तिनापुर बुलानेकी सम्मति दी । इसी समय अविचारी जालंघर राजाने कहा-कि विगटका प्रचंड पक्षगती कीचक किसी गंधर्व द्वारा मारा गया है, इसलिए मैं विराटकी गौ हरण करूंगा। उसने जाकर बालोंसे सुरक्षित गोकुलको हर लिया । विगटने अपनी सेना लेकर जालंधरसे युद्ध किया । जालंधरने उसे युद्ध में पकड़ लिया तब भीम जालंधरसे युद्ध करनेको पहुंचा। उसने जालंधरकी सेना नष्ट कर भयंकर बाणोंकी वर्षा कर जालंधरको पकड़ लिया। जालंघरके पकड़े जानेसे दुर्योधन क्रोधित होकर सेना सहित युद्धके
३
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाचीन जैन इतिहास । ३४ लिए विराट देशको चला और उसका सारा गोधन हर लिया। विराटका पुत्र अर्जुनकी शरणमें भाया और द्रोणाचार्य, तथा भीष्मपितामहके समझानेपर भी कौरव पांडवोंमें भयानक युद्ध छिड़ गया और पांडवोंने कौरवोंको हराकर पीछे लौटा दिया ।
(१९) विराटको निश्चय होगया कि ये पांडव हैं, तब उसने 'भपनी पुत्री उत्तराका मभिमन्यु के साथ विवाह कर दिया। पांडव वहांसे चल दिए और द्वारिका पहुंचे।
(२०) द्वारिका जाकर अर्जुनने कौरवोंके छलको कृष्ण जीसे कहा। कृष्ण जीने दुर्योवनके पास एक दूत के द्वारा संदेशा भेजा कि भाप मान छोड़कर कपट रहिन होकर संधि कर लीजिए और आधा भाषा राज्य बांट लीजिए। दुर्योधनने दूतको राज्यसे निकाल दिया
और एक पैर पृथ्वी देने से भी इन्कार किया। इसके बाद ही पांडव यादवों सहित कौरवोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी में लग गए ।
(२१) पांडवों के पक्ष श्रीकृष्ण थे और कौरवों के पक्षमें जरासिंधु था। पांडव श्रीकृष्ण के साथ २ मसंख्य सेना लेकर कुरुक्षेत्रमें भापहुंचे । जगसिंधुने अपनी सेनामें चक्रव्यूहकी रचना की और पांडवोंकी सेनामें तायव्यूह रचा गया । थोड़ी दे में दोनों सेनाओंमें भयंकर युद्ध होने लगा।
(२२ ) मर्जनके पुत्र अभिमन्युने चक्रव्यूहको भेदकर कौरवोंकी सेना में प्रवेश किया और एक क्षणमें ही अपने ब.णोंसे सेनाको वेध डाला तब गांगेय और शल्य आदि महारथियोंने अभिमन्युके
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीमरा भाग सामने जाकर उसे रोका । इसी समय कौरवों और पांडवोंमें भयंकर मुद्ध हुआ जिसमें अनेक महारथी मारे गए।
(२३) शिखण्डी द्वारा भीष्मपितामह मारे गए और जबद्रथके द्वारा वीर अभिमन्यु मारा गया । इनकी मृत्युसे कौरव और पांडव दोनोंकी सेना में महा शोक छागया। दूसरे दिन अर्जुनने जयद्रथको मारने की प्रतिज्ञा की । वह अर्जुनके द्वारा मारा गया । इसी प्रकार कौरवोंके द्रोणाचार्य, शल्य, कर्ण आदि महा प्रतापी सभी योद्धा मारे गए । अंतमें भीमकी गदा द्वारा दुर्योधन भी मारा गया और श्रीकृष्ण द्वारा जरा सिंधुका वध हुमा।
(२४ ) दोण, कर्ण भादिको मृत्युके मुंहमें पड़े देखकर पांडव, श्रीकृष्ण तथा बलदेव बड़े शोकाकुल हुए, उन्होंने उसी समय उनकी दम्ब क्रिया की । पांडवोंको हस्तिनापुरका राज्य प्राप्त हुआ। उन्होंने बहुत समय तक राज्य किया।
(२५) बहुत समय तक राज्य करने के बाद पांचों पांडवोंने श्री नेमिनाथस्वामी के पास मुनि दीक्षा धारण की।
(२६) एक समय जब वे ध्यानमें मग्न थे तब कुमुर्धर नामक राजपुत्रने उनपर महा उपसर्ग किया। उनके शरीर पर लोहे के जेवर गर्म करके पहनाए, परन्तु वे सब अपने मात्मध्यानमें मग्न होगए।
(२७) युधिष्ठिर, भीम और मर्जुनने मोक्ष प्राप्त किया और नकुल सहदेव सर्वार्थसिद्धिमें महमिन्द्र हुए ।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ३६
पाठ १०। पितृभक्त भीष्मपितामह।
(१) कुरुजांगल देशके राजा शान्तनु तथा रानी गंगाके गर्भसे देवव्रतका जन्म हुमा था। भाप बड़े बलवान, साहसी, दृढ़ पतिज्ञ और पितृभक्त थे।
(२) एक समय राजा शान्तनु गंगानदीके किनारे क्रीड़ाके लिए जा रहे थे, वहां उन्होंने धीवरराजकी कन्या सत्यवतीको देखा। सत्यवती बड़ी ही सुन्दर और आकर्षक थी। उसे देखकर राजा उसपर मोहित होगए। वे अपने मंत्रीके साथ धीवरराजके यहां गए। वहां राजाके मंत्रीने धीवरराजसे अपनी कन्याका विवाह महाराज शान्तनुसे कर देनेको कहा । धीवराजने अपनी कन्या देनेसे इन्कार किया। उसने कहा कि आपके पहली रानीसे एक महाप्रतापी पुत्र है, वह राज्यका स्वामी होगा। और मेरी कन्याके जो पुत्र होगा वह उसका दास बनकर रहेगा। इसलिए मैं अपनी कन्या नहीं दे सक्ता। राजा वापिस चले आए, परन्तु सत्यवतीके न मिलनेसे उनको बड़ी वेदना हुई।
(३) पिताकी वेदनाका हाल देवव्रतको मालूम हुआ। वे धीवररानके यहां गए और पिताजीको अपनी कन्या देदेनेका आग्रह किया। परन्तु धीवररानने कहा कि आपके होते हुए मैं अपनी कन्या नहीं देसक्ता।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीपग भाग
___ (४) देवव्रतने धवारा जसे कहा कि माप निश्चिंत रहिए। मैं अपने राज्यका अधिकार छोड़ता हूं और प्रतिज्ञा करता हूं कि मापकी कन्याका पुत्र ही राज्यका स्वामी होगा। धीवरराजने कहायह तो ठीक है, परन्तु भापका विवाह होगा और भापक जो संतान होगी उसने कहीं राज्य छीन लिया तो मेरी कन्याके पुत्र क्या कर सकेंगे ? यह सुनकर देवव्रत कुछ समयको विचारमें पड़ गए । फिर वह दृढ़तापूर्वक बोले- धीवरराज ! मैं तुम्हारी यह आशंका भी दर किए देता हूं। लो, तुम सुनो, देवता सुनें, और सारा संसार सुने । मैं भाज यह प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं आजीवन विवाह नहीं कराऊंगा, और जीवन भर ब्रह्मचारी रहूंगा।
(५) देवव्रतकी यह कठिन प्रतिज्ञा और पिताकी भक्ति देखकर धीवराज आश्चर्यमें पड़ गया। उसने अपनी कन्या राजा शांतनुको देना स्वीकार की। उसी दिनसे देवव्रतका भीष्म नाम पड़ गया।
(६) भीष्मका विवाह काशीनरेशकी कन्या अंबा तथा अंबालिकासे होना निश्चित था, परन्तु उन्होंने अपनी प्रतिज्ञाको जीवन भर बड़ी दृढ़तासे निवाहा । उन कन्याओंने भीष्मको अपनी प्रतिज्ञासे कईबार चलित करना चाहा, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञामें निश्चक रहे। ब्रह्मचर्य के प्रतापसे उनमें अद्वितीय शक्ति और तेज था। वृद्धावस्था में भी उनकी वीरता और साहसकी समानता करनेवाला कोई व्यक्ति नहीं था।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास |
१८
पाठ ११ ।
एक मांसभक्षी राजा ।
।
( १ ) श्रुतपुर नगरका राजा वक था । उसे मांसभक्षणका दुव्यंसन पड़ गया था । वह गुप्त रूप से मांसभक्षण किया करता था ।
( २ ) एकवार उसके रसोइएने मांस पकाकर रक्खा । इसी समय एक कुत्ता उसे उठा कर लेगया । रसोइएको बड़ी चिंता हुई । वह श्मशानभूमिमें गड़े हुए एक बालकके शरीरको लेभाया और उसका मांस राजाको खिलाया । राजाको वह मांस बहुत स्वादिष्ट लगा और उसने अपने रसोइएसे कहा कि मुझे इसी प्रकारका मांस खिलाया करो |
( ३ ) रसोइया कुछ लोभ देकर अपने यहां नगर के बालकोंको बुलाता और अन्तमें एक बालकको एकांत में मार कर उसका मांस राजाको खिलाता |
(४) कुछ समय बाद नगरके बालक कम होने लगे तब नगरनिवासियोंने बालकों की खोज की। खोज करने पर उन्हें राजाके मांस भक्षणका पता लगा । उन्होंने मिलकर राजाको राज्य से निकाल दिया ।
(५) बक राजा जंगलोंमें रहने लगा और नगर में जाकर मनुष्यों को पकड़ कर खाने लगा | वह बहुत बलवान था इसलिए उसका कोई सामना नहीं कर सकता था । तब नगर निवासियोंने
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भागः
उसके लिए प्रत्येक घरसे एक २ मनुष्यकी वारी बांध दी। और वारीके दिन एक मनुष्य उसकी भेंट होने लगा।
(६) एक समय एक वैश्य स्त्रीके पुत्रकी वारी थी । उसके वही भकेला पुत्र था, इसलिए वह उसके वियोगसे दुःखी होकर विलाप कर रही थी। उस वैश्य स्त्रीके यहां उस दिन पांचों पांडव तथा माता कुन्ती ठहरी थी, उसने उसका दुःख सुनकर उसका कारण जानकर भीमको सभी हाल सुनाया। भीम सबको दिलासा देकर बकराक्षसके पास निर्भय होकर गया। भीमने बकसे युद्ध किया और उसे पृथ्वी पर पछाड़कर उसकी छातीपर चढ़ गया। बकने क्षमा मांगी
और मांस न खाने की प्रतिज्ञा की तब भीमने उसे छोड़ दिया। उस दिनसे बकने फिर कभी मांस नहीं खाया।
पाठ १२। बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ।
(१) कापिल्यनगरके राजा ब्रह्मरथ रानी चूलादेवीके गर्भसे ब्रह्मदत्तका जन्म हुमा था । उनका शरीर सात धनुष्य ऊंचा और सौ वर्षकी आयु थीं।
(२) इनके चौदह रत्न और नवनिधिएं आदि थीं। इन्होंने छहों खण्डोंको विजय किया था । बत्तीसहजार राजा इनके माधीन थे। छयानवेहजार रानियां थीं।
(३) एक दिन चक्रवर्ती भोजन करने बैठे, उस समय
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ४०
रसोइएने खीर परसी, खीर कुछ गर्म थी, इतनी गर्म खीर देखकर गुस्से से उस वर्तनको रसोइएके सिरपर दे मारा, रसोइया मरकर व्यंतरदेव हुआ ।
( ४ ) अपना पूर्वजन्मका हाल जानकर वह व्यंतर सन्यासीके वेष में राजा के पास आया और बहुतसे फल लाया । राजाको फक स्वादिष्ट लगे, उसने फलोंकी उत्पत्तिके विषय में पूछा । सन्यासीने कहा- महाराज ! मेरा घर टापूमें है, वहां एक सुन्दर बगीचा हैं, उसीके ये फल हैं। राजा सन्यासी के साथ टापूकी ओर चला । जब वह समुद्र के बीच में पहुंचा तब उसने राजाके मारने को उसे समुद्र में डुबोना चाहा, परन्तु णमोकार मंत्र जपने के कारण वह उसका कुछ न कर सका । अन्तमें ब्रह्मदत्तने व्यंतरके कहने पर णमोकार मंत्र का अपमान किया, जिससे उसने चक्रवर्तीको उसी समय मारकर समुद्र में फेंक दिया। चक्रवर्ती मरकर सातवें नरक गया ।
पाठ १३ ।
भगवान पार्श्वनाथ । तेईसवें तीर्थंकर |
( १ ) भगवान नेमिनाथके मोक्ष जानेके बाद तेरासी हजार सातसौ पचास वर्ष बीत जाने पर भगवान् पार्श्वनाथ हुए ।
(२) भगवान् के पिनाका नाम विश्वसेन और माताका नाम अमादेवी था। ये बनारस के राजा काश्यपगोत्री थे ।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
(३) भगवान् पार्श्वनाथ वैशास्त्र कृष्ण द्वितीयाके दिन विशाखा नक्षत्र में गभमें भाए। माताने सोलहस्वप्न देखे । गर्भमें मानेके छह माह पहिलेसे जन्म होने तक देवोंने रत्नवर्षा की और गर्भमें आने पर गर्भकल्याणक उत्सव मनाया। माताकी सेवामें देवियां रहती थीं।
(४) पौष कृष्णा एकादशीको भगवान् पार्श्वनाथका जन्म हुमा। इन्द्रादि देव भगवान्को सुमेरुपर लेगये । और जन्मल्या . णक उत्सव मनाया। माप जन्मसे ही मतिज्ञानादि तीन ज्ञानयुक्त थे।
(५) आपकी भायु सौ वर्षकी थी और शरीर नौ हाथ ऊंचा था । आपके शरीरका वर्ण हरित था।
(६) एक दिन कुमार अवस्थामें आप सब सैनाके साथ क्रीड़ा करने नगरके बाहिर भाश्रम बनमें गए थे। वहां महीपाल नगरका राजा जो अपनी पटरानीके वियोगमें दुखी होकर तपसी हो गया था पंचा मके मध्य बैठा, तपश्चरण कर रहा था। उसे देखकर माप उसके समीप गये और उसे बिना ही नमस्कार किये खड़े रहे । अपना इस तरह अनादर देवकर महीपाल तपस्वीको क्रोध माया और वह विचार करने लगा कि मैं गुरु हूं, कुकीन हूं, तपोवृद्ध हूं, और इसकी माताका पिता हूं। तौभी इस मूर्ख कुमारने मुझे नमस्कार नहीं किया। इस तरह क्रोधित होकर उस मूर्ख तपस्वीने शांत हुई भग्निमें डालने के लिये लकड़ी काटनेको एक बड़ी कुल्हाड़ी उठाई । तब भवधिज्ञानसे जानकर कुमार पाश्वनाथने
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ४२ कहा कि इस लकड़ीको मत काटो, इममें एक सर्प और सर्पिणी हैं । भापके रोकनेपर भी उस तपस्वीने कुल्हाड़ी चलाई । उसकी चोटसे उस लकड़ी में बैठे हुए सर्प सर्पिणीके दो टुकड़े होगये । उसे देखकर मापने कहा कि इस अज्ञान तपसे इस लोकमें दु.ख होगा और परलोकमें भी दुःख मिलेगा। तुम्हें इस बातका मभिमान है कि मैं गुरु हूं, तपस्वी हूं, परन्तु तुमने अज्ञानतासे इन जीवोंकी हिंसा कर डाली। ये वचन सुनकर उस तपस्वीको और भी क्रोध माया । वह बोला कि तुम मेरे तपश्च णकी महिमा नहीं जानते इसीलिए ऐसा कहते हो, मैं पंचाग्निके मध्य बैठता हूं, वायु भक्षण कर जीवित रहता हूं, ऊपरको भुजाकर एक ही पैरसे बहुत देरतक स्टकता हूं। इस तरहके तपश्चरणसे और अधिक तपश्चरण नहीं होसकता । तब कुमारने हंसकर कहा-हमने न तो आपको गुरु ही माना है और न तिरस्कार ही किया है। किन्तु जो आप्त-मागमको छोड़कर वनमें रहते; मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ और हिंसा करते हैं, उन्हें विना सम्यग्ज्ञानके कायक्लेश दुःखका ही कारण होता है । इस तरह मापके कहनेपर उस विरुद्ध बुद्धिवाले मूर्ख तपस्वीने पहिले जन्मका वैर संस्कार होने के कारण दुष्टः स्वभाव से कुछ ध्यान नहीं दिया। तब कुमारने सर्प सर्पिणीको समझाकर समताभाव धारण कराया और उन्हें णमोकार मंत्र दिया। वे दोनों मरकर बड़ी विभूतिके धारी धरणेन्द्र पद्मावती हुए।
(७) एक दिन अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवोंको जानकर मापको वैराग्य उत्पन्न हुमा तब लौकान्तिक देवोंने भाकर स्तुति
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीमग भाग
की। और इन्द्रादि देवोंने दीक्षा कल्याणकका महोत्सव किया।
(८) पार्श्वनाथ भगवानने विमला नामकी पालकीमें बैठकर मश्ववन में जाकर पौष कृष्ण एकादशीको तीनसौ राजाओं के साथ दीक्षा धारण की । उसी समय मापको मनःपर्यय ज्ञानकी उत्पत्ति हुई। तीन दिनका उपवास कर गुल्मसेटपुरके राजा धन्यके यहाँ माहार लिया । इन्द्रादि देवोंने राजाके यहाँ पंचाश्चर्य किये । चार माह तक आप दूमस्थ अवस्थामें रहे।
(९) एक समय सात दिनका योग धारण कर वे उसी वनमें देवदारुके वृक्ष के नीचे धर्मध्यानमें लग रहे थे। इसी समय वह महाबल तपस्वी जो खोटे तपसे मरकर संवर नामक ज्योतिषी देव हुमा था, आकाश मार्गसे जा रहा था, परन्तु भगवानके ऊपरसे जानेके कारण उसका विमान रुक गया । तब उसने विभंगावधिसे पार्श्वनाथजीको जानकर पहले भवके वैरका संस्कार होने के कारण वह बड़ा क्रोधित हुमा । उस दुर्बुद्धिने बड़ा मयंकर शब्द किया और घनघोर वर्षा की । वह सात दिन महा गर्जना और महा वर्षा करता रहा। इसके सिवाय उसने पत्थरोंकी वर्षा भादि अनेक तरहके महोपसर्ग किए। भवधिज्ञानसे उस उपसर्गको जानकर उसी समय पद्मावती के साथ धरणेन्द्र भाया और देदीप्यमान रत्नोंके फणामंडपसे उसने चारों ओरसे ढककर भगवानको ऊपर उठा लिया तथा उसकी देवी पद्मावती अपने फणाओं के समूहका वज्रमयी छत्र बनाकर बहुत ऊंचा उठाकर खड़ी रही।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ४४
(१०) भगवानने ध्यान में तल्लीन होकर चैत्र कृष्णा १४को वेवलज्ञान प्राप्त किया।
(११) इन्द्रादि देवोंने भाकर समोशरणकी रचना की। वह संवर नामक ज्योतिषी देव भी अत्यंत शांत होगया और मिथ्यात्व छोड़कर उसने भगवानकी प्रदक्षिणा की और सम्यग्दर्शन स्वीकार किया। (१२) भगवानकी सभामें इस भांति चतुर्विध संघ था
१० स्वयंभुव आदि गणधर ३५० पूर्वधारी मुनि १०९०० शिक्षक मुनि १४०० अवधिज्ञानक धारी
७५० मन:पर्ययज्ञानी १००० केवलज्ञानी १००० विक्रिया ऋद्धिके घारी
६०० वादी मुनि ३६००० सुलोचना भादि आर्यिका १००००० श्रावक ३००००० श्राविकाएं
( १३ ) भायुके एक मास शेष रहनेतक मापने समस्त आर्यखण्डमें विहार किया और विना इच्छाके दिव्यध्वनिद्वारा धर्मोपदेश मादिसे प्राणियों का हित किया।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५
तीसरा भाग
(१४) जब भायुका एक मास शेष रहा तब दिव्यध्वनि होना बन्द हुई और सम्मेदशिखर पर्वतपर इस एक माहमें शेष कर्मों का नाश कर छत्तीस मुनियों सहित श्रावण शुक्ला सप्तमीको मोक्षा पधारे । इन्द्रादि देवोंने निर्वाण कल्याणक किया।
पाठ १४ । भगवान् महावीर।
चौवीसवें तीर्थकर । (१) भगवान् पार्श्वनाथके बाद दोसौ पचास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर भगवान् का जन्म हुआ।
(२) भगवान्क पिताका नाम सिद्धार्थ और माताका नाम रानी प्रियकारिणी था। आप कुंडलपुरके राजा इक्ष्वाकु वंशी थे।
(३) अषाढ़ शुक्ला ६ को भाप गर्भमें आए । गर्भमें आनेके छह माह पूर्व से जन्म होने तक स्वर्गसे रत्नोंकी वर्षा होती रही। देवियां माताकी सेवा करने लगीं। गर्भ मानेपर माताने सोलह स्वप्न देखे । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक उत्सव मनाया।
(४) भापका जन्म चैत्र सुदी १३को हुमा । जन्मसे ही माप तीन ज्ञान के धारी थे। इन्द्रादि देवोंने भापका जन्मकल्याणक उत्सव मनाया ।
(५) भापकी भायु ७२ वर्षकी थी और शरीर सात हाथ ऊंचा था। आपके लिए वस्त्राभूषण स्वर्गसे आते थे और वहांसे देवगण क्रीड़ा करनेको भाया करते थे।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ४६
(६) एकवार संजय और विजय नामके दो चारण मुनियोंको किसी पदार्थमें संदेह उत्पन्न हुआ। वे भगवानके जन्मके बाद ही उनके समीप आए और भगवान के दर्शन मात्रसे ही उनका संदेह दूर होगया इसलिए उन्होंने बड़ी भक्तिसे उनका सन्मति नाम रक्ख।।
(७) एक दिन इन्द्रकी सभामें देवोंमें परस्पर यह कथा चली कि इस समय सबसे शूरवीर श्री वर्धमानस्वामी हैं। इसे सुनकर संगम नामक एक देव उनकी परीक्षा के लिए भाया । उस समय भगवान महावीर बालकोंके साथ बनमें वृक्षपर चढ़ने उतरने का खेल खेल रहे थे । उस देवने उन्हें डरानेकी इच्छासे महा भयंकर नागका रूप धारण किया और वह वृक्षकी जड़से लेकर धतक लिपट गया। उसे देखकर सब बालक डासे घबड़ाकर बृक्षसे पृथ्वीपर कूदकर भाग गए। उस समय बालक वीरनाथ उस महा भयानक -सर्पके मस्तकपर बैठ गए। उस देवने भगवान् का महावीर नाम रखकर उनकी स्तुति और भक्ति की।
(८) आप तीस वर्षतक कुमारकालमें रहे । आपका विवाह नहीं हुआ था । एक दिन मतिज्ञान के विशेष क्षयोपशमसे उन्हें मात्मज्ञान प्रगट हुआ । उस समय यज्ञमें जीव होमे जाने लगे थे, बलिदानके नामसे जीवोंकी बलि दी जाती थी और घोर हिंसाके भाव फैल गए थे । इन सब बातोंको देखकर उनका हृदय करुणासे भर माया, उनके मनमें संसारसे वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी समय लौकान्तिक देवोंने भाकर नियमानुसार उनकी स्तुति की और
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
इन्द्रादि देवोंने भाकर उनका दीक्षा कल्याणक उत्सव मनाया।
(९) मगहन वदी १० के दिन पंड नामके वनमें दीक्षा पारण की, उसी समय मापको मनःर्ययज्ञान की प्राप्ति हुई।
(१०) तीन दिनका उपवास कर कुल ग्राम नगरके राजा कूलके यहां आहार लिया । देवोंने राजाके घर पंचाश्चर्य किए।
(११) एकदिन विहार करते हुये भगवान महावीरने पतिमुक्तक नामक श्मशानमें प्रतिमायोग धारण किया। उन्हें देखकर महादेव नामक रुद्रने उनके धैर्यकी परीक्षा लेने के लिये महा उपसर्ग किया। उसने अपनो विद्याके बलसे अंधेकर दिया। फिर भनेक बेताल भाकर तीक्ष्ण दांतोंको निकाल मुह फाड़ अत्यंत भयानक रूपसे नाचने लगे। कठोर शब्द, अट्टहास्य तथा विकराल दृष्टिसे देखकर डगने लगे। इसके बाद सर्प. हाथी, सिंह, अग्नि और. वायु मादिके साथ भीलोंकी सेना बनकर आई और घोर शब्द करने लगी। इस तरह अपनी विद्याके प्रमावसे उस महादेवने अनेक भयानक उपसर्ग किए, परन्तु वह भगवानके चित्तको समाधिसे नहीं डिगा सका । उस समय उसने भगवान का नाम अतिवीर रक्खा
और भनेक तरह की स्तुति तथा नृत्य किया और अभिमान छोडकर अपने स्थानको चकागया।
(१२) एक दिन कौशांबी नगरीमें भगवान मह वीर माहाके लिए भाए। उन्हें देखकर चन्दना नामक महासती राजकन्या जो वृषभदत्त सेठके यहाँ कैदमें थी, मिट्टी के सकोरेमें कोदों का भात रखकर आहारके लिए खड़ी हुई। भगवानको देखते ही उसकी
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहाम। ४८ सांकल के सब बन्धन टूट गए। भक्ति रससे नम्र होकर चन्दनाने नवधा भक्तिसे उनका पड़गाहन किया। उसके शीलके माहात्म्यसे मिट्टीका सकोरा सुवर्णका होगया और कोदोंका भात चांवलोंका होगया । उसने विधिपूर्वक भगवानको माहार दिया इससे उसके यहां पंचाश्चर्य हुए।
(१३) बारह वर्षतक छद्मस्थ अवस्थामें रहकर मापने तपश्चरण किया । वैशाख सुदी १० के दिन मनोहर नामक वनमें शाल वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन्द्रादि देवोंने समवशरणकी रचना की और ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया।
(१४) तीन घण्टे तक भगवान्की दिव्यध्वनि प्रकट नहीं हुई । इन्द्रने दिव्यध्वनि न होने का कारण जान लिया कि गणधर न होने के कारण ही दिव्यध्वनि नहीं होती है। वे उसी समय गौतम गणधरकी खोजमें ब्राह्मणका रूप धारण कर ब्राह्मण नगरके शांडिल्य ब्रह्मणके गौतम नामक पुत्र के पास भाए । गौतम वेद वेदाङ्गोंके ज्ञाता महा बुद्धिमान थे । गौतमके पास भाकर इन्द्र ब्राह्मणने कहा कि मेरे गुरु एक श्लोक कहकर समाधिमें मग्न हो ए हैं, भाप यदि उस श्लोकका अर्थ बतला सके तो बतला दीजिए।
गौतमने कहा-आप श्लोक कहिए, मैं उसका अर्थ अवश्य ही बतलादूंगा। तब ब्राह्मणने कहा-पहले भाप इस तरहकी प्रतिज्ञा करें कि अगर आपने मेरे श्लोकका अर्थ बतलादिया तो मैं भापका शिष्य होजाऊंगा और अगर मापने अर्थ नहीं बतलाया तो भापको मेरे गुरुका शिष्य बनना पड़ेगा। गौतमने इस बातको स्वीकार
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
चौवीसवें तीर्थंकर श्री १००८ भगवान महावीरस्वामी।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भागः किया । तब ब्राह्मणने एक श्लोक पढ़ा जिसका अर्थ गौतमकी समझमें नहीं आया तब उन्होंने कहा कि मुझे अपने गुरुके पास मुझे ले चलो, मैं वहीं इसका अर्थ बतलाऊँगा । इन्द्र गौतमको भगवान्। महावीरके समोशरणकी ओर ले चला। मानस्तंभको देखते ही गौतमका मानभंग होगया। उसका मन सरल होगया। समोशरणमें जाकर भगवान महावीरकी शांत मुद्राका दर्शन करते ही उसका मिथ्यात्व नष्ट होगया। उसने भगवानको बड़ी भक्तिसे नमस्कार किया और उनसे धर्मका स्वरूप पूछा । धर्मका रहस्य जानकर उसने तुरन्त ही दीक्षा धारण की और अपने पांचसौ शिष्यों को भी दीक्षा दिलवाई। परिणामोंकी विशेष विशुद्धि के कारण उसी समय उन्हें सात ऋद्धियां प्राप्त हुई । श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके दिन सबेरेके समय उन्हें सब अंगोंका ज्ञान होगया और उसी दिन संध्याको सब पूर्वोके मर्थ और पदोंका ज्ञान होगया । वे भगवान महावीरके प्रथम गणधर हुए।
(१५) भगवान महावीरने ३० वर्षतक अनेक देशोंमें भ्रमण कर महिंसा धर्मका उपदेश दिया जिससे सारे भारतवर्षसे यज्ञ और बलिदानकी प्रथा नष्ट होगई। (१६) मापके समोशरणमें इस प्रकार चतुर्विध संघ था
११ गौतम आदि गणधर ३११ द्वादशांग ज्ञानके धारी ९९०० शिक्षक मुनि १३०० भवधिज्ञानी
-
४
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचान जैन इतिहास । ५०
९०० विक्रिया रिद्धिके घारी ५०० मन:पर्यय ज्ञानके घारी
४०० वादी मुनि
७०० केवलज्ञानी
१४०००
३६००० चन्दना आदि आर्यिकायें
१००००० श्रावक
३००००० श्राविकायें
( १७ ) जब आयुका एक मास शेष रहा तब दिव्यध्वनि होना बंद हुआ और पावागिर पर्वतपर इस एक माह में शेष कर्मोंका नाशकर कार्तिक कृष्ण अमावश्याको मोक्ष प्राप्त किया । इन्द्रादि देवोंने निर्वाण उत्सव मनाया। इसी दिन संध्याको श्रौतम गणधरको केवलज्ञान प्राप्त हुआ जिसका उत्सव इन्द्रादि देवोंने रत्नदीपक जलाकर किया । उसी दिन से दीपावली नामक पर्व मनाया गया ।
पाठ १५ ।
महाराजा श्रेणिक ।
।
( १ ) मगध देशके राजा उपश्रेणिक थे, उनकी राजधानी राजगृह थी । यह बड़े शूरवीर और धर्मात्मा थे । उपश्रेणिककी रानी इन्द्राणी से महाराज श्रेणिकका जन्म हुआ था। ये प्रतापी, बुद्धिमान और बलवान थे ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा/भाग
जि उपलवसमावा.
(२) एक समय महाराज उपगई एक नए घोड़ेकी परीक्षा कर रहे थे। वह घोड़ा उन्हें एक अनजान जगहपर के मागा और उन्हें एक गहन वनमें जा पटका । भीलोंके राजा यमपालने उन्हें अपने घर स्क्वा । महाराज उपश्रेणिक उसकी सुन्दर कन्यापर मुग्ध होगए। यमपालने इस शर्तपर कि उसका पुत्र ही राज्याधिकारी हो, उपश्रेणिको कन्या विवाह दी । तिलक. वतीक चिलाती पुत्र नामक पुत्र हुमा उसे राज्य अधिकार मिला।
(३ ) कुमार श्रेणिकको कुछ दोष गाकर देशनिकालेका दंड मिला। वे राजगृहसे निकलकर नंदिग्राम पहुचे, वहां ब्राह्मणोंने उनको माश्रय नहीं दिया। इसलिए वे मागे चलकर बौद्ध सन्यासियोंके आश्रममें गए और वहां कुछ समयतक रहे । बौद्ध भाचार्यके मीठे वचनों के प्रभावसे कुमार श्रेणिकने बौद्ध धर्म स्वीकार किया और वे बौद्ध धर्मके पक्के अनुयायी होगए।
(४) कुछ दिन वहां रहकर वे इन्द्रदत्त सेठके साथ चल दिए । इन्द्रदत्तके नंदश्री नामकी सुन्दरी गुणवान कन्या थी। वह श्रेणिकके गुणोंगर मुग्ध होगई। इन्द्रदत्तने उसका विवाह कुमार श्रेणिक के साथ कर दिया और वे वहीं रहने लगे। वहां उनके अभयकुमार नामक पुत्र हुमा ।।
(५) महाराज उपश्रेणिकके देहांत होनेपर चिलाती पुत्र राजा हुआ, वह प्रजापर मनमाने अत्याचार करने लगा जिससे दुःखी होकर प्रजाने कुमार श्रेणिको बुलाया । श्रेणिकका मागमन
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ५२ सुनकर चिलाती भयभीत होकर भागगया। श्रेणिक राजा हुए और बौद्धधर्मका पालन करते हुए राज्य करने लगे।
(६) केरक नगरीके राजा मृगांककी पुत्री विलासवतीसे राजा श्रेणिकका विवाह हुआ, जिससे कुणिक ( अजातशत्रु ) नामक पुत्र हुमा।
. (७) वैशाली नगरीके राजा चेटककी चेलना नामक गुणवती कन्यासे राजा श्रेणिकका विवाह हुमा । परन्तु जब उसे मालूम हुआ कि वह बौद्धधर्मानुयायी है तो उसे बड़ा दुःख हुआ। राजा श्रेणिकने उसे अपने गुरुभोंकी विनय पूजा करनेकी पूर्ण स्वतंत्रता दे दी।
. (८) एक दिन महाराजा श्रेणिक शिकार खेलने गये थे। उन्होंने मार्गमें एक ध्यानमग्न दिगम्बर मुनिको देखा। उन्होंने उनके गले माहुमा सांप डाल दिया और वापिस चले आए। जब रानी चेलनाने यह समाचार सुना तो उसे बड़ा दुःख हुआ । उसकी आंखोंसे मांसू बहने लगे।
श्रेणिकने कहा-प्रिये ! तू इस बातका जरा भी रज मत कर । वह मुनि गलेसे सर्प फेंककर कबका चला गया होगा। महाराजके ये वचन सुनकर रानीने कहा-नाथ ! पापका यह कथन गलत है । मेरा विश्वास है कि यदि वे मेरे सच्चे गुरु हैं तो उन्होंने अपने गलेसे सर्प कभी भी न निकाला होगा। इसपर श्रेणिक रानीके साथ उसी समय वहां गए । वहां जाकर उन्होंने मुनिको उसी तरह ध्यानमम देखा । वह मृतक सर्प उनके गलेमें उसी तरह पड़ा था। उसमें चीटियां पड़ गई थीं।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग (९) राजा रानीने भक्तिप्ते मुनि महाराजको नमस्कार 'किया। उन्होंने दोनोंको समान रूपसे भाशीर्वाद दिया और धर्मका उपदेश दिया। राजा श्रेणिकपर उनकी तपस्या और उपदेशका बड़ा असर पड़ा और उन्हें जैन धर्मपर श्रद्धा होगई । परन्तु बौद्ध भाचार्यों के समझानेपर उन्हें पुन: बौद्ध धर्मसे रुचि हुई। उन्होंने भनेक तरह जैन साधुओं की परीक्षा ली और उनके उन्नत चरित्रको देखकर अंतमें उन्हें जैन धर्मपर पूर्ण श्रद्धा होगई ।।
(१०) राजा श्रेणिक पक्के श्रद्धानी होगए, वे भगवान महावीरके प्रधान भक्तोंमें से थे। उन्होंने भगवान के केवलज्ञान होने पर समोशरणमें जाकर धर्मचर्चा संबन्धी अनेक प्रश्न पूछे थे । अंतमें महाराज श्रेणिक प्रधान श्रावक होगए और वे धर्मकी प्रभावनामें मिशदिन तल्लीन रहने लगे।
(११) श्रेणिकके कुणिक नामक पुत्र था, जिसके गर्भमें आने पर ही भनेक अशुभ लक्षणोंसे मालूम होगया था कि यह राजाका शत्रु होगा। श्रेणिकने बड़े समारोहके साथ कुणिकको राजभार दे दिया।
(१२) पूर्वनन्मके वैर के कारण कुणिक महाराज श्रेणिकको अपना शत्रु समझने लगा और एक दिन उसने बड़ी निर्दयतासे उन्हें काठके पीजरमें बंद कर दिया। उन्हें स्वाने के लिये सूखा सूखा कोदोंका भोजन देने लगा और भोजन के समय कुवचन भी कहने लगा । महाराजा श्रेणिक चुपचाप पीजड़े में पड़े रहते और भात्मस्व. रूपका विचार कर पूर्व पापके फलको भोगते थे ।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाचीन जैन इतिहास । ५४
(१३) रानी चेकनीने कुणिकको बहुत समझाया और पिताके मोहभावके भनेक उदाहरण दिए। इससे कुणिकको दया भागई, उसे अपने पितापर किए गए अत्याचारोंपर पश्चाताप हुआ। वह उन्हें छुटकारा देने के लिए गया। राजा श्रेणिकने यह जानकर कि यह अब न जाने क्या अत्याचार करेगा, डरकर दीवालसे सिर दे मारा, जिससे उनकी उसी समय मृत्यु होगई । वे प्रथम नरकमें गए । वहांसे निकलकर वे भविष्यमें तीर्थंकर होंगे।
पाठ १६।
अभयकुमार। (१) अभयकुमार राजा श्रेणिकके पुत्र थे। उनकी माताका नाम नंदश्री था। वे बड़ी चतुर और कलावान थीं।
(२) गजा श्रेणिक जिस समय कुमार भवस्थामें भ्रमण कर रहे थे, उस समय वे कांची नगरीमें पहुंचे थे। वहां वे श्रेष्ठी इन्द्रदत्तके साथ उनके घरपर ठहरे। उनकी पुत्री नंदश्रीकी चतुरता पर प्रसन्न होकर उनोंने उसके साथ अपना विवाह किया था और बहुत समय तक वे वहां रहे थे। समयकुमारका जन्म वहीं पर हुआ था । वे बड़े वीर और गुणवान थे।
(३) कुछ समय पश्चात् राजा श्रेणिक राजगृहके राजा हुए। वे न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे।
(४) बहुत समयसे अपने पिताको न देखकर एक दिव अभयकुमारने मपनी मातासे राजा श्रेणिकका हाल पछा ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
.. नंदश्रीने कहा-बेटा! वे जाते समय कह गए थे कि राजगृहमें 'पाण्डुकुटि' नामका महल है, मैं वहीं रहता हूं। मैं जब समाचार दूं तब वहां जाना । तबसे अभीतक उनका कोई पत्र नहीं भाया । मालूम पडता है राज्यके कामोंसे उन्हें स्मरण न रहा। माता द्वारा पिताका पता पाकर अभयकुमार अकेले ही राजगृहको चल दिये और कुछ दिनोंमें वह नन्दिग्राम पहुंचे।
(५) जब श्रेणिकको उनके पिता उपश्रेणिकने देश बाहर जानेकी माज्ञा दी थी और श्रेणिक राजगृहसे निकल गए थे, तब उन्हें सबसे पहले रास्ते में यही नंदिग्राम पड़ा था। यहांके लोगोंने राजद्रोहके मयसे श्रेणिकको गांवमें नहीं आने दिया था। इससे श्रेणिक उन लोगोंपर बहुत नाराज हुये थे। इस समय उन्हें उनकी इस अनुदारताकी सजा देने के लिये श्रेणिकने उनके पास एक हुकमनामा भेजा कि भापके गांवमें एक मीठे पानीका कुभा है, उसे बहुत जल्दी मेरे पास भेजो, मन्यथा इस आज्ञाका पालन न होनेसे. तुम्हें सजा दी जायगी। बेचारे गांवके ब्रह्मण इस माज्ञासे बहुत घबराये, सबके चेहरोंपर उदासी छागई। यह चर्चा हरएकके घर हो रही थी। इसी समय अभयकुमार वहां भाए, उन्होंने गांवके सब लोगोंको इकट्ठा कर कहा-माप लोग चिंता न कीजिए मैं जैसा कहं. वैसा कीजिए, भापका राजा उससे खुश होगा। तब उन्होंने अभयकुमारकी सलाहसे राजा श्रेणिकको लिखा कि हमने कूऐंसे भापके यहां चननेकी बहुत प्रार्थना की परन्तु वह रूठ गया है। इसलिए माप अपने शहरकी उदुंबर नामकी कुईको लेने भेज दीजिए उसके
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ५६ पीछे पीछे कुमा चला भायगा। श्रेणिक पत्र पढ़कर चुप होगए, उनसे उसका उत्तर न रन पड़ा।
(६) कुछ समय बाद श्रेणिकने उनके पास हाथी भेजा और लिखा कि 'इसको तोलकर ठीक बजन लिख भेजो'। वे फिर अभयकुमारके पास आए, उसके कहे अनुसार उनलोगोंने नावमें एक मोर तो हाथीको चढ़ा दिया और दूसरी ओर खूब पत्थर रखना शुरू किया, जब देखा कि दोनों ओरका वजन समतोल होगया तब उन्होंने उन पत्थरोंको अलग तौलकर श्रेणिकको हाथीका वजन लिख भेजा । श्रेणिकको अब भी चुप रह जाना पड़ा।
(७) तीसरीवार श्रेणिकने लिख भेजा कि " मापका कुभां गांवके पूर्वमें है, उसे पश्चिमकी ओर कर देना, मैं बहुत जल्दी उसे देखने माऊँगा।" इसके लिए अभयकुमारने उन्हें समझा. कर गांवको पूर्वकी ओर बसा दिया जिससे कुआं पश्चिममें होगया।
(८) चौथीवार श्रेणिकने एक मेंढ़ा भेजा और लिखा कि " यह मेढ़ा न दुर्बल हो, न मोटा हो और न इसके खाने पीने में भसावधानी की जाय ।" इसके लिये अभयकुमारने उन्हें यह युक्ति बतलाई कि मेंढको खूब खिलापिलाकर घण्टे दो घण्टे के लिए सिंहके साम्हने बांध दो इससे न वह बढ़ेगा और न घटेगा। इस तरह मेंढ़ा ज्योंका त्यों रहा।
(९) छठीवार श्रेणिकने उन्हें लिख भेजा कि 'मुझे वालू रेतकी रस्सी चाहिये सो तुम जल्दी बनाकर भेजो' । अभयकुमारने इसके उत्तरमें लिखवा भेजा कि 'महाराज ! जैसी रस्सी तैयार कर
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
वाना चाहते हो उसका नमूना भेजिये, वैसी ही भेज दी जायगी। . (१०) इसप्रकार राजा श्रेणिकने जो कुछ मांगा उसका यथोचित उत्तर उन्हें मिल गया। वे ब्रह्मणोंको सजा देना चाहते थे पर नहीं देसके। उन्हें मालूम हुमा कि कोई विदेशी पुरुष नंदगांवमें है, वही गांवके लोगोंको ये सब बातें सुझाया करता है। उनकी इच्छा उस पुरुषके देखनेकी हुई। उन्होंने एक पत्र में लिखा कि आपके यहां जो विदेशी आकर रहा है उसे मेरे पास भेजिये परन्तु न तो वह रातमें आए और न दिनमें, न सीधे मार्गसे आए और न टेढ़े-मेढ़े मार्गसे'।
(११) अभयकुमारको पहले तो कुछ विचारमें पड़ना पड़ा परन्तु फिर उमे युक्ति सूझ गई। वह संध्याके समय गाड़ीके कोने में बैठ गया और गाड़ी को इस तरह चलवाया कि उसका एक पहिया सड़कपर और एक खेतपर चलता था । . (१२ ) जब वह दरबार में पहुंचे तो देखा कि सिंहासनपर एक साधारण पुरुष बैठा है, उस पर श्रेणिक नहीं है। वह समझ गए कि इसमें कोई युक्ति की गई है। उन्होंने एकवार अपनी दृष्टि राजसमापर डाली, उसे मालूम हुआ कि राजसमामें बैठे हुए लोगोंकी नजर वारवार एक पुरुषपर पड़ रही है और वह अन्य लोगोंकी अपेक्षा सुन्दर और तेजस्वी है । पर वह राजाके अंगरक्षकोंमें बैठा है। अभयकुमारको उसी पर सन्देह हुआ, तब उनके कुछ चिन्होंको देखकर उन्हें विश्वास होगया कि यही राजा श्रेणिक है। उसने जाकर उन्हें प्रणाण किया। श्रेणिकने उठाकर उसे छातीसे लगा लिया।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ५८ कई वर्षों बाद पिता पुत्रका मिलाप हुआ, दोनोंको बड़ा आनंद हुमा। अभयकुमारने नंदिग्रामके सब ब्राह्मणोंका अपराध क्षमा करवा दिया ।
(१३) सिंधुदेशकी विशालानगरीके राजा चेटककी सात कन्याएं थीं। उन सबमें चेलिनी और ज्येष्ठा बड़ी सुन्दरी थी। एक समय एक चित्रकारके द्वारा उनका चित्रपट देखकर राजा श्रेणिक इनपर मोहित होगए । उन्होंने गजा चेटकसे उन दोनों कन्याओंकी याचना की परन्तु उन्होंने राजा श्रेणिक के साथ अपनी कन्याओंका विवाह करने से इन्कार कर दिया । ____ यह बात अभयकुमारको मालूम हुई। वे राजा श्रेणिकका चित्र लेकर साहूकारके वेषमें विशाला पहुंचे। किसी उपायसे उन्होंने वह चित्रपट दोनों राजकुमारियोंको दिखलाया। वे उन्हें देखकर मुग्ध होगई, तब अभयकुमारने उन्हें सुरङ्गके द्वारा राजगृह चलने को कहा। वे दोनों तैयार होगई। चेलिनी बहुत चालाक थी, उसे स्वयं तो जाना पसंद था पर वह ज्येष्ठाको न ले जाना चाहती थी। इसलिए थोडी दूर जानेपर उसने ज्येष्ठासे कहा कि मैं अपने गहने महल में छोड़ भाई हूं, तू जाकर उन्हें ले मा। वह मांखोंकी ओट हुई होगी कि चेलनी वहां से रवाना होकर अभयकुमारके साथ राजगृह भागई। उसका श्रेणिकके साथ ब्याह हुआ। वह उनकी प्रधान रानी हुई।
(१४) मगधदेशमें सुभद्रदत्त सेठ रहता था, उसकी दो स्त्रियां थीं। बड़ीका नाम वसुदत्ता और छोटीका नाम वसुमित्रा था। वसुमित्राके एक बालक था। दोनोंमें परस्पर बड़ा प्रेम था। कुछ
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
- तीसरा भाग
समय बाद ही सेठ सुभद्रदत्तका स्वर्गवास होगया। उनके स्वर्गवासके. बाद ही दोनों स्त्रियों में कभी तो धनके लिये और कभी पुत्रके लिये लड़ाई होने लगी। वसुदत्ता कहती कि पुत्र मेरा और वसुमित्रा कहती कि मेरा । सेठ साहूकारोंने मापसमें उनका निवटारा करना चाहा, परन्तु दोनोंमें से कोई भी उसे माननेको मंजुर न थीं। मंतमें वे दोनों महाराजाके दरबार में आई और अपना हाल सुनाया।
स्त्रियोंकी विचित्र बात सुनकर महाराजा श्रेणिक चकित हो गये। वे यह न जान सके कि पुत्र किसका है। उन्होंने स्त्रियोंको बहुत समझाया, किंतु उन्होंने एक न म.नी तब महाराजाने कुमार भभयको बुलाया और उनके साम्हने स्त्रियों का हाल सुनाया। कुमारने दोनों स्त्रियोंको बुलाकर समझाया परन्तु वे दोनों पुत्रको अपना २ बतलाती रहीं। तब अन्त में कुमारने बालकको जमीनपर रखवा दिया । अपने हाथमें तलवार ले उसे बालकके पेटपर रखकर स्त्रियोंसे कहा माप घबडाएं न, मैं अभी इस बालक के दो टुकड़े किए देता हूं। भाप एक एक टुकड़ा ले लें। यह सुनकर वसुमित्राको अपने बालक पर बड़ी दया आई।
वह बोली-कुमार ! भाप बालकके टुकड़े न करें, वसुदत्ताको दे दें, यह बालक वसुदत्ताका ही है। यह सुनकर कुमारने जान लिया कि बालक वसुमित्राका ही है और उसे बालक देकर वसुदत्ताको राज्यसे निकलवा दिया।
(१५) इसी समय अयोध्या में बलभद्र नामक गृहस्थ रहता था, उसकी स्त्री बड़ी सुन्दरी थी। उसका नाम भद्रा था। वह
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ६. एक दिन अपने घरके छतपर खड़ी थी। उसे उसी नगरके वसंत नामक एक धनवान क्षत्रियने देखा। वह भद्राकी सुन्दरतापर हृदयसे मोहित होगया । एक समय उसने एक चतुर दूतीको भद्राके पास भेजा। दूतीने वसंतके धन वैभव और रूपकी खूब प्रशंसा की। भोली भद्रा उसकी बातोंमें भागई और वह वसंतके धन वैभवपर मोहित होगई । वह दतीके साथ वसंतके घर जानेको राजी होगई और उसके साथ भोगविलास भी होने लगा।
भद्राका पति बलभद्र किसान था । एक दिन भद्राको खेतपर जाना पड़ा। दैवयोगसे भद्राकी मट गुणसागर मुनिसे होगई। मुनि गुणसागरको भतिशय रूपवान तेजस्वी और युवा देखकर वह मोहित होगई। उसने उनसे भोगकी प्रार्थना की। उन्होंने भद्राको ब्रह्मचर्य
और शील धर्मका उपदेश दिया । मुनिका उपदेश सुनकर भद्राके हृदयमें शीलवत जागृत होउठा, उसने मुनिराज के सामने शीकव्रतकी प्रतिज्ञा ली और जैन धर्मको ग्रहण किया। भद्राने अब वसंतके यहां जाना छोड़ दिया और दूतीके द्वारा कहला भेजा कि मैं अब तेरा मुंह भी न देखूगी। पापी वसंत जब उसे किसी तरह वशमें नहीं कर सका तब उसने किसी मंत्रके द्वारा अपने वशमें करना चाहा । इसी समय महाभीम नामका मंत्रवादी 'भयोध्यामें माया, उसने उससे बहुरूपिणी विद्या सीखी। एक दिन वह अचानक ही मुर्गेका रूप धारणकर बलभद्र के घर के पास चिल्लाने कगा। मुर्गाकी आवाजसे यह समझ कर कि सबेरा होगया है, बलभद्र अपने पशुओंको लेकर खेतकी ओर रवाना होगया और
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
पापी वसंत शीघ्र ही बलभद्र का रूप रखकर घरमें घुस गया। सुशीला भद्राकी दृष्टि नकली बलभद्र पर पड़ी। चाल ढालसे उसे चट मालूम होगया कि यह मेरा पति बलभद्र नहीं है। वह उसे गालियां देकर घरसे बाहिर निकालने लगी। इसी समय कार्यवशात् बलभद्र . भी वहां आया और अपने समान दूसरा बलभद्र देख मापसमें झगड़ा करने लगा। दोनोंकी चाल, ढाल, रूप देखकर पड़ोसियों के होश उड़ गए। भनेक उपाय करने पर भी उनको पता न कग सका कि असली बलभद्र कौन है। अंतमें वे दोनों बलभद्रोंको लेकर राजगृह अभयकुमारके निकट गए। उन्होंने दोनों बलभद्रोंको बुला कर एक कोठेमें बंद कर भद्राको सभामें बुलाकर एक तूम्बी अपने साम्हने रखकर दोनों बलभद्रोंसे कहा कि तुम दोनोंमें से जो कोई कोठेके छिद्रसे न निकल कर इस तूंबीके छिद्रसे निकलेगा,. वह असली बलभद्र समझा जायगा, उसे ही भद्रा मिलेगी। यह सुन कर नकली बलभद्र चट तूंबीके छिद्रसे निकल भद्राका हाथ पकड़ने लगा तब कुमार अभयने कहा-कि यही नकली बलभद्र है और उसे मारपीटकर नगरसे बाहिर भगा दिया और मसली बलभद्रको कोठेसे बाहर निकाल भद्रा देकर अयोध्या जानेकी भाज्ञा दी । इस प्रकार पक्षपात रहित नीतिसे कुमार अभयकी कीर्ति चारों ओर फैल गई।
(१६) एक समय महाराज श्रेणिककी अंगूठी कुएँ में गिर गई, उन्होंने शीघ्र ही कुमार अभयको बुलाया और कहा कि अंगूठी सूखे कुएँमें गिर गई है। विना किसी वांस आदिकी सहायताके इसे निकाल दो। आज्ञा पाकर कुमारने कहाँसे गोवर मंगाकर कुएँ में
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ६१ डलवा दिया। गोवरके सूख जानेपर उसमें मुंहतक पानी भरवा दिया। ज्यों ही वहता २ गोवर कुएँ के मुंहतक माया, गोवरमें लिपटी अंगूठी भी कुएँके मुंहपर भागई। उस अंगूठीको लेकर कुमारने महाराजको दे दी।
(१७) कुमारका अद्भुत चातुर्य देखकर महाराज श्रेणिक उनका सम्मान करने लगे और प्रजाके लोग उनकी चतुरताकी प्रशंसा करने लगे। भनेक गुणोंसे भूषित कुमार युवराजके पदपर सुशोभित हो सबको आनंद देते थे।
(१८) एक समय राजसभामें तत्वोंकी चर्चा करते करते राजकुमार अभयको अपने पूर्व भवोंका स्मरण होमाया। जिससे उनका हृदय संसारसे विक होमया । उन्होंने पितासे माज्ञा मांगकर भगवान महावीरके समवशरण में जाकर मुनिधर्मकी दीक्षा ग्रहण की मौर चिरकाल तक घोर तप कर घातिया कर्माको नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया। बहुत समय विहार कर उन्होंने मोक्ष सुख पाया।
पाठ १७। तपस्वी वारिषेण । (१) वारिषेण राजगृह नगरके राजा श्रेणिक और रानी चेलिनीके छोटे पुत्र थे । भाप बाल्यावस्थासे ही बड़े धार्मिक तथा कर्तव्यशील थे।
(२) वे प्रत्येक चतुर्दशीको उपवास करते थे और रात्रिको श्मशान कायोत्सर्ग करते थे।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसग भाम (३) एक दिन मगध सुन्दरी नामकी वेश्या राजगृहके उपवन में क्रीड़ा करने गई थी। वहां श्री कीर्तिसेठके गलेमें पड़े हुए रत्नोंके हारको देखकर वह मोहित होगई। उसने अपने प्रेमी विद्युत्प्रभ चोरसे उस हारके लानेको कहा। वह उसे सन्तोष देकर उसी समय वहांसे चल दिया और श्री कीर्तिसे ठके महब में पहुंचकर सोते हुए सेठके गलेस हार निकालकर शीघ्रतासे वहांसे चल दिया, परन्तु वह हारके दिव्य तेजको नहीं छुपा सका । उसे भागते हुए सिपाहियोंने देख लिया, वे उसे पकड़नेको दौड़े। वह भागता हुमा श्मशानकी ओर निकल भाया।
(५) वारिषेण इस समय श्मशानमें कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे। विद्युत् चोरने मौका देखकर पीछे मानेवाले सिपाहियोंके पंजेसे छूटने के लिए उस हारको वारिषेणके मागे पटक दिया और वहांसे भाग गया । इसनेमें सिपाही भी वहां भा पहुचे जहां वारिषेण ध्यानमें म्न खडे थे, वे वारिषेणको हारके पास खडा देखक भोंचकसे रह गए। फिर बोले-वाह ! चाल तो खूब खेकी गई ? मानों मैं कुछ जानता ही नहीं। मुझे धर्मात्मा जानकर सिपाही छेड़ जायगे, पर हम तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगे। यह कहकर वे वारिषेणको बांधकर श्रेणिकके पास लेगए और राजासे बोले-महाराज ! ये हार चुरा कर लिए जाते थे सो मैंने इन्हें पकड़ लिया।
(५) सुनते ही राजा श्रेणिकका चेहरा लाल होगया, उनके मोठ कांपने लगे, उन्होंने गर्जकर कहा-यह पापी ! श्मशान में जाकर
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास |
६४ ·
ध्यान करता है और लोगोंको धर्मात्मा बतलाकर धोखा देता है। जाओ इसे इसी समय ले जाकर शूलीपर चढ़ा दो ।
( ६ ) जल्लाद लोग उसी समय वारिषेणको वध्यभूमिमें ले गए । उनमें से एकने तलवार खींचकर बड़े जोरसे वारिषेणकी गर्दन पर मारी । परन्तु उनकी गर्दनपर बिलकुल घाव नहीं हुआ। चांडाळल लोग देखकर दांत अंगुली दबा गए ।
(७) वारिषेणकी यह हालत देखकर सब उसकी जय जयकार करने लगे । देवने प्रसन्न होकर उन पर सुगंधित फूलों की वर्षा की ।
(८) श्रेणिक ने इस अलौकिक घटनाको सुना, वे बहुत पश्चाताप करके पुत्र के पास श्मशान में आए। वारिषेणकी पूण्य मूर्तिको देखते ही उनका दृश्य पुत्रप्रेम से भर आया । उन्होंने अपने अपराधी क्षमा मांगी। वारिषेणका पुण्यप्रभाव देखकर विद्युत् चोरको बड़ा भय हुआ। उसने अपना अपराध स्वीकार करके दयाकी भिक्षा मांगी। राजाने उसे क्षमा कर दिया ।
( ९ ) इस घटना से वारिषेणको वैराग्य होभाया। उन्होंने माता पितासे माज्ञा लेकर दीक्षा धारण की।
(१०) वारिषेण मुनि जहांतहां घूमकर धर्मोपदेश देते हुए पलाशकूट नगर में पहुंचे। वहां राजा श्रेणिकका मंत्रीपुत्र पुष्पडाल रहता था । वह सम्यग्दृष्टि और दानपूजा में तत्पर था ।
(११) वारिषेण मुनि जब पुष्पडाल दरवाजेसे निकले तो उसने उन्हें पडगाहा और भक्ति सहित माहार दिया। जब मुनिमहाराज
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीसस भात
पाहार लेचुके और वनको चले तब पुष्पडाकने सोचा कि जब गृहस्थीमें थे तब मेरे बड़े मित्र थे। इसलिए पुरानी मित्रताके नाते इन्हें कुछ दूर पहुंचा भाना चाहिए। पुष्पडालके घरमें एक कानी स्त्री भी, उससे माज्ञा लेकर वह मुनिराजक पीछे पीछे चला । बहुत दूरसक जाने के बाद पुष्पडाल मुनिके सामने खड़ा होगया और नमस्कार किया। मुनिराजने उसे धर्मवृद्धि देकर धर्मका स्वरूप सुनाया।
(१२ ) ज्ञान वैराग्यका उपदेश सुनकर पुष्पडालका मन संसारसे उदास होगया और उसने वारिषेण मुनिके पास दीक्षा ले ली। वह बहुत दिनों तक शास्त्रोंका अभ्यास करते रहे और संयम पालते रहे, परन्तु उनका मन उस कानी स्त्रीकी ओर कभी कभी माकर्षित हो जाता था।
(१३) एक दिन पुष्पडालको अपनी स्त्रीकी गहरी खबर हो पाई, वह मनमें सोचने लगा-बेचारी मेरी स्त्री मेरे विछोहमें पागल होरही होगी, इसलिए घर जाकर कुछ दिन उसे गृहस्थीका मुख देकर पीछे दीक्षा लूँगा। यह सोचकर वह घरकी ओर चलने लगा।
(१४ ) वारिषेण मुनि उसके मनकी बात जान गए और उसे धर्ममें स्थिर करने के लिए उसे अपने साथ राजगृह लेगए ।
(१५) वारिषेणने घर पहुंचकर अपनी मातासे कहा, हे माता ! मेरी स्त्रियोंको गहनोंसे सजाकर मेरे पास लाओ। रानी बेलना उनकी सभी स्त्रियोंको ले माई और वे सब मुनिको नमस्कार कर खड़ी होगई ! तब वारिषेणने पुष्पडालसे कहा-देखो ! ये मेरी स्त्रियां
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाचान जैन इतिहाम। ६६ हैं और यह राज्य सम्पत्ति है, यदि तुम्हें ये मच्छी जान पड़ती हैं तो तुम इन्हें स्वीकार करो।
(१६) बारिषेण मुनिध यह कर्तव्य देखकर पुष्पडाल बहुत लजित हुमा । वह नमस्कार कर बोका-प्रभो ! आप धन्य हैं, आपने मेरे मोहको हटा दिया, अब मुझे सच्चा वैराग्य होगया, भाप मुझे क्षमा कीजिए और प्रायश्चित्त देकर सच्चे मार्गमे लगाइए। वारिषेण मुनिने प्रसन्न होकर उसे प्रायश्चित्त देकर फिर से दीक्षा दी। ... (१७) वारिषेण मुनिने पुष्पडालके साथ २ घोर तपस्या की और अन्त में केवलज्ञान प्राप्तकर सिद्ध पद पाया।
पाठ १८ ।
सती चन्दना। (१) चन्दनाकुमारी वैशालीक राजा चेटककी पुत्री थी। वह बड़ी धर्मात्मा और पवित्र थी।
(२) एक दिन वह अपने बगीचे झूला झूल रही थी, इसी समय एक विद्याधर वहांसे निकला, वह चंदनाको देखकर मोहित होगया और विमानमें बिठाकर लेगया। बेचारी चन्दना रोती हुई विमान में बैठी जारही थी कि इसी समय उस विद्याधरकी पत्नी वहां मापहुंची सब विद्याधरने अपनी पत्नीके भयसे उसे जंगल में ही छोड़ दिया।
7 (३) जंगलमें फिरती हुई चन्दनाको भीलोंके सरदारने देखा, वह से अपने घर लेगया। परन्तु चन्दनाकी सुन्दरता देखकर'
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीमग भाग उसके मनमें लोम भागया, उसने कुछ रुपये लेकर चन्दनाको एक व्यापारीके हाथ बेच दिया ।
( ४ ) व्यापारीने उसे लेजाकर कौशांबीके बाजारमें बेचनेको खड़ा कर दिया। कौशांबीके सेठ वृषभसेन उसको मुंह मांगा दाम देकर चन्दनाको अपने घर ले गए और उसे अपनी पुत्रीकी. तरह प्यार करने लगे।
(५) वृषमसेनकी सेठानी चन्दनाके ऊपर सेठनीका इस तरह प्यार देखकर उससे डाह करने लगी, उसे चन्दनापर अनेक तरहकी शंकाएं होने लगी। मन्तमें उसने एक दिन चन्दनाके हाथ पांवमें बेड़ियां डालकर एक तहखाने में बन्द कर दिया।
(६) सेठजीने उसका कई दिन्तक पता लगाया पर वे उसकी खोज न कर सके । एक समय पता लगाते हुए वे बन्दीग्रह पहुंचे, वहां उन्होंने भूख प्याससे तडपती हुई चंदनाको देखा, उन्होंने उसे बंदीगृहसे बाहर निकाला और उसकी हाथकड़ी बेडियां खोलने लगे। उनसे एक बेड़ीका बन्द नहीं टूटा। वे उसे खोलने के लिए लुहारको बुलाने गए ।
(७) इसीसमय भगवान महावीर माहारके लिए माये थे, वे भाकर चंदनाके साम्हने खड़े होगए। चंदना एकदम खड़ी हो गई। साम्हने सूपमें कुछ चावक रक्खे थे, उन्हींको लेकर उसने भगवानको पड़गाहा । भगवानने वहीं भाहार ग्रहण किया । उनका माहार सानंद होचुकने के कारण देवोंने पञ्चाश्चर्य किये। इससे सारे नगरमें चंदनाके दानको चर्चा होगई।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहामा
६८
(८) कौशांबीकी रानीने भी यह समाचार सुने, उन्होंने चंदनाको अपने यहां बुलाया। कौशांबीकी रानी मृगावती चंदनाकी बहिन थी, वह चंदनाको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई ।
(९) रानी मृगावतीने चन्दनाको प्रेम सहित अपने यहां रक्खा परन्तु उसका हृदय संसारसे अत्यन्त उदास होगया था इपलिए थोड़े समय पश्चात ही भगवान महावीर के समवशरणमें जाकर उसने आर्यिकाकी दीक्षा ग्रहण की।
(१०) भगवान महावीरके समवशरणमें चन्दना माथिका संघकी नायिका हुई, उन्होंने अनेक स्थानोंमें भ्रमण कर नारियोंको धर्मका उपदेश दिया । अन्तमें शरीर त्यागकर स्वर्ग प्राप्त किया।
पाठ १९। क्षत्रिय-रत्न जीवधर। (१) राजपुरी नगरीके राजा सत्यंधर थे, उनकी रानी का नाम विजया था। वे भानी रानीके प्रेममें अत्यंत भासक्त रहते थे और उनने अपने राज्यका कार्य काष्टांगार नामक राज-कर्मचारीके सुपुर्द कर दिया था।
(२) कुछ दिनोंमें विनया रानीके गर्भ रहा, उस समय रानीको एक स्वप्न हुमा। जिसके फलका विचार करनेपर रानाको निश्चय हुमा कि मैं मारा जाऊंगा, इससे अपने वंशकी रक्षाके विचारसे एक मयूरके भाकारका यंत्र बनाया जो कलके घुमानेसे
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग आकाशमें उड़ता था उसमें बठाकर रानी विजयाको वह आकाशमें उड़ाने का अभ्यास कराने लगे।
(३) काष्टांगारको रानीकी आधीनतामें रहना बुरा लगने लगा । इसलिये उसने सत्यंधरको मारकर स्वयं राजा बन जाने का विचार किया । उसने एक सैना राजाके मारनेको भेजी । राजाने रानीको मयूर यंत्रमें बिठाकर उड़ा दिया और भाप सैनासे लड़ते २ मृत्युको प्राप्त हुआ।
(४) मयूयंत्र बाहर इमशानमें गिरा, वहां राजपुरीका प्रसिद्ध सेठ आने मृतक पुत्र को जलाने भाया था। विनयारानीने वहीं पुत्र प्रसव किया और छोड़ दिया। सेठने पुत्रको देखा और घर लेजाकर अपनी स्त्रीको देदिया। सेठानीने बालकका जीवंधर नाम रखा और पुत्र के समान पालन किया। रानी विजया दण्डकारण्यमें तपस्वियोंके आश्रममें चली गई।
(५) सेठ के यहाँ रहकर जीवंधर युवावस्थाको प्रप्त हुआ । उन्होंने भार्यनन्दी भाचार्य के निकट सभी विद्याओंको प्राप्त किया। उनका शरी। बड़ा सुदृढ़ था, वे बड़े वीर और पराक्रमी थे।
(६) एक समय नंद गोपकी सभी गायोंको भील लेगए । नंद गोपने घोषणा की कि मेरी गाएं जो वापिस लौटा देगा उसे अपनी कन्या दूंगा। जीवंधरने भीलोंसे युद्ध करके नंद गोपकी सभी गायोंको वापिस लाकर उसे संतुष्ट किया।
. (७) उन्होंने गांधार देशकी राज्यकन्या गंधर्वदसाको वीणा बजानेमें जीतकर उससे अपना विवाह किया।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
, प्राचीन जैन इतिहास।
७.
... (८) एक समय जीवंधर कुमारने, मार्गमें ब्रह्मणों के द्वारा मारते हुए एक कुत्ते को देखा। उन्होंने उसे बड़ी दयाके साथ णमोकार मंत्र सुनाया। जिससे वह मरकर सुदर्शन नामक यक्ष हुमा ।
(९) राजपुरी सुमंजरी और गुणमाला नामक दो कन्याएं थीं। गुणमाला नदीसे स्नान कर घर भारही थी। उसी समय राजाका उन्मत्त हाथी छूट गया। वह कन्यापर झपटना ही चाहता था कि कुमारने माकर उसे मुक्कोंसे मारकर मद रहित कर दिया । गुणमाला कुमारको देखकर मोहित होगई। माता पिताने कुमारके साथ उसका तथा सुरसुंदरीका विवाह कर दिया।
(१०) गुणमालाको बचाते समय कुमारने काष्टांगारके हाथीको कड़ी चोट पहुंचाई थी। इसलिए उसने क्रोधित होकर कुमारको राजसभामें बुलाकर मार डालने का हुक्म दिया। लोग उन्हें मारनेके लिए जा रहे थे कि मार्गमे सुदर्शन यक्षने उन्हें उठाकर चन्द्रोदय पर्वतपर पहुंचा दिया। वहांपर पहुंचकर कुमारने एक स्थानपर दावा. नलसे जलते हुए हाथियोंको बचाया और भनेक तीर्थोकी यात्रा की।
(११) चंद्रमा नगरीके राजा धनपतिकी पुत्री पद्माको सांपने काट खाया था। कुमारने मंत्र बलसे सर्प विषको दूर करके उसे जीवनदान दिया, इससे प्रसन्न होकर सजाने कन्याका उनसे विवाह कर दिया और अपना भाषा राज्य कुमारको दे दिया।
(१२) वहांसे चलकर वह हेमामा नगर पहुंचे। वहांके राजपुत्रोंको कुमारने धनुषविद्यायें सिखलाई, जिससे राजाने प्रसन्न होकर अपनी कन्या कनकमाला उन्हें विवाह दी। वहांपर इनकी गंधोत्कट सेठके
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
R
: तोमग भाक
पुत्र नन्दाढ्य और पद्मास्यसे भेंट हुई। उनके कहनेसे अपनी मातासे मिलने गए और उनसे मिलकर राजपुरी पहुंचे। सेठ गंधोत्कटसे सलाह लेकर वे अपने मामा गोविंदराजके यहां धरणीतिलक नगर गए और उनसे परामर्श करके उनके साथ काष्टांगारका निमंत्रण प्राप्त होनेपर सैना सहित राजपुरी गए।
(१३) राजपुरीमें गोविन्दराजने अपनी पुत्री लक्ष्मणाका स्वयंवर रचा और यह विदित किया कि जो चन्द्रक यंत्रके तीन वराहोंको छेदेगा उसे मैं अपनी कन्या दूंगा। सभी राजाभोंने यंत्रको छेदनेका प्रयत्न किया परन्तु कोई भी सफल नहीं हुए तब जीवंधाकुमारने बातकी बातमें अनुष चढ़ाकर उन वराहोंको छेद डाला। गोविंदगजने अपनी पुत्री देकर सब राजाओंके सामने प्रकट किया कि यह सत्यंधर महाराज के पुत्र जीवंधर कुमार हैं।
(१४) जीवंधरकुमारका परिचय प्राप्तकर काष्टांगार बहुत घबराया, वह जीवघरकुमारसे युद्ध करनेको तैयार होगया। दोनोंमें भयंकर युद्ध हुमा । अन्तमें जीवंधरकुमारके हाथसे दुष्ट काष्टांगार मारा गया ।
(१५) गोविंदराजने बड़े समारोह के साथ जीवंधरका राज्य अभिषेक किया और जीवंधर महाराज अपनी सभी रानियोंके साथ सुखपूर्वक राज्य करने लगे।
(१६) एक दिन जीवंधरस्वामी अपनी माठों रानियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे कि उन्हें अचानक वैराग्य हो माया । के अपने पुत्र सत्यंघरको राज्य देकर भगवान महावीरको समवशरण
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहाम। ७१ पहुंचे। वहां दिगंपरी दीक्षा लेकर वे महातप करने लगे और अंतमें उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्तकर मोक्ष काम लिया ।
पाठ २०। अंतिम केवली-जंबूकुमार।
(१) वीर निर्माणसे २२ वर्ष पूर्व राजगृहीके प्रसिद्ध सेठ अहंदत्तकी पत्नी जिनमती के मापका जन्म हुभा था ।
(२) ५ वर्षकी भायुमे ही आपका विद्याध्ययन हुभा था। आप शास्त्रज्ञान और शस्त्रकलामें बड़े निपुण और वीर थे।
(३) जब भापकी उम्र १३ वर्षकी थी उस समय एक दिन मगधनरेश श्रेणिकका यह बंध हाथी मचानक बिगड़कर नगरमें भारी उपद्रव करने लगा और राजाके बड़े २ सामन्तोंके वशमें न माया तब इन्होंने अपने साहस और पराक्रमसे उसे अपने वश कर लिया। इससे राजदरबारमें आपका बड़ा सम्मान हुमा ।
(४) कुछ समय पश्चात् राजगृहके प्रसिद्ध चार सेठोंकी कन्याओंसे आपकी सगाई को होगई ।
(५) वेरलपुरके राजा मृगाङ्कने अपनी कन्या विलासवती राजा श्रेणिकको देना स्वीकार की थी। पान्तु राजा मृगाङ्कका पाक राजा नचूल उस कन्याको लेना चाहता था। उसने राजा सगाकर चढ़ाई कर दी थी, तब राजा मृगाङ्कने अपनी सहायताके लिए सजा श्रेणिकके यहां दूत भेजा। जम्बूकुमार राजा श्रेणिककी
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
ओरसे कुछ सेना ले जाकर वेरकपुर पहुंचे और रत्नचूल विद्याधरसे बड़ी वीरताके साथ लड़कर उसे बांधकर राना मृगाङ्कका मित्र बना दिया और वह विलासक्तीको लेकर राजगृही लौट माए । इससे राजा श्रेणिक उनपर बड़े प्रसन्न हुए और उनका बड़ा सम्मान किया।
(६) एक समय स्वामी सुधर्माचार्यजीका उपदेश होरहा था। जम्बुकुम' भी उनका उपदेश सुनने गए । उनका उपदेश वैराग्यसे भरा हुमा था । उपदेश सुनकर उन्हें विषयभोगोंमे घृणा होगई और वे उसी समय मुनि दीक्षा लेने को तैयार होगए पान्तु भाचार्य महाराजने माता पिताकी माज्ञाके विना दीक्षा नहीं दी।
(७) ये माता पिताके आज्ञा लेने पाए। माता पिताने इन्हें बहुत समझाया परन्तु ये तनिक भी नहीं माने तब अन्तमें माता पिताने कहा कि तुम विवाह करलो और विवाह के बाद संतान होनेपर दीक्षा लेलेना । उस समय हम भी तुम्हारे साथ दीक्षा लेलेंगे, परन्तु कुमारने इसे भी स्वीकार नहीं किया।
(८) जंबू कुमारके वैराग्यकी बात चारों कन्यामोंको मालूम हुई, उन्होंने प्रण किया कि जम्बुकुमारके सिवाय हम किसीसे विवाह न करेंगी, तब उन्होंने इस शर्तपर विवाह कराना स्वीकार किया कि विवाह करने के बाद ही वे दीक्षा धारण कर लेंगे।
(९) एक रात्रि में ही चारों कन्याओं के साथ कुमारका विवाह होगया। तब चारों कन्यामोंने उन्हें अपनी वचन चातुर्यता द्वारा
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास।
.७४
संसारमें फंसानेका उद्योग किया। उन्होंने अनेक उदाहरण देकर समझाया कि वर्तमान सुखको छोड़कर तपस्या करके भागामीक सुखोंको चाहना उचित नहीं। जंबूकुमारने उन सबको उत्तर देकर उन्हें हरा दिया।
(१०) माता-पिताने भी इन्हें बहुत समझाया, परन्तु उन पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इसी समय विद्युत् नामक प्रसिद्ध रात्रपुत्र चोर इनके यहां चोरीको आया था। उससे माताने पुत्र के बैराग्यकी बात कह सुनाई, तब विद्युत् चोग्ने कुमारका मामा बनकर उन्हें बहुत समझाया परन्तु कुमाग्ने अपने दीक्षालेनेके विचारको नहीं बदला । अन्त में माता-पिताकी भाज्ञानुसार विद्युत्चोर तथा उनके ५०० साथियों और अनेक प्रतिष्ठित पुरुषों के साथ २ श्री सुधर्माचार्य के निकट जिन दीक्षा ग्रहण की। माता और चारों स्त्रियोंने भी दीक्षा ली।
(११) ९ वर्ष के उय तप करने पर वीर निर्वाण संवत् १२में जम्बूम्बामी मुनि श्रुतकेवली हुए।
(१२) श्रुतकेवली होनेके १२ वर्ष बाद वीर निर्वाण संवत २३ जेठ शुक्ला ७ को उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुमा ।
(१३ ) उन्होंने ४० वर्ष तक धर्मोपदेश दिया और वीर संवत् ६२ में मथुगपुरीके चौरासी नामक स्थानसे मोक्षपद प्राप्त किया।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
पाठ २१ ।। विद्युतप्रभ चोर। (१) पोदनपुरके राजा विद्युतराज रानी विमलमतीके यहां विद्युत्पमका जन्म हुआ था । विद्युत्पभ बाल्यावस्थासे ही साहसी और पराक्रमी था।
(२) बाल्यावस्थासे ही कुसंगतिमें पड़ जानेके कारण उसे चोरीकी मादत पड गई थी और बढ़ते२ वह अपने बहुतसे साथि: योंक साथ बड़ी २ चोरियां करने लगा।
(३) पिताने उसे बहुत समझाया, डांटा और राज्य देनेका' प्रलोभन दिया, परन्तु उसने एक भी बात न सुनी। उसने साफ उत्तर देदिया कि यदि आप मुझे सारा राज्यपाट और धन संपत्ति भी दे दे तो भी मैं चोरी करना नहीं छोडूंगा।
(४) वह अपने ५०० साथियोंके साथ राजगृही नगरीमें जाकर फमला वेश्याके घर ठहरा और नगरके आसपास चोरियां. करता रहा। - (५) जिस रात्रिको जम्बुकुमारका विवाह हुआ था और उनकी स्त्रियां तथा मातापिता उन्हें मुनिदीक्षा ग्रहण करनेसे रोकनेका प्रयत्न कर रहे थे, उसी रात्रिको विद्युत्प्रभ भी चोरी करने के विचारसे उनके महल में पहुंचा।..
. (६) जम्बूकुमारकी माता उस समय शोकसे दुःखी होरही थी, उसने विद्युत्पमसे कहा कि यह सारी धन दौलत तु ले जा
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ७६ मुझे इसकी क्या भावश्यक्ता है। मेरा इकलौता बेटा जम्बुकुमार दीक्षा लेकर वनको जा रहा है फिर मैं इस संपत्तिका क्या करूंगी ?
(७) जम्बूकुमारकी माताको शोक संतप्त देखकर और अपनी अटूट धन संपत्तिसे विक्त जग्बूकुमारके साधु होनेके समाचार सुनकर वह अपना कार्य भूल गया। उसने माता सामुख प्रण किया कि मैं कुमारको समझाकर रोदूंगा और यदि उन्हें नहीं रोक • सकंगा तो मैं भी साधु बन जाऊंगा।
(८) विद्युतप्रभने कुमारको मुनि दीक्षाके रोकनेका भरसक प्रयत्न किया, पर वह फल न हुआ तब उसने अपने ५०० 'मित्रोंके साथ २ दीक्षा ग्रहण की और अनेक उपसर्गोको सहन करते हुये घोर तपश्च ण किया। अंतमें अपनी आयु समाप्तकर तपके प्रभावसे वह महमिन्द्र पदको प्राप्त हुए।
पाठ २२। श्री भद्रबाहु-अंतिम श्रुतकेवली।
(१) पुंडूवर्धन देशके कोटीपुर नगरके सोमशर्मा नामक 'पुरोहितके यहां आपका जन्म वीर निर्वाण सं० १६२ में हुमा था। मापकी माताका नाम श्रीदेवी था।
(२) जब भद्रबाहु आठ वर्षके थे तब एक दिन वे अपने साथियों के साथ गोलियां खेल रहे थे। सब बालक अपनी होशियारीसे गोलियोंको एक पर एक रख रहे थे। किसीने दो, किसीने चार, किसीने छह और किसीने माठ गोलियां ऊपर तले चढ़ा दी
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
तमिरा भाग
पर भद्रबाहुने एक साथ चौदह गोलियां तले कार चढ़ादीं। सब बालक देखकर दंग रह गए।
(३) चौथे श्रुतके वली श्री गोवर्द्धनाचार्य उसी समय गिर-- नारकी यात्राको जाते हुए वहां से निकले । उन्होंने भद्रबाहु के खेलकी चतुरताको देखकर निमित्त ज्ञानसे जान लिपा कि पांचवें श्रुतकेवली यही होंगे, वे भद्रबाहुको साथ लेकर उनके घर गए और सोमशर्मासे उन्होंने भद्रबाहुको पढ़ानेके लिए मांगा । भाचार्यने भद्रबाहुको खूब पढ़ाया। वे वहुत शीघ्र सब विषयों के पूर्ण विद्वान होगए तब उन्होंने उसे वापिस घर लौटा दिया ।
(४) भद्रबाहु घर गए परन्तु उनका मन घ में नहीं लगता था। उन्होंने माता पितासे अपने साधु होने की प्रार्थना की। माता पिताको इससे बड़ा दुःख हुमा । भद्रबाहुने उन्हें समझा बुझाकर शान्त किया और सब मोह माया छोड़कर गोवर्द्धनाचार्य से दीक्षा लेकर वे योगी होगए।
(५) गुरु गोवर्द्धनाचार्यकी कृपासे भद्रबाहु चौदह महापूर्वके विद्वान् होगए । जब संघाधीश गोवर्द्धनाचार्य का स्वर्गवास होगया तब उनके बाद उनके पदपर भवाहु श्रुतकेवली बैठे।
(६) भाचार्य भद्रबाहु अपने संबको साथ लेकर भनेक . देशों और नगरोंमें अपने उपदेशका पान कराते उज्जैनकी ओर आये और सारे संघको एक पवित्र स्थानमें ठहरसकर मार माहारके लिये बहरमें गये।
(७) जिस घरमें इन्होंने पहले ही पांच दिया, वहां एक..
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ७८० बालक पालने में झूल रहा था। वह अभी बोलना नहीं जानता था, -इन्हें घरमें पांव देते देख वह सहसा बोल उठा। जाइये ! महाराज, जाइये !! एक अबोध बालकको बोलता देख आचार्य बड़े चकित हुए। उन्होंने निमित्त ज्ञानसे विचार किया तो उन्हें जान पड़ा कि यहां बारह वर्षका भयानक दुर्भिक्ष पड़ेगा और धर्म कर्मकी रक्षा करना तो दूर रहा, मनुष्योंको कपनी जान बचाना कठिन होगा।
(८) भद्रबाहु भाचार्य उसी समय अन्तराय कर लौट • आए। इसी दिन कार्तिक शुक्ला पूर्णिमाके दिन महाराजा चन्द्रगुप्तने १६ स्वप्न देखे । उनमें मन्तिम स्वप्न एक १२ फणका सर्प देखा तब महाराजने श्री भद्रबाहुस्वामीसे उन स्वप्नों का फल पूछा तो स्वामीने अन्तिम स्वप्नका फल उत्तर भारतमें बारह वर्षका धोर दुर्भिक्ष बताया।
(९) भद्रबाहुस्वामीने संध्या के समय अपने सारे संघको इकट्ठा कर उनसे कहा कि यहां बारह वर्षका बड़ा भारी अकाल पड़नेवाला है। तब धर्म कर्मका निर्वाह होना कठिन ही नहीं मसंभव हो जायगा। इसलिये भाप लोग दक्षिण दिशाकी ओर जावें । मेरी मायु थोड़ी रह गई है । इसलिए मैं यहीं रहूंगा। यह कहकर उन्होंने दश पूर्वके जाननेवाले अपने प्रधान शिष्य श्री विशाखाचार्य को चारित्रकी क्ष के लिए बारह हजार मुनियों सहित दक्षिण चोलपाण्डकी ओर रवाना कर दिया।
(१०) रामल्प, रथूनाचार्य और स्थूलभद्र मावि मुनि श्रावकोंके सामहसे -उज्जयिनी ही रह गए। कुछ समयमें घोर दुर्भिक्ष
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग पड़ा और वे सब शिथिलाचारी होगए । दुर्भिक्षकी परिस्थितिके कारण सबने दंड, तूंबा, पात्र और अर्द्ध सफेद वस्त्र धारण किया ।
(११) सारे संघको चला गया देख उज्जैनके गजा चन्द्र गुप्तको उनके वियोगका बड़ा दुःख हुमा । इससे उन्होंने दीक्षा लेली और भद्रबाहु आचार्यकी सेवामें रहे।
(१२) आचार्य भद्रबाहुकी थोडी भायु रह गई थी इसलिए उन्होंने उज्जैनीमें एक बड़के पेड़के नीचे समाधि लेली और भूख प्यास मादिकी परीषह जीतकर स्वर्ग गमन किया।
(१३) सुभिक्ष होनेपर उनके शिष्य विशाखाचार्य भादि कौटकर उज्जयिनी भाए। उस समय स्थूलाचार्यने माने साथियों को 'एकत्र करके कहा कि शिथिकाचार पर छोडदो पर अन्य साधुओंने उनके उपदेशको नहीं माना और क्रोधित हो उन्हें मार डाला। स्थूलाचार्य मरकर व्यंत देव हुए, उनके उपद्रव करने पर वे कुलदेव मानकर पूजे गए। इन शिथिलाचारियोंसे · मर्द्धफालक '-माधे वस्त्रवाले संप्रदायका जन्म हुआ।
(१४) उज्जयिनीमें चंद्रकीर्ति गजा था। उसकी कन्या वल्लभीपुरके राजाको व्याही गई । चन्द्रलेखाने अर्द्धफालक साधुओं के पास विद्याध्ययन किया, इसलिये वह उनकी भक्त थी। एकवार उसने अपने पतिसे साधुओंको अपने यहां बुलाने के लिये कहा। राजाने बुलानेकी आज्ञा दे दी। वे भाए और उनका खूब धूमधामसे स्वागत किया गया । पर राजाको उनका वेष अच्छा न कगा। वे रहते तो थे नाम पर ऊपर वस्त्र रखते थे। रानीने
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ८० अपने पतिकी भाज्ञासे साधुओंके पास श्वेत वस्त्र पहिनने के लिए. भेज दिए । साधुओंने उन्हें स्वीकार कर लिया, उस दिनसे वे सब साधु श्वेतांबर कहलाने लगे। इनमें जो साधु प्रधान थे उनका नाम जिनचन्द्र था ।
पाठ २३। महाराज चन्द्रगुप्त। (१) वीर निर्वाण संवत् १६२ के लगभग मगधदेशके नन्द वंशमें चंद्रगुप्त का जन्म हुआ था। आपकी माताका नाम मुग था। इसीसे आप मौर्यके नामसे प्रसिद्ध हुए।
. (२) राजकुमार चंद्रगुप्तकी मायु निस समय १२ वर्षके लगभग थी, उस समय महापद्म नामक नन्द राजाने अपना भघिकार मगधपर जमाया, उस समय चंद्रगुप्तकी माता उन्हें लेकर अपने पिताके यहां भागई। चंद्रगुप्तने वहांपर शस्त्र तथा अन्य विद्याओंका अध्ययन किया।
(३) चंद्रगुप्त बड़े पराक्रमी और वीर थे, किसी प्रकार उनकी वीरताका पता राजा नन्दको लग गया। नंदके कोपसे बचने के लिये चन्द्रगुप्त अपनी मातासे विदा मांग कर पश्चिम भारतकी ओर चला गया। उस समय ३२६ ई० पूर्व पंजाबमें सिकन्दर महानने सीमा, प्रांत और पंजाबके कुछ हिस्सेपर मधिकार जमा लिया। चन्द्रगुप्तने सिकन्दरकी सेनामें रहकर उसका संचालन किया।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१
तीसरा भाग
... (४) ई० पूर्व ३२३ के जून महीनेमें सिकन्दरकी बाबुलमें मृत्यु हुई । यह सुनते ही पंजाब और सीमांतके राजा स्वाधीन को गये । इन सबके नेता चन्द्रगुप्त बने और उत्तर पश्चिम भारतमें बल प्राप्त करनेके बाद उन्होंने मगध राज्यपर चढ़ाई करने का विचार किया। इस समय चन्द्रगुप्त की अवस्था २३ वर्षकी थी।
(५) जिस समय चंद्रगुप्त ने मगधपर चढ़ाई करने का संकला किया, उसी समय उसकी प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ चाणिक्य ब्राह्मणसे भेट हुई । एक समय राजा नन्दने चाणिक्य का अपमान किया था ! चाणिक्य अपने अपमानका बदला चुकानेकी वाट देख रहा था। चंद्रगुप्तसे मिलकर वह बहुत प्रसन्न हुमा और दोनों एक दुसरेके सहायक बन गये।
. (६) सन् ईस्वीके ३२० व पूर्व चन्द्रगुप्तने नीतिज्ञ चाणिक्य और सीमांत प्रदेशके पवन क आदि राजाओंके साथ मगध पर चढ़ाई की और नन्द राजाको समूल नष्ट कर मगधका राजा सिंहासन प्राप्त किया । नंदराजाके वीस हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, दो हजार रथ और चार हजार हाथी उसके आधीन हुए । . ... (७) चन्द्रगुने अपनी सैना वृद्धि की। उसकी सैनामें तीस हजार घुड़सवार, नौ हजार हाथी, छः हजार पैदल और बहुसंख्यक स्थ थे। ऐसी दुर्जेय सैनाकी सहायतासे उन्होंने नर्मदा तक उत्तर भारत के सभी राजाओंको जीत लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्यका विस्तार बंगालकी खाड़ीसे. भरव समुद्र तक होगया और वह सर्वथा भारतके प्रथम ऐतिहासिक चक्रवर्ती सम्राट् कहलाने के अधिकारी हुए।
7
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ८१
(८) चन्द्रगुप्त भारतमें अपने साम्राज्यको बढ़ाने और पुष्ट करने में लगे थे। उधर पश्चिम एशिया में सिकन्दरका एक सेनापति अपनी शक्ति बढ़ाकर सिकन्दरके जीते हुए भारतीय प्रान्तोंको चंद्र गुप्तसे छीन लेने की तैयारी कररहा था। उसका नाम सेल्यूकस था। उसने सिंधुदी पार की। वह पहिली लड़ाई में ही चन्द्रगुप्तकी सेनाका पक्का न संमाल सका और उसे दबकर संधि करनी पड़ी। उसने अपने साम्राज्यके काबुल, कंधार, हिगत और मकरान प्रदेश चन्द्रगुप्तको दिए। इसके बदलेमें चन्द्रगुप्तने ५०० हाथी उसे दिए । इतना ही नहीं, वह विजयी मौर्य सम्र को अपनी बेटी भी व्याह देनेको बाध्य हुमा । इस तरह दो हजार वर्ष पहलेसे भी भारतीय सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य उन काबुल, कंधार भादि प्रदेशोंगर भारतीय पताका उडाने में समर्थ हुए थे, जिनपर न कभी दिल्ली के मुगल सम्र टोंकी जीत हुई और न अंग्रेजी राज्यको ही ऐसा देखना नसीब हुमा।
(९) ई० पूर्व ३०३ में चन्द्रगुप्त मौर्य संपूर्ण उत्तर भारत के राजा बन गये और भारत के विदेशी नरेशकी सत्ता समाप्त करदी । और अपने बाहुबलसे काबुल, कंधार, हिरात मादिमें हिन्दुओंका प्राधान्य स्थापित किया। उन्होंने अपनी राजधानी पाटलीपुत्र कायम की और चाणिक्यको प्रधानमंत्री नियुक्त किया । चंद्रगुप्त के राज में पाणी मात्रके हिसका मन रक्खा गया था।
- (१०) यूनान देशका मेगस्थनीज नामक राजदुत उनके दरबारम भाकर रहता था। उसने मौर्य साम्रज्यके भादर्श और
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाम अनुकरणीय शासनका विवरण लिखा है । चन्द्रगुप्तका आदर्श उसके राजकौशल और पराक्रमके लिये उसका नाम स्वर्णाक्षरों में मङ्कित रहेगा।
(११) चंद्रगुप्त पहले ही विजयी स्म्राट थे, जिनका शासन विदेशों तक में था। उनका राज्यशासन प्रत्येक प्राणीके लिए सुखकर था।
(१२) चन्द्रगुप्तको बालकाळसे ही जैन धर्मपर श्रद्धा थी। श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली उनके धर्मगुरु थे। जैन मुनि उनके राज्यों सदैव विहार करते थे। वह बड़ी भक्ति और श्रद्धासे उनको माहारदान देते थे।
(१३) एक समय महाराजा चन्द्रगुप्त रात्रिको निद्रामें थे तब उन्होंने पिछले. पहरमें नीचे लिखे हुए सोलह स्वप्न देखे
(१) सूर्यको मस्त होता हुमा देखा। (२) धूलसे माच्छादित रत्नराशि देखी । (३) करमवृक्ष की शाखा टूटती हुई देखी। ( ४ ) समुद्रको सीमा उल्लंघत करते देखा। (५) बारह फणवाला सर्प देखा। (६) देव विमानको उलटते देखा । (७) ऊँटपर चढ़ा हुमा राजपुत्र देखा। (८) दो काले हाथियों को कड़ते देखा। (९) रथमें २ बछड़ोंको जुता हुमा देखा। (१०) बन्दरको हाथीपर चढ़ा हुआ देखा। (११) भूतप्रेतोंको नाचते हुए देखा।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास |
www
१४
। ..
(१२) सोने के वर्तनमें कुत्तेको भोजन करते देखा । (१३) जुगनूको चमकते देखा ।
(१४) सूखा तालाब देखा ।
ॐ
।
(१५) घुटमें खिला हुआ, कमल देखा । (१६) चन्द्रमा में छिद्र देखा ।
( १२ ) सबेरे उठते ही वे स्वप्नोंका फल पूछने के लिए अपने गुरु श्री भद्रबाहु स्वामी निष्ट पहुंचे। उन्होंने गुरुदेवको नमस्कारः कर स्वप्न का फल पूछा. |
(१३) श्री मद्रबाहु से स्वामीने स्वप्नोंको सुनकर उनका कहा कि इन स्वप्नकि फलस्वरूप मगध
फल बतलाया | और
P
देशमें घोर अकाल पड़ेगा । उन्होंने इस तरह से १६ स्वप्नोंका फल
1
बतलाया जिससे महाराजाको संतोष हुआ—
--
( १ ) द्वादशांग के पाठियोंका अभाव होगा ।
ور
(२) मुनियोंमें परस्पर फूट होगी और अनेक संघ
Fi
स्थापित होंगे।
( ३ ) क्षत्रिय लोग जैन धर्म धारण नहीं करेंगे पालन नहीं करेंगे
A.
( ४ ) राजा
( ५ ) बारह वर्ष का अकाल पडेगा ।
1
( ६ ) भारतमें अब देवताओंका मागमन नहीं होगा (७) भारत के राजा जैनधर्मको छोडकर मिथ्यामार्ग
ग्रहण करेंगे।
(८) असमय में थोड़ी वर्षा होगी ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५ ने तीसरा भाम (९) बाल अवस्था में धर्म धारण करेंगे परन्तु युवावस्था में
धर्मकी रुचि नहीं रहेगी। (१०) नीच जातिके पुरुष राज प्राप्त करेंगे। (११) कुदेवोंकी विशेष रूपसे पूजा होगी। '(१२) धनी लोग भनेक कुकर्मोमें रत होंगे। (१३) जैन धर्मका प्रभाव कम होगा।' (१४) दक्षिण प्रांतमें ही जन धर्म का विशेष रूपसे
प्रभाव रहेगा। (१५) ब्राह्मणोंमें जैन धर्म नहीं रहेगा, केवल वैश्यों में
ही जैन धर्म रहेगा।
) जन धर्म भनेक पन्थ और संपदाय होंगे।.. (१४) श्री भद्रबाहुस्वामी जब दुर्भिक्षके कारण दक्षिण भारतको जाने लगे उस समय चन्द्रगुप्त ने भी राज्य छोड़कर उनके पास जन मुनिकी दीक्षा धारण की और मुनि होकर उनकी सेवाके लिए साथ होगए। . (१५) चन्द्रगुप्त जैन मुनि होकर भद्रबाहुस्वामीके साथ दक्षिण भारत पहुंचे और श्रवणबेलगाल नामक स्थानपर ठहर गए। यहांपर एक छोटीसी पहाड़ीपर गुरु शिष्यने तपस्या की और उनका समाधिमरण भी वहीं हुआ। ..?
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास |
८६
पाठ २४ ।
सम्राट ऐल खारवेल ।
( १ ) राजा खारवेलका जन्म सन् ई० से १९७ वर्ष पूर्व अशोक की मृत्युके ४० वर्ष पीछे हुआ था । इनके पिताका नाम चेतराज था । ये कलिंग देश के राजा थे 1
( २ ) १३ वें वर्ष में आपको युवराज पद प्राप्त हुआ और सोलहवें वर्ष में ही पिताको मृत्युके पश्चात् ये राज्यशासन करने लगे । (३) पच्चीस वर्ष में आपका राज्याभिषेक हुआ और माफ राजा होगए ।
( ४ ) राजा खारवेलने कलिंगकी प्राचीन राजधानी तोशालीको अपनी राजधानी बनाई। आपकी प्रजाकी संख्या ३५ लाख थी।
( ५ ) राज्य प्राप्त होने के दूसरे वर्षमे आपने दिग्विजय के लिए प्रयाण किया और पश्चिमके अनेक राजाओंको जीतकर उनपर अपना अधिकार जमाया। उन्होंने २ वर्षमें काश्यप, मुशिक, राष्ट्रिक और भोजक क्षत्रिय राजाओंको जीतकर उन्हें अपने माघीन बनाया ।
( ६ ) दक्षिण भारत के पांड्य आदि देशों के राजाओंने अपने प' भेंट ' भेजकर मैत्री स्थापित की। दक्षिण भारतका प्रवलराजा शतकर्णि भी निर्बल होगया । इस तरह दक्षिण भारत में मी खारबेलका प्रताप परिपूर्ण होगया ।
(७) उत्तर भारतका प्रतापी राजा पुष्पमित्र मगधका
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग राज्याधिकारी था। उसने मौर्यवंशका संहार किया था। खारवेलने पुष्पमित्रको परास्त करने का दृढ़ संकर किया और वे सेना लेकर मगधकी ओर चल पड़े और गोरथगिरि पर उन्होंने अपना अधिकार जमाया। कई कारणोंसे वे वापिस कलिंग लौट भाए । वारवेल के इस माक्रमणकी खबर यूनानके डिमिष्ट्रियस बादशाहको लगी। उसने मथुग पंचाल और साकेत पर अपना अधिकार जमा लिया. था। इस खबरसे वह अपनी सैना लेकर पीछे हट गया।
(८) राज्यकालके १२ वें वर्ष स्वारवेलने उत्तरकी ओर माक्रमण किया। मार्गके अनेक राजाओं पर विजय करते हुए के मगधकी राजधानीके पास पहुंच गए और गंगा नदीको पारकर पाटलीपुत्रमें दाखिल होगए । उन्होंने नंदकालके प्रसिद्ध महल सुग
को घेर लिया। शुङ्गनृप पुष्पमित्र इस समय वृद्ध होगए थे। उनका पुत्र बृहस्पति मित्र मगधका शासक था। उसने खारवेलकी साधीनता स्वीकार की और भनेक बहुमूल्य रत्नादि भेटमें दिए । वहांसे वे 'कलिङ्ग जिन' की प्रसिद्ध मूर्ति ले आए, जिसे नन्दराज कलिङ्गसे लाए थे।
(९) खारवेलने सारे भारतपर विजय प्राप्त की । पांड्य देशसे लेकर उत्तरापथ और मयघसे लेकर महाराष्ट्र देशतक उनकी विजयपताका फहराती थी।
(१०) खारवेलने प्रजाहित के लिए 'तनमुतिय ' नामक स्थानसे नहर निकलवाई, और एक बड़े तालावका जीर्णोद्धार कराया।
(११) प्रजाकी मुविधा के लिए उनोंने “पौर" और 'जान
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ४ पद' संस्थाओंको स्थापित किया और प्रजाकी सम्मति के अनुकूल शासन किया। पौर' संस्थाका संबंध राजधानी और नगरोंके शास. नसे था। और जानपद' संस्था ग्रामोंका शासन करनेके लिये नियुक्त थी। .. hi (१२) खारवेल बड़े दानी थे। उन्होंने राज्यके नवे वर्ष
हत भगवान का अभिषेक करके उत्सव मनाया था और अडतालीस लाख चांदीके सिक्कोंसे प्राचीन नदीके तट पर 'महाविजय' प्रासाद बनवाया और ब्राह्मण तथा अन्य लोगोंको किमिच्छक' दान दिया।
( १३ ) गजा खारवेलने कुमारी पर्वतपर जैन मुनियों के रहने के लिए गुफ'एं और मंदिरादि बनवाए और जैन धर्मका महा अनुष्ठान किया। उस सम्मेलनमें भारत के जैन- यति और पण्डितगण उपस्थित हुए थे। इसके लिए अखिल जैन संघने उन्हें 'भिक्षुराज'
और "धर्मराज' की उपाधि दी और उनका जीवनचरित्र पाषाण शिलापर लिखा गया। यह शिलालेख उड़ीसा प्रांत के खंडगिरिउदयगिरि पर्वतकी हाथी गुफा में मौजूद है और जैन इतिहास के लिए बड़े महत्वकी वस्तु है।
.. - "(१४.) शिलालेखमें सन् १७० ई० पूर्वतक वाग्वेलकी जीवन घटनाओंका उल्लेख है । उस समय उनकी भायु करीब ३७ वर्षकी थी । उनका स्वर्गवास सन् १५२ ई० पूर्वके लगभग हुमा है, उनके बाद उनका पुत्र कुदेयश्री खरमहामेघवाहन राजा हुआ ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरसंघके कुछ आचार्य ।
(लेखक-बाबू कामताप्रसादजी जैन, अलीगंज । )
पाठ २५ ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य |
मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोस्तु मङ्गलं ॥
( १ ) दि दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में भगवान् कुन्दकुन्दस्वामीका आसन बहुत ऊंचा है। जैन मंदिरोंमें प्रतिदिन उपरोक्त श्लोकको दुहराकर भक्तजन उनकी गिनती गणधर गौतमके बाद करते हैं । सचमुच दिगम्बर संप्रदायका मूलाधार इन आचार्यप्रवरके महान् व्यक्ति में स्थित है। यदि कुन्दकुन्दाचार्य न होते तो शायद ही दिगम्बर संप्रदाय कभी उन्नतशील होता ।
( २ ) अन्य प्रसिद्ध दिगम्बर आचार्योकी तरह भगवत् कुन्दकुन्देका सम्बन्ध दक्षिण भारत से है। दक्षिणभारत में ईस्वी पहली शताब्दि के लगभग पिदथनाडु नामका एक प्रदेश था । उस प्रदेशमें - कुरुमरई नामक एक गांव था। गांव कुरुमई में एक धनी वेश्य
5
करमुण्डकी पत्नी
रहते थे । उनका नाम करमुण्ड था। सेठ
b.
14
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ९०
श्रीमती थी। उनके मतिवरण नामका खाला चरवाहा नौकर था ।
(३) चरवाहा मतिवरण एक दिन गौवको चरानेके लिये जंगलकी ओर जा रहा था । उसने देखा, बनाभिसे सारा जंगलका जंगक भस्म हो गया है, केवल बीचमें कुछ पेड़ हरे भरे बच रहे हैं । यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, और वह उन पेड़ों को देखने के लिये उनकी ओर लपक गया। वहां उसने एक मुनि महा
राजकी बसतिका देखी और वहीं एक सन्दुक में आगम ग्रन्थ रक्खे: हुए पाए | उसने भगम ग्रन्थ उठा लिए और ले जाकर अपने घर में रख छोड़े।
( ४ ) सेठ करमुण्डके कोई पुत्र न था । सेठानी श्रीमती इस कारण बड़ी उदास रहती थी। किंतु सेठ धर्मात्मा था । वह धर्म की बातें सुना और धर्म-कर्म कराकर सेठानीका मन बहलाये रखता था । एक रोज उनके यहां एक प्रतिभाशाली मुनिराजका शुभागमन हुआ । उन्होंने पड़गाह कर भक्तिभ वसे मुनिराजको आहारदान दिया और इन दानके द्वारा अमित पुण्य संचय किया । उन्हें विश्वास होगया कि अब हमारे भाग्य खुलेंगे। उधर, चरवाहे मतिवरणने उन मुनिराजको आगम ग्रन्थ प्रदान किये । इस शास्त्रदान के प्रभाव से उसके ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण - बंघ होगये और वह मरकर सेठ करमुण्डकी सेठानी श्रीमतीकी कोख से उनके पुत्र हुआ । यही तीक्ष्णबुद्धि पुत्र भागे चलकर भगवत् कुन्दकुन्द हुये ।
( ५ ) सेठ-सेठानी पुत्रका मुंह देखकर फूले अङ्ग न समाते थे । ' होनहार बिरवानके, होत चीकने पात ।' सेठजीका पुत्र भी
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
भाग्यशाली था। वह बचपनसे ही असाधारण व्यक्तित्व बनाये हुये था । देखते ही देखते वह सब विद्याओं और कलाओंमें निपुण होगया । धर्मात्मा माता-पिताओंका पुत्र भला धर्म-कर्मका मोही भी क्यों न होता ? जैन धर्ममें उसकी विशेष भास्था थी। उसका चित्त संसारसे विरत और परमार्थमें रत रहता था !
(६) एक दिन श्री जिनचन्द्राच र्यका विहार करमुण्ड सेठके गांवमें हुमा । सेठ सेठानी पुत्र सहित भाचार्य महाराजकी वन्दना करने गये । उन्होंने मुनिराजकी धर्म-देशना सुनी । सेठपुत्र प्रति-बुद्ध होगये । वह घर न लौटे। माता-पितासे माज्ञा लेकर मुनि होगये। मुनि दशामें उन्होंने घोर तपश्चरण किया । मलय देशके अन्तर्गत हेम ग्राम (पोन्ना ) के निकट स्थित नीलगिरी पर्वत उनकी तपस्यासे पवित्र हो चुका है। पहाड़की चोटीपर उनके चरण-चिह्न भी विद्यमान हैं।
(७) उस समय कांचीपुर दक्षिण भारतमें जैनधर्मका केन्द्र था। साधु कुंदकुंदका अधिक समय संभवतः यहीं व्यतीत हुभा था। पट्टावलियोंमें उन्हें श्री जिनचन्द्राचार्यका शिष्य लिखा है और बताया है कि ई० पूर्व सन् ८ में उन्हें आचार्य पद प्राप्त हुआ। था। इस अवस्थामें उनका जन्म ई० पूर्व सन् ५२ में हुमा समझना चाहिये; क्योंकि पट्टावलीके अनुसार वह ११ वर्ष गृहस्थ दशामें और ३३ वर्ष साधु रूपमें रहे थे। आचार्यपदपर वह लगभग ९६ वर्षकी दीर्घायु उन्होंने पाई थी।
(८) कुन्दकुन्दाचार्यने. एक दिन ध्यानमें विदेह देशमें
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। १६ विद्यमान तीर्थकर सीमन्धरस्वामीका स्मरण किया था। तीर्थकर भावानने परोक्ष रूपमें धर्म लाम दिया था, किसे सुनकर दो * चारण ' देव उनके दर्शन करने यहां भाये थे और भाखिर वे उन्हें पूर्व विदेह लेगये थे, जहां उन्होंने तीर्थकर भगवान के साक्षात दर्शन किये थे । तीर्थकर भगवान के निकट उन्होंने सिद्धांत ग्रन्थोंका अध्ययन किया था और. वह (१) मतांतर निर्णय, (२) सर्वशास्त्र, (३) कर्मप्रकाश, (४) न्यायप्रकाश नामक चार ग्रन्थ वहांसे अपने साथ ले माये थे।
(९) पूर्व विदेह जाते हुये कुन्दकुन्दाचार्यकी मोर पिच्छिका विमानसे उड़कर गिर गई थी और उन्हें काम चलाने के लिये गिद्ध पक्षीके परोंकी पिच्छिका दे दी गई थी। इस कारण वह · गृद्धपिच्छिकाचार्य' नामसे भी प्रसिद्ध होगये थे। तथापि सीमन्धरस्वामीके समोशरणमें पूर्व विदेहके चक्रवर्ती सम्राट्ने उन्हें मुनियों में सबसे छोटा देखकर उनकी बिनय · ऐला ( छोटे ) चार्य' नामसे की थी। कुण्डकोण्ड नामक देशसे उनका धनिष्ट सम्पर्क रहा था, इसलिये ही ' कुण्डकोण्डाचार्य ' नामसे प्रख्यात् हुये थे। इन्हींका श्रुतिमधुर नाम कुन्दकुन्द' है।
(१०) पूर्व विदेहसे लौटकर भाचार्य महोदय धर्मप्रचार और सिद्धांत ग्रन्थोंके अध्ययन में ऐसे कीन होगये कि उन्हें अपने शरीर की भी सुध न रही । उस अथक परिश्रमसे समय बेसमय धर्माध्यानमें लगे रहनेका परिणाम यह हुमा कि गरदन झुकाये रक्खे २ उनकी गरदन टेड़ी होगई। लोग उन्हें 'वक्रग्रीव' कहने.
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
c.
तीसरा भाग लगे। किंतु उपरांत योग साधनसे वह ठीक होगई थी। लगन इसीको कहते हैं।
(११) उस समय दक्षिण भारतमें विद्या व्यसन जोरोंपर था। मैलापुर. तामिल विद्वानों का घर था और वहां एक "विद्वत् समाज" स्थापित था। जैनियोंकी भी वहांपर अच्छी चलती थी। श्री कुंदकुंद ऐलाचार्थने तामिलमें 'कुल' नामका एक महाकाव्य रचा.. और थिरुवल्लुवर नामक अपने शिष्य के हाथ उसे विद्वत् समाजमें पेश करने के लिये भेज दिया। विद्वन् मण्डलने उसे खूब पसंद किया.
और वह तामिल साहित्य का एक रल बन गया। सचमुच नीतिका वह अपूर्व ग्रन्थ है और तामिक देशमें वह 'वेद' माना जाता है। . उसकी रचना ऐसी उदार दृष्टि से की गई है कि प्रत्येक धर्मका अनुयायी. उसे अपना मान्य ग्रन्थ स्वीकार करने के लिये उतावला, होजाता है। श्री कुंदकुंदाचार्य के समान धर्माचार्यकी कृति सांप्रदा., यिकतासे अछूती रहना ही चाहिये थी ! ___(१२ ) 'कुल' के अतिरिक्त तामील भाषामें और किन ग्रन्थों की रचना श्री कुन्दकुन्दस्वामीने की, यह ज्ञात नहीं है । किंतु तामिळके अतिरिक्त वह प्राकृत भाषाके भी प्रौढ़ विद्वान थे और.. इस भाषामें उन्होंसे जैन सिद्धांतके भनेक ग्रन्थ, लिखे थे; जिनमें 'प्राभृतत्रय', षट्पाहुड़, नियमसार भादि उल्लेखनीय हैं । 'प्राभृतत्रय' को उन्होंने पल्लववंशके राजा शिवकुमार महाराजके लिये लिखा था। कुन्दकुन्दाचार्यको यह राजा अपना गुरु मानता था और उनके धर्मप्रचारमें यह विशेष सहायक था। दिगम्बर संप्रदायमें भाज
दा
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । ९४ कुन्दकुन्दाचार्यके ये ग्रन्थ ही मागम ग्रन्थ होरहे हैं और इसीसे इन ग्रन्थों का महत्व स्पष्ट है।
(१३) एक दफा श्री कुंदकुंदाचार्य एक बड़ासा संघ लेकर, 'जिसमें ५९४ तो मुनि ही थे, श्री गिरनारजीकी यात्राके लिये वहां पहुंचे थे। उसी समय श्वेताम्बर संप्रदायका भी एक संघ शुक्लाचा. यकी अध्यक्षतामें वहां भाया था। श्वेताम्बर लोग चाहते थे कि पहले हमारा संघ यात्रा करे क्योंकि वही प्राचीन जैन संपदाय है ! इसपर कुंदकुंदाचार्या शास्त्रार्थ शुक्लाचार्यसे हुमा, जिसमें कुंदकुंदाचार्यके मंत्रबलसे ' सरस्वतीदेवी' ने कहा कि दिगम्बर मत ही प्राचीन है और तब दिगम्बर संघने ही पहले पर्वतकी यात्रा की । इसी समय कुंकुंद स्वामीने अपने कमण्डलुमें कमल-पुष्प प्रगट करके लोगोंको चकित किया था। इस कारण वह 'पद्मनंदि' नामसे प्रसिद्ध होगये थे।
(१४) उपरांत अनेक देशोंमें विहार करके और मुमुक्षुओं को जैनधर्मकी दीक्षा देते हुए श्री कुंदकुंदाचार्य दक्षिण भारतको लौट गये। वहां अपना निकट समय जानकर वह योग-निरत होगये । ध्यान-खड्ग लेकर कर्मशत्रुओंसे वह बड़ने लगे। वह सच्चे मात्म वीर थे और थे युग-प्रधान महापुरुष । माखिर सन् ४२ के लगभग वह इस नश्वर शरीरको त्यागकर स्वर्गधाम सिधार गये।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
पाठ २६ । आचार्यप्रवर उमास्वामी ! तत्वार्थसूत्रकारमुमास्वामिमुनीश्वरम् ।
श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देहं गुणमन्दिरम् ।। (१) पाच र्य प्रवर उमास्वामी (उमास्वाति ) का नाम 'तत्वार्थसूत्र' नामक ग्रन्थ के कारण अजर अमर है। यह ग्रन्थ जैनों की 'बाईबिल' है और खूबी यह कि संस्कृत भाषामें सबसे पहला यही जैन ग्रंथ है। सचमुच भाचार्य उमास्वामीने ही जैन सिद्धांतको प्राकृतसे संस्कृत भाषामें प्रकट करने का श्रीगणेश किया था और फिर तो इस भाषामें अनेकानेक जैनाचार्योंने ग्रन्थ रचना की।
(२) श्री उमास्वामीकी मान्यता जैनोंके दोनों सम्प्रदायों दिगम्बर और श्वेतांवरमें समान रूपसे है । और उनका 'तत्वार्थसूत्र' अन्ध भी दोनों संप्रदायोंमें श्रद्धाकी दृष्टिसे देखा जाता है।
(३) किंतु ऐसे प्रख्यात भाच र्यके जीवनकी घटनामोंका ठीक हाल ज्ञात नहीं है । श्वेतांवरीय शास्त्रोंसे यह जरूर विदित है कि न्यग्रोविका नामक नगरी उमास्वामी का जन्म हुमा था। उनके पिताका नाम स्वाति और माताका नाम वात्सी था । वह कौभीषणि गोत्रके थे; जिससे उनका ब्रह्मण या क्षत्री होना प्रगट है । उनके दीक्षागुरु ग्यारह अंगके धारक घोषनंदि क्षमण थे और विद्याग्रहणकी दृष्टिसे उनके गुरु मूल नामक वाचकाचार्य ये । उमास्वामी भी
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचीन जैन इतिहाम। ९६ वाचक कहलाते थे और उन्होंने तत्वार्यसूत्र' की रचना कुसुमपुर नामक नगरमें की यी!
(४) दिगंबर शात्रोंमें उनके गृहस्थ जीवनको कुछ भी पता नहीं चलता है। साधु रूपमें वह श्री. कुंदकुंदाचार्यके पट्ट शिष्य बताये गये हैं और श्री तत्वार्थसूत्र' की रचनाके विषय में कहा गया है कि सौराष्ट्र देशके मध्य ऊर्जयंत गिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें मासन्न भव्य, स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न श्वेतांबर भक्त सिद्धय्य' नामक एक विद्वान श्वेतांवर मत के अनुकूल सकल शास्त्रका जाननेवाला था। उसने — दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः '' यह एक सुत्र बताया और उसे एक पाटियेपर लिख छोड़ा। एक समय चर्यार्थ श्री गृद्धपिच्छाचार्य 'उमास्वामि' नामके धारक मुनिवर वहांपर माये और उन्होंने माहार लेने के पश्च त्. पाटियेको देखकर उसमें उक्त सूत्र के पहले “सम्यक् ' शब्द जोड़ दिया । जब वह सिद्धय्य विद्वान वहांसे अपने घर माये और उसने पाटियेपर - सम्यक् ' शब्द लगा देखा, तो उसने प्रसन्न होकर अपनी मातासे पूछ। कि, किस. महानुभावने यह शब्द लिखा है ? ताने उत्तर दिया कि एक महानुभाव निर्ग्रन्थाचार्य ने यह बनाया है। इसपर वह गिरि और अरण्यको ढूंढ़ता हुआ उन के पाश्रममें पहुंचा और भक्तिभारसे नम्रीभूत होकर उक्त मुनिमहारानसे पुछने लगा कि आत्माका हित क्या है ? मुनिराजने कहा, 'मोक्ष है। इसपर मोक्षका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय पूछा गया, जिसके उत्तररूपमें ही इस ग्रंथका अवतार हुमा है। इसी कारण
०
एका अपा
91
प।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भागे
था, जब दिगम्बर और श्वेताम्बर आपस में प्रेमसे रहते हुये धर्मप्रभावना के कार्य कर रहे थे । श्वेताम्बर उपासक सिद्धय्यके लिये एक निर्ग्रन्थाचार्यका शास्त्ररचना करना इसी वात्सल्यभावका द्योतक है । यह निग्रेन्थाचार्य श्री उमास्वामिके अतिरिक्त और कोई न थे !
( ५ ) इसके अतिरिक्त धर्म और संघके लिये उनने क्या क्या किया, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। इस कारण इन महान् आचार्य के विषय में इस संक्षिप्त वृत्तान्त से ही संतोष धारण करना पड़ता है | दिगम्बर संप्रदाय में वह श्रुतिमधुर उम स्वामी' के नामसे और श्वेताम्बर संपदाय में ' उमास्वाति के नामसे प्रसिद्ध हैं ।
•
पाठ २७ ।
स्वामी समन्तभद्राचार्य ।
समन्तभद्रो भद्रार्थो भातु भारत-भूषणः ।
?
( १ ) स्वामी समन्तभद्राचार्य जिनशासन के नेता थे और वह थे भारत भूषण ! एक मात्र भद्र प्रयोजन के लिये उन्होंने लोकका उपकार करके भारतका मस्तक ऊंचा कर दिया था ।
4
(२) स्वामी समन्तभद्राचार्यको जन्म देने का श्रेय भी दक्षिणभारतको प्राप्त है । ईस्वीकी प्रारम्भिक शताब्दियोंमें कदम्बराजवंश भारतमें प्रसिद्ध था । इस वंशके प्रायः सब ही राजा जैन धर्मानुयायी थे | स्वामीजीने संभवतः इसी राजवंशको अपने जन्मसे सुशोभित किया था। उनके माता-पिताके नाम और उनकी
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ९८ जन्मतिथि क्या थी, इसका पता माजतक नहीं लगा। किन्तु यह सष्ट है कि उनके पिता फणिमंडलान्तर्गत · उग्गपुर ' के क्षत्रीजा थे। उग्गपुर तब कावेरी नदी के किनारे बसा हुमा था । वह बन्दरगाह
और एक बड़ा ही समृद्धिशाली जनपद था। जैनोंका वह केन्द्र था । इसी जैन केन्द्र में स्वामीजीका बाल्य जीवन व्यतीत हुआ था। ... (३) तब स्वामी समन्तभद्राचार्य - शान्तिवर्म' नामसे प्रसिद्ध थे । शांतिवर्मने बहुत करके अपनी शिक्षा दीक्षा गपुर में ही पाई थी! पर यह नहीं कहा जासक्ता कि उन्होंने गृहस्थावस्था में प्रवेश किया था या नहीं ! हां, यह सष्ट है कि वह छोटी उम्रमें ही संसासे विरक्त होकर साधु होगये थे । सचमुच बाल्यावस्थासे ही समन्त. भद्रने मानेको जिनशासन और जिनेन्द्रदेवकी सेवा के लिए अर्माण कर दिया था। उनके प्रति भापको नैपर्गिक प्रेम था और आपका रोम २ उन्हींके ध्यान और उन्हीं की वार्ताको लिये हुये था। भापकी धार्मिक परिणतिमें कृत्रिमताकी जरा भी गंध नहीं थी । भाप स्वभा. वसे ही धर्मात्मा थे और आपने अपने मन्तःकरणकी भावाजसे प्रेरित होकर ही जिनदीक्षा धण की थी।
(४) सच बात तो यह है कि समन्तभद्रजी युगप्रधान पुरुष थे। क्रांति उनके जीवन का मूल सूत्र था। कोई भी बात उन्हें इसलिये मान्य नहीं थी कि वह पुरातन प्रथा है अथवा किसी अन्य पुरुषने उसको वैसा ही बताया है। बल्कि वह 'सत्य' की कसौटीपर हर बातको कस लेना मावश्यक समझते थे। जैन मुनि होने के पहले उन्होंने स्वयं जिनेन्द्रदेवके चारित्र और गुणकी जांच की थी और
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग जब उन्हें 'न्यायविहित और अदभुत उदय सहित पाया, तो सुप्रसन्नचित्तसे जिनेन्द्रदेवकी सच्ची सेवा और भक्ति में लीन होगये।' इस भावको उन्होंने अपने इस पद्यसे ध्वनित दिया है:अत एव ते बुधनुतस्य चरितगुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम्
॥ १३० ।-युक्त्यनुशासन । (५) एक युगवी के लिये यह कार्य ठीक भी था। मनुष्य एक टके की हांडीको ठोक बजाकर लेता है, तब धार्मिक बातोंमें भन्ध अनुसरण करना बुद्धिमत्तः नहीं कही जातक्ती। समंतभद्र जैसे विद्वान् भला यह गल्ती कैसे करते ?
(६) स्वामी समन्तभद्र ने जिन दीक्षा कांची या उसके सन्निकट ही कहीं ग्रहण की थी। और कांची (Conjeevarem) ही उनके धार्मिक उद्योगोंका केन्द्र था। राजालीकथे' नामक ग्रंथ में लिखा है कि वहां वह अनेकवार पहुंचे थे। उसपर समन्तभद्रजी स्वयं कहते हैं कि “ मैं कांची का न्न साधु हूं।'' (कांच्यां न्नाटको) किन्तु फिर भी आपके गुरुकुलका कुछ भी परिचय नहीं मिलता। किस महानुभावको भापका दीक्षागुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुमा था, यह कहा नहीं जासक्तः । हां, यह विदित है कि माप ' मूलसंघ' के प्रधान माचार्यो में थे। विक्रमकी १४ वीं शताब्दी के विद्वान् कवि हस्तिमल्ल और अय्यप्पार्यने 'श्री मुरसंघ व्योमेन्दुः' विशेषण के द्वारा मामको मूलसंध रूपी माकाशका चन्द्रमा लिखा है।'
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जेन इतिहास। १००
(७) जैन साधु होकर स्वामीजीने गहन तपश्चरण और अटूट ज्ञान संचय करने में समय व्यतीत किया था । उन्होंने दिगम्बर साधुका पवित्र भेष मात्र दिखावे अथवा ख्यातिलाभ या अन्य किसी लालचसे धारण नहीं किया था और न उन्होंने कभी किसी मन्य व्यक्तिकी चापलूसीमें भाकर अथवा इन्द्रियोंके विषयमें गृद्ध होकर मुनिपदको लाञ्छित ही किया था। उन्होंने ऐसे मोही मौर नामके द्रव्य लिङ्गी मुनि भेषियोंकी अच्छी भार्सना की है। उनका मत था कि " निर्मोही ( सम्यग्दृष्टि) गृहस्थ मोक्षमार्गी है, परन्तु मोही मुनि मोक्षमार्गी नहीं, और इसलिये मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ।' उनका साधु जीवन, उनकी इस उक्तिका मच्छ। प्रतिबिंब है।
(८) स्वामीजीके शांत और ज्ञानमय साधु जीवन में उनपर एक वार अचानक विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा था। स्वामीजी मणुवकहल्ली ग्राममें विचर रहे थे। एकाएक पूर्व संचित असाता वेदनीय कर्मके तीव्र उदयसे उनके शरीर में 'भस्म' नामक महा रोग उत्पन्न होगया। स्वामीजीको शरीरसे कुछ ममत्व तो था नहीं, शुरू २ में उन्होंने इस रोगकी जरा भी परवाह न की! क्षुबातृषा परीषहोंकी तरह वे इसको भी सहन करने लगे। किंतु सामान्य क्षुधा और इस · भस्म क्षुधा में बड़ा भन्तर था । उपरांत समन्तभद्रजीको इससे बड़ी वेदना होने लगी। उसपर भी उन्होंने न तो किसीसे दुवारा भोजनकी बाचना की और न स्निग्ध व गरिष्ठ भोजनके तैयार करने के लिये प्रेणा की। बल्कि वस्तुस्थितिको विचार कर वे मनित्यादि भाव
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
नाओं का चिंतन करते रहे । किन्तु रोग उत्तरोत्तर बढ़ता गया
और स्वामीजीके लिये वह असह्य होगया। उनकी दैनिक चर्याम भी बाधा पड़ने लगी । स्वामी जीने देखा कि अब उनके लिये शास्त्रोक्त मुनि जीवन बिताना असम्भव है, इसलिये उन्होंने सल्ले. खना' व्रत अंगीकार कर लेना उचित समझा। शरीर के लिये अपने धर्मको छोड़ देना उनके लिए एक अनहोनी बात थी। अपने गुरुसे यह व्रत ग्रहण करने की आज्ञा मांगी । वयोवृद्ध तपोरत्न गुरुमहाराज कुछ देर तक मौन रहकर स्वामीजीकी ओर देखते रहे। उन्होंने अपने योगबल से जान लिया कि समन्तभद्र अल्पायु नहीं हैं; बल्कि उनके द्वारा धर्म और शासनके उद्धारका महन् कार्य होने को है। बस, उन्होंने समन्तभद्रको सल्लेखना करने की माज्ञा नहीं दी; प्रत्युत भादेश किया कि जिस वेशमें जैसे हो रोगके शांत करने का उपाय करो। क्योंकि रोगके शांत होनेपर पुनः प्रायश्चित्त पूर्वक मुनिधर्म धारण किया जाता है । गुरुमहाराजका यह मादेश गंभीर और दूरदर्शिता एव लोकहितकी दृष्टिको लिये हुए था। शरीर ही तो धर्मकार्य करने का मुख्य साधन है । यदि किसी उपाय द्वारा वह साधन प्राप्त होमक्ता और उसके द्वारा धर्मका महान उत्कर्ष होसक्ता हो, तो बुद्धिमत्ता इसीमें है कि शरीरको उपयुक्त बनालेने का उपाय करे।
(९) समंतभद्रजीने गुरुजीकी आज्ञाको शिरोधार्य किया। उन्होंने परम श्रेष्ठ दिगम्बर वेषको त्यागकर अपने शरीरको भस्मसे माच्छादित बना लिया। भस्मक रोगकी व्याधि उनके नेत्रों को
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । १०२ माई न बना सकी थी, किंतु दिगम्बर मुनि वेषको सादर त्याग करते हुए उनकी आंखें डबडबा गई यह बड़ा ही करुण दृश्य था, परन्तु धर्मके लिये न करने योग्य कार्य भी एकवार करना पड़ता है। यही सोचकर स्वामीनी शांत होगये। उन्होंने कहा, 'भले ही जाहिरा मैं भस्म रमाये वैष्णव सन्यासी दीखता हूं, परन्तु भावोंमें- असल में मैं दिगम्बर साधु ही हूं।' हृदयमें जैनधर्मकी दृढ़ श्रद्धाको लिये हुये स्वामीजी मणुवक हल्ली से चलकर कांची पहुंच गये । सच है, माचरणसे भ्रष्ट हुआ मनुष्य भ्रष्ट नहीं होतावह अवश्य ही सम्यग्दर्शनकी महिमासे सिद्धपदको पालेता है, किंतु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हुए व्यक्ति के लिये कहीं भी ठिकाना नहीं है । वही वस्तुतः भ्रष्ट है और उसका अनंत संसार है । धर्मके लिये स्वामीका यह त्याग वास्तवमें चरमसीमाका था।
(१०) कांची में उस समय शिवकोटि नामक राना राज्य करता था । —भीमलिंग' नामका उसका एक शिवालय था। समंतभद्रजी इसी शिवालयमें पहुंचे और उन्होंने राजाको आशीर्वाद किया तथा वह बोले- राजन् ! मैं तुम्हारे नैवेद्यको शिवार्पण करूंगा।" राजा यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। सवा मनका प्रसाद शिवार्पण के लिये भाया । मतभद्र उस भोजनके साथ अकेले मंदिर में रह गये और उन्होंने सानंद अपनी जठराग्निको शांत किया। उपरांत दरवाजा खोल दिया। संपूर्ण भोजनकी समाप्तिको देखकर राजाको बड़ा ही माश्चर्य हुआ। वह बड़ी भक्तिसे और भी अच्छे भोजन शिवार्पण के लिये भेजने लगा। किंतु अब स्वामीकी जठरामि
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
तीसरा भाग
शांत हो चली थी, इसलिये भोजन उत्तरोत्तर अधिक परिमाणमें बचने लगा । समंतभद्रने साधारणतया इस शेषान्नको देव प्रसाद बतलाया; किंतु राजाको उससे संतोष न हुआ। अगले दिन राजाने शिवालयको सेनासे घेर लिया और दरवाजा खोल देनेकी आज्ञा दी । दरवाजा खुलने की आवाज सुनकर समंतभद्रको भावी उपसर्गका निश्चय होगया । उन्होंने उपसर्गकी निवृत्ति पर्यंत भन्न जळका त्याग कर दिया और वे शांतचित्तसे श्री चतुर्विंशति तीर्थकरोंकी स्तुति करने में लीन होगये । स्तुति करते हुये समन्तभद्रजीने जब मठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभस्वामीकी स्तुति करके भीमलिंगकी ओर दृष्टि की तो उन्हें उस स्थानपर किसी दिव्यशक्तिके प्रतापसे चन्द्रलांछन युक्त त भगवानका एक जाज्वल्यमान सुवर्णमय विशुद्ध बिंव प्रगट होता दिखलाई दिया । इतने में किवाड भी खुल गये थे : राजा भी इस चमत्कारको देखकर दंग रह गया और वह अपने छोटे भाई शिवायन सहित समंतभद्र के चरणोंमें गिर पड़ा । जब स्वामीजी २४ भगवानों की स्तुति पूरी कर चुके, तब उन्होंने उनको आशीर्वाद देकर धर्मो |देश दिया । राजा उसे सुनकर प्रतिबुद्ध होगया और अपने पुत्र 'श्रीकण्ठ' को राज्य देकर 'शिवायन' सहित दिगम्बर जैन मुनि होगया । राजाके साथ और भी बहुत से लोग जैनधर्म की शरण में आए। यही शिवकोटि मुनि मुनि उपरांत एक बड़े आचार्य हुये और इनका रचा हुआ साहित्य भी उपलब् है । धन्य हैं स्वामी समन्तभद्र, जिन्होंने आपत्कालमें भी जनधर्मकी अपूर्व प्रभावना की और भजैन भव्योंको जैन धर्म में दीक्षित किया।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास |
१०४
( ११ ) इस प्रकार स्वामीजीका आपत्काल शीघ्र नष्ट होगया और देहके स्वस्थ्य होजानेपर उन्होंने फिरसे जिनदीक्षा धारण कर की। वह फिर घोर तपश्चरण और यम-नियम करने लगे । उन्होंने शीघ्र ही ज्ञान-ध्यान में अपार शक्ति संचय कर ली । अब वे आचार्य होगये और लोग उन्हें जिन शासनका प्रणेता कहने लगे । वे 'गणतो . णीशः' अर्थात् गणियों यानी माचार्यों के ईश्वर (स्वामी) रूप में प्रसिद्ध होगए ।
1
( १२ ) स्वामी भी जैनधर्म और जैन सिद्धांत के अगाध मर्मज्ञ थे। इसके सिवाय वह तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यकोषादि विषयों में पूरी तौर से निष्णात थे। जैन न्यायके तो वह स्वामी थे और उन्हें 'न्याय तीर्थंकर' कहना उचित है । सचमुच खामीजीकी अलौकिक प्रतिमाने तात्कालिक ज्ञान और विज्ञान के प्रायः सब ही विषयोंपर अपना अधिकार जमा लिया था । यद्यपि वह संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी और तामिल आदि कई भाषाओंके पारंगत विद्वान थे, परन्तु संस्कृतका उनको विशेष अनुराग था । दक्षिण भारत में उच्चकोटि के संस्कृत ज्ञान के प्रोत्तेजन, प्रोत्साहन और प्रसरण में उनका नाम खास तौर से लिया जाता है । स्वामीजीके समय से संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक खास युगका प्रारम्भ होता है और इसीसे संस्कृत साहित्य में उनका नाम अमर है। सचमुच स्वामीजीकी विद्याके आलोक में एक बार सारा भारतवर्ष आलोकित होचुका है। देशमें जिससमय बौद्ध दिक्कों का प्रबल अातंक छाया हुआ था और लोग उनके नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, क्षणिकवादादि सिद्धांत से संत्रस्त थे
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
घबरा रहे थे, अथवा उन एकांत गोंमें पड़कर अपना आत्मपतन करने के लिये विवश हो हे थे, उस समय दक्षिण भारत उदय होकर स्वामीजीने जो लोकसेवा की है वह बड़े ही महत्वकी तथा चिरस्मरणीय है और इसलिए श्री शुभचंद्राचार्यने जो भापको 'भारतभूषण, लिखा है वह बहुत ही युक्तियुक्त जान पडता है !
(१३ ) समन्तभद्राचार्यजीकी लोकसेवाका कार्य केवल दक्षिण भारतमें ही सीमित नहीं रहा था। उनकी वादशक्ति अपतिहत थी और उन्होंने वई वार गे बदन देशके इस छोरसे उस छोर तक घूमकर मिथ्यावादियोंका गर्व खण्डित किया था। स्वामीजी महान योगी थे। कहते हैं कि उनको योगवलके प्रतापसे 'चारणऋद्धि' प्राप्त थी, जिसके कारण वे अन्य जीवोंको बाधा पहुंचाये विना ही सैकड़ों कोसोंकी यात्रा शीघ्र कर लेते थे। इस कारण समंतभद्र भारतके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर प्रायः सभी देशोंमें एक अपतिद्वंदि सिंहकी तरह क्रीडा करते हुए, निर्भयताके साथ वाद के लिये घूमे थे । एक वार वह घूमते हुए 'करहाटक' नगरमें भी पहुंचे थे। जिसे कुछ विद्वानोंने सतारा जिलेका माधुनिक 'कराड' और कुछने दक्षिण महाराष्ट्र देशका 'कोल्हापुर नगर बतलाया है। और जो इस समय बहुत से भटों ( वीर योद्धाओं ) से युक्त था। विद्याका उत्कट स्थान था और जनाकीर्ण था। उस वक्त उन्होंने वहांके राजापर अपने वाद प्रयोजनको प्रकट करते हुए, उन्हें अपना तद्विषयक जो परिचय एक पद्यमें दिया था, वह श्रवणबेलगोलके ५४ वें शिलालेख में निम्नश्कारसे संग्रहीत है:
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहाम।
१०६
पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे मेरी मया ताडिता, पश्चान्मालबसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरी वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥
'इस पद्यमें दिये हुए मात्म-परिचयसे यह मालूम होता है कि 'करहाटफ' पहुंचने से पहले समंतभद्रने जिन देशों तथा नगरोंमें बादके लिए विहार किया था, उनमें पाटलीपुत्र नगर, मालव, सिन्धु तथा टक्क (पंजाब) कांचीपुर और वैदिशा (भिलसा), ये प्रधान देश तथा जनपद थे, जहां उन्होंने वादकी भेरी बजाई थी और जहांपर किसीने भी उनका विरोध नहीं किया था।
(१४ ) समंतभद्रजीकी इस सफलताका सारा रहस्य उनके मन्तःकरण की शुद्धता, चारित्रकी निर्मलता और उनकी वाणीके मह. त्वमें सन्निहित है। स्वामीजीने गजसी भोगोपभोग और ऐश्वर्यको लात मारकर निग्रन्थ साधु का पद ग्रहण किया था। फिर भला उनके हृदयमें भहंकारकी नीच भावना कैसे स्थान पासक्ती थी ? उनकी वागिण लोकहित के लिए होती थी। इसी लिए वह सर्वमान्य थे। सच पूछिये तो स्वात्महित साधनके साथ २ दुसरेका हितसाधन करना ही स्वामीजीका प्रधान कार्य था और बड़ी योग्यताके साथ उन्होंने इसका संपादन किया था। ऐसे महान् मात्मविजयी वीरपर भारत. वासी जितना गर्व करें थोड़ा है !
(१५) स्वामीनीने लोकहित कार्यके साथ२ जो श्रेष्ठ साहित्य रचना की थी, उसमें के कुछ रत्न भब भी मिलते हैं । मुख्यतः वे
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०७
तीमरा भाग
इसप्रकार हैं:-१-आप्तमीमांसा, २-युक्त्यनुशासन, ३-स्वयंभूस्तोत्र, ४-जिन स्तुतिशतक ५-रत्नकरण्डक उपासकाध्ययन, ६-जीव. सिद्धि, ७-तत्त्वानुशासन, ८-प्र.कृत व्याकरण, ९-प्रमाणपदार्थ, १०--मेर भृत टीका और ११-गंधहस्तिमहाभाष्य । यह महा. भाष्य आन दुर्लभ है, फिर भी इन ग्रन्थरत्नोंसे स्वामी जी की अमरकीर्ति संमार में चि स्थायी है।
(१६) स्वामीजी के प्रारम्भिक जीवनकी तरह ही उनका अंतिम जीवन मी अंघकारके पर्दमे छिा हुआ है। हां, यह स्पष्ट है कि उनका अस्तित्व समय शक सं० ६० (ई० सन् १३८) था और वह एक बड़े योगी और महात्मा थे। उनके द्वारा धर्म, देश तथा समाजकी सेवा विशेष हुई थी।
पाठ २८ । श्री नेमिचंद्राचार्य और वीरशिरोमणि वीरमातड चामुंडराय।
(१) दक्षिण भारत के जैन इतिहासमें आचार्य प्रवर श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती और बीर शिरोमण च मुण्डरायके नाम स्वर्णाक्षरों में अङ्कित हैं । इन दोनों महानुभावों का पारस्परिक संबंध भी घनिष्ट है। सच पूछिये तो श्री नेमिचन्द्र रूपी विद्यावारिधिसे यह चामुण्डराय सदृश बिद्यारत्न उत्पन्न हुआ है।
(२) चामुण्डरायके जमाने में महीशा ( Mysore ) देश
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। १०८ * गंगवादी' नामसे प्रसिद्ध था और वहां ईस्वी दुसरी शताब्दीसे जैनधर्म प्रतिपालक गंगवंशी क्षत्रिय वीरों का राज्याधिकार था । गंप वंशमें मारसिंह द्वितीय नामक एक राजा ईस्वी दसर्वी शताब्दीमे हुए । चामुण्डराय इन्हीं के सेनापति और राजमंत्री थे। इनके राज्य. काल में गङ्गसेनाने चेर, चोल, पांड्य और नोरम्बाडि देशके पल्ला गजामोंसे रणांगणमें लोहा लिया था और विजयश्री उसके भाग्य में रही थी। भाखिर सन् ९.७५ ई० में मार सिंहने आचार्य श्री अजि. तसेनके निकट बङ्कापुरमें समाधिमरण किया था। उपरांत राजमल्ल द्वितीयने गंग वंश के राजसिंहासनको सुशोभित किया था और इनक बाद राक्षस गंग राज्याधिकारी हुए थे। चामुण्डरायने इन दोनों राजाओंकी कीर्तिगरिमाको अपनी ममूल्य सेवाओं द्वारा सुरक्षित रक्खा था।
(३) यह दीर्घायु और भाग्यशाली चामुण्डराय ब्रह्म-क्षत्रवंशके रत्न थे। उनके माता पिता कौन थे और उनका जन्म कहां और किस तिथिको हुआ था, दुर्भाग्य से इन बातों का पता इसी तरह नहीं चलता जिस तरह श्री नेमिचन्द्राचार्य के प्रारम्भिक जीवनका कुछ भी वृतांत नहीं मिलता ! हां, यह स्पष्ट है कि चामुण्डरायका अधिक समय गंगोंकी राजधानी तलकाडमें व्यतीत हुमा था।
(४) चामुण्डरायकी माताका नाम काललदेवी था और वह जैन धर्मकी दृढ़ श्रद्धालु थीं । श्री चामुण्डरायने धर्म प्रतीति उन्हींसे ग्रहण की थी। मच्छे बुरेको समझते ही चामुण्डरायने श्री
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग अजितसेन स्वामीसे श्रावकके व्रत स्वीकार किए थे। और वह परम सम्यक्त्वी श्रावक होगये थे । आचार्य आर्यसेनके निष्ट उन्होंने शस्त्र और शास्त्रज्ञानको ग्रहण किया था। किन्तु उनके जीवनसांचेको ठीक ठीक ढलनेवाले महानुभाव श्री नेमिचन्द्राचार्य ही थे। चामुण्डरायको अध्यात्म-ज्ञान इन्हींसे प्रप्त हुआ था। स्वयं भाचार्य. नेमिचन्द्रजी कहते हैं:
सिद्धन्तुदयतडुग्गयणिम्मलवरणेमिचन्द्रकरकलिया। गुणरयणभूसणंवुहिमइवेला भरउ भुवणयलं ॥९६७ ।।
अर्थात्-उनकी वचनरूपी किरणोंसे गुण रूपी स्त्नोंसे शोभित चामुण्डरायका यश जगतमें विस्तारित हो । इन बातोंसे यह सष्ट है कि चामुण्डरायने नियमितरूपमे ब्रह्मचर्याश्रममें विद्या और कलाका मध्ययन करके युवावस्थाको प्राप्त किया था और तब वह एक सफल गृहस्थ बने थे। उनका विवाह भनितादेवी नामक रमणीरत्नसे हमा था। इन्हीं देवीसे जिनदेवन् नामक एक धर्मात्मा और सज्जन पुत्र उन्हें नसीब हुमा था।
(५) गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके चामुण्डाय एक धर्मात्मा और वीर नागरिक बन गये थे। उनकी योग्यताने उन्हें गङ्गराजा. ओंके महामंत्रों और सेनापति जैसे उच्चादपर प्रतिष्ठित किया था। दूसरे शब्दोंमें कहें तो उस समय महीशूर देशके भाग्यविधाता चामुण्डराय थे। मालूम होता है उनकी इस श्रेष्ठताको लक्ष्य करकेती विद्वानोंने उन्हें " ब्रह्मक्षत्र-कुल-मानु"-"ब्रह्मक्षत्र-कुलमणि" भादि
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ११० विशेषणोंसे स्मरण किया है। शासनाधिकार जैसे महत्तर पदपर • पहुंचकर भी उन्होंने नैतिक आचरण का कभी भी उल्लंघन नहीं किया, तब भी उनके निष्ट पदारेषु मातृवत् और पाद्रव्येषु लोष्टवत्" की उक्ति महत्वशाली होरही थी। मरने ऐसे ही गुणोंक कारण वह -शौचाभरण कहे गये हैं। साथ ही खूबी यह है कि अपनी सत्य. निष्ठा के लिये वह इस कलिकाल में 'सत्य युधिष्ठि' कहलाते थे। वैसे उनके वैयक्तिक नाम 'चामुण्डराय' 'य' और 'गोम्मटदेव' थे, किंतु अपने वीचिन गुणों के कारण वह · वीर मार्तण्ड' मादि नामोंसे भी प्रख्यात थे। उनके पूर्वभव के सम्बन्धमें कहा गया है कि कृतयुग' में वह · सम्मुख ' के समान थे. त्रेत युगमें 'राम' के सदृश और कलियुगमें 'वीर मार्तण्ड ' हैं । इन वातोंसे उनके महान् . व्यक्तित्वका सहन ही अनुमान लगाया जासक्ता है ।
(६) श्री चामुण्डाय के प्रारम्भिक जीवन के विषय में थोड़ा बहुत वर्णन मिलता है किन्तु उनके गुरु श्री नेमीचन्द्राचार्य के सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता। उनके माता-पिता कौन थे ? उनका जन्म स्थान क्या था ? उन्होंने कहां किससे जिनदीक्षा ग्रहण की, यह कुछ भी मालूम नहीं होता । हां, उनके साधुनीवनकी जो घटनायें मिलती हैं उनसे उनका एक महान पुरुष होना सिद्ध है। वह मूलसंघ और देशीगण के आचार्य थे। ' गोम्भटसार' में उन्होंने -श्री अभयनंदि, श्री इन्द्रनंदि, श्री वीनंदि और श्री कनकनंदिको गुरुवत् स्मरण किया है; किन्तु उनके खास गुरु कौन थे, यह नहीं
कहा जाता।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
२११
तीसरा भाग (७) चामुण्डरायजीका श्री नेमिचंद्राचार्यसे घनिष्ट सम्पर्क था। जिनके घरमें आचार्य महाराजकी विशेष मान्यता थी। एक रोज भाचार्य महाराजने पौदनपुरके श्री गोम्मटेश्वरकी विशाल मूर्तिका वर्णन किया । उसका हाल चामुण्डरायकी माता पहलेसे सुन चुकी थी। उन्होंने निश्चय किया कि उस पावन-तीर्थकी यात्रा अवश्य वरूँगी । तदनुसार चामुण्डरायने यात्रा-संघ ले चलने का प्रबन्ध किया । आचार्य नेमिचन्द्र भी उसके साथ चले। जिस समय यह संघ श्रवणबेलगोलके निकट भाकर पड़ा, तो वहां मालूम हुमा कि पोदनपुरकी यात्रा सुगम नहीं है। वहांका मार्ग कुक्कट-सर्पाच्छन्न हो रहा है।
(८) धर्मवत्सल चामुण्डरायकी माला इन दुःखद समाचारोंको सुनकर खिन्नमना हुई; किन्तु श्री नेमिचन्द्राचार्य का योग तेज उनको ढ ढस बंधाने में सफल हुअ! । नेमिचन्द्रनीको श्री पद्मावती. देवीने आकर बताया कि जहां संघ ठहग हुआ है, वहीं निकटकी पहाड़ीपर रामरावणसे पूनी हुई एक प्राचीन विशालकाय बाहुबलिजीकी मूर्ति उकेरी हुई है । लोग उसे भूले हुये हैं। उसका उद्धार कराकर चामुण्डरायजीकी माताकी मनोकामना सिद्ध कराइये । श्री नेमिचन्द्राचार्य जीने उस दिन अपनी धर्मदेशनामें इस सत्यका उद्घाटन कर दिया। सारे संघके सदस्। यह वर्ष समाचार सुनकर प्रसन्न हो गए । चामुण्डरायने अपनी माताको संतुष्टि के लिए उस पर्वतपर स्थित प्राचीन मूर्तिका उद्धार करना प्रारम्भ करा दिया। ठीक समयपर एक विशालकाय मूर्ति वहां बनकर तैयार होगई ।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहाम। ११२
(९) भाचार्य महाराजने शुभ तिथि और वारको उसका प्रतिष्ठा- अनुष्ठान महोत्सव करानेका मादेश किया। श्री. अजित सेनाचार्य प्रतिष्ठा कार्यको सम्पन्न करनेको बुलाये गये। बड़ा भारी धर्मोत्सव हुमा । चामुण्डरायने माने जीवनको सफल बना लिया। यह चैत्र शुक्ल पंचमी इतवार ता०१३ मार्च सन् ९८१ ई०की सुखद घटना है। इसी रोज श्रवणबेलगोलकी लगभग ५८ फीट ऊंची विशाळ काय गोम्मट मूर्तिका उद्घाटन हुमा था; जो आज भी संसारमें चामुण्डरायके अमर नामकी कीर्ति फैला रही है और संपारकी अदभूत वस्तुओंमें एक है।
(१०) श्री गोम्मटेश्वरकी मूर्तिस्थापनाके कारण चामुण्डराय 'राय' नामसे प्रसिद्ध हुये और उन्होंने श्री नेमिचन्द्राचार्यजीकी पाद पूजा करके इस मूर्तिकी रक्षा और पूजाके लिये कई गांव उनकी भेट कर दिये । सचमुच चामुण्डरायकी यह मूर्तिस्थापना बड़े महत्त्वकी है। जैनधर्म विश्वकी सम्पत्ति है। जिनदेवका अवतरण प्राणीमात्रके हितके लिये होता है। उनकी पूजा अर्चना करने का अधिकार जीवमात्रको है। श्री चामुण्डराय इन बातों को अच्छी तरह जानते थे। उनकी यह मूर्तिस्थापना जैनधर्म के इस विशाल रूपको स्पष्ट प्रगट कर रही है। आज श्रवणबेलगोलके पवित्र जिनमंदिरोंके और खास कर गोम्मटेश्वरके दर्शन करने के लिए जैनी अनैनी, मारतवासी और विदेशी सब ही माते हैं और दर्शन करके अपनेको कृतकृत्य हुमा समझते हैं । वास्तवमें पुनीत धर्म-मावके साथ श्रवणबेलगोलके पुरातत्वकी शिरुषकका भी एक वर्शनी वस्तु है। यह सोने सुगंधि
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
Masmenys,
baertekenen
विका
Abayagyramdan
bjekt ku
behoren
Bidet FRE buskerrenceAct
इन
Tourtinet eneb
elle Pub
०किल
daciaralan
yste
ि
अपारकलाम
welsusteakuw
कायम
निि
abrbuar st
श्रीभाखकर
this fabeibiby
भोि
समताः।
195
રાઇમ ગાવલ
RESPE
Runek ju
GR
निनाद
Uthawks 200
श्रीदेवी
Pakkb
मानवाि
--------------------------------------------------------
म
श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ति और वीर मार्तड चामुंडरायजी ।
एसलाका
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग श्री चामुण्डराय और भाचार्य नेमिचन्द्रजीकी भतझ सूझकी सूचक है।
(११) आचार्य महोदय उनके धर्म कार्यों का वर्णन इस प्रकार करते हैं--- गोम्मटसंगहमुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य। गोम्मटरावविणिम्मियदक्षिण कुक्कडजिणो जयउ ॥१६८॥
अर्थ-'गोमटसार संग्रहरूप सूत्र' गोम्मट शिखरके ऊपर चामुंडराय राजाके बनवाये हुए जिवमंदिरमें विराजमाव एक हाथ प्रमाण इन्द्रनीलमणिमय नेमिनाथ तीर्थंकरदेवका प्रतिबिंब तथा उसी चामुंड. राय द्वारा निर्मापित लोकमें रूढिसे प्रसिद्ध दक्षिण कुक्कुट नामक. प्रतिबिंब जयवन्त प्रवर्ती।' 'जेण विणिम्मियपडिमावयणं सवसिद्धिदेवेहिं । सबपरमोहिजोगिहि दि सो गोम्मटो जयउ ॥ ९६९ ॥
अर्थ- जिस रायने बबवाई उस जिन प्रतिमाका मुख सर्वार्थसिद्धि के देवोंने तथा सर्वावधिके धारक योगीश्वरोंने देखा है। वह चामुंडराय सर्वोत्कृष्टपने प्रवतों ।' 'बज्जयणं जिणभवणं ईसिपभारं मुवण्णकलसं तु | तिहुवणपडिमाणिक्कं जेण कय जयउ सो राओ ॥९७०॥
अर्थ-जिसका भवनितल वज्र सरीखा है, जिसका ईषपाग्मार माम है, जिसके ऊपर सुवर्णमई कलश है, तथा तीन लोकमें उपमा देने योग्य ऐसा भद्वितीय जिनमंदिर निसने बनवाया वह चामुण्ड-- राय जयवंत होवो।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाबीन जैन इतिहास। ११४
'जेणुभियर्थभुवरिमजक्खतिरीटगकिरणजलधोया। सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ ॥ ९७१ ॥ ____ अर्थ-जिसने चैत्यालयमें खड़े किए हुए खमों के ऊपर स्थित जो यक्षके भाकार हैं, उनके मुकुटके मागेके भागकी किरणों रूप जलसे सिद्ध परमेष्ठियों के आत्मप्रदेशोंके भाकार रूप शुद्ध चरण धोये हैं, ऐसा चामुण्डराय जयको पाओ।'
(१२) इसप्रकार श्रवणबेलगोलको चामुंडरायने विपुल धन. राशि व्यय कुरके दर्शनीय स्थान बना दिया था। अपने इन धार्मिक कृत्योंके कारण ही चामुण्डराय जनसाधारणको प्रिय और धर्मप्रभावक थे। किन्तु उनके निमित्तसे संपन्न हुमा एक अन्य महत्वशाली कार्य विशेष उल्लेखनीय है । वह है श्री नेमिचन्द्राचार्य द्वारा उनके लिए "गोम्मटसार" सिद्धांतग्रन्थका रचा जाना। जैन दर्श के लिये यह भमूल्य रत्न-पिटक है। इसके अतिरिक्त श्री नेमिचन्द्राचायने और भी कई ग्रन्थोंका प्रणयन किया था, जिनमें उल्लेखनीय यह हैं
.. (१) द्रव्यसंग्रह, (२) कब्धिसार, (३) क्षणासार, (४) त्रिलोकसार, (५) प्रतिष्ठापाठ (?).
(१२) अपने गुरुके अनुरूप चामुण्डराय भी एक भाशु न्युकार थे । उन्होंने संस्कृत पकन और कनड़ी भाषा हरा कविता-कामिनीकी उपासना की थी। किन्तु उनकी रचनाओं में अब मात्र दो ही उपलब्ध हैं, (१) चारित्रप्तार और (२) त्रिषष्टिलक्षण पुराण । पहला संस्कृत भाषा में प्राचार ग्रन्थ है और दूसरा कनड़ी भाषाका पुराणग्रन्थ है, जो बेंगलो से छप चुका है। कहते हैं कि
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग चामुण्डरायने “गोम्नटसा" पर एक कन्डी टीका भी रची थी। सारांशतः श्री नेमिचन्द्राचार्य और श्री चामुण्डायने धर्मप्रभावनाके लिये कुछ उठा न रक्खा था !
(१४) किन्तु चामुण्डरायके जीवनका दुसरा पहल और भी मनूठा है। परमार्थका स धन करते हुये उन्होंने लोकसम्बंधी कार्योको भुला नहीं दिया था। वह पक्के कर्मवीर थे । गङ्गराज्यकी श्री-वृद्धि उनके बाहुबलकी साक्षी देही है। एक ब्रती श्रावक होते हुए भी उन्होंने सेनापतिके पदसे बडे २ युद्धोंका संचालन किया था। अपनी जननी जन्मभूमिके लिये वह दीवाने थे। उसकी मानरक्षा और यशविस्तार के लिए उनका तेगा हरसमय म्यानके बाहर रहता था। उनसे धर्मसूपके लिये यह कोई भनोखी बात नहीं है। क्योंकि जैन महिंसा किसी भी व्यक्ति के राष्ट्रधर्ममें बाधक नहीं है। जैन धर्म कहता है, 'पहले कर्मशूर बन जामो तभी तुम धर्मशूर बन सकोगे।' चामुण्डरायके महान् व्यक्तित्व में यह मादर्श जीताजागया दिखाई पड़ रहा है।
(१५) चामुण्डगयने अपने शत्रुओंको भनेकवार परास्त किया जरूर, किन्तु मकाण. मात्र द्वेषवश उनके प्राणोंको अपहरण नहीं किया । भाग्यवशात् रणक्षेत्र में कोई कालकवलित होगया तो बह दूमरी बात है । अत्याचारका निराकरण करने के लिये चामुण्ड. रायने गङ्गसैन्यको रण ङ्गणमें वीरोचित मार्ग सुझाया था। कहा गया है कि खेड़गकी कड़ाई में अत्याचारी विजलको हराकर चामुण्डरायने 'समरधुरंधर' की उपाधि प्राप्त की थी । नोलम्ब •णमें
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ११६ गोनुरके मैदान के बीच उन्होंने जो रण शौर्य प्रकट किया उसके कारण वह · वीर मार्तण्ड ' कहलाये । उच्छंगिके किलेको जीतकर वह ' रणरंगसिंह ' होगये और बागलूरके गोविंदराजको उसका मधिकारी बना दिया। इसलिए वह · वैरीकुलकालदण्ड' नामसे प्रसिद्ध हुए । कामराजके गढ़में उन्होंने जो विजय पाई, उसके उपलक्षमें वह भुजविक्रम कहलाये। नागवर्माको उसके द्वेषका उचित दण्ड देने के कारण वह ' छकदङ्कगङ्ग' विरुदसे विभूषित किये गये थे । गङ्गमट मुडु राचय्यको तलवारके घाट उतारनेके उपलक्षमें वह · समरपरशुराम' और 'प्रतिपक्ष राक्षस' उपाधियोंसे विभूषित हुए थे । भटवीरके किले का नाश करके वह 'मट मारि' नामसे प्रसिद्ध हुए थे। और चूंकि वह वीरोचित गुणोंको धारण करने में शक्य थे एवं सुझटोंचे महान् वीर थे, इसलिए वह क्रमशः 'गुणवम् काव' और 'सुभटचूड़ामणि' कहलाते थे। चामुण्डरायकी यह विरुदावळी उनके विक्रम और शौर्यको प्रष्ट करती है। सचमुच वह 'वीर-शिरोमणि' थे।
(१६) चामुण्डराय महान योद्धा और सेनापति ही नहीं बलिक राजमंत्री और उत्कृष्ट राजनीतिज्ञ भी थे। राजमंत्रीके पदसे उन्होंने किस ढङ्गसे गा राज्यकी शासन व्यवस्था की थी, उसको बतानेवाले यधपि पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं; किंतु यह प्रगट है कि उनके मंत्रित्व काल में देशमें विद्या, कला, शिल्प और व्यापारकी मच्छी उन्नति हुई थी। गङ्ग-राष्ट्र के लोगोंकी अभिवृद्धि विशेष होना चामुण्डरायके शासनकी सफलता और सुचारुताका प्रत्यक्ष प्रमाण
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाग
है। इस कालके बने हुए सुन्दर मन्दिर, भव्य मूर्तियां, विशाल सरोवर और उन्नत राजप्रासाद माज भी दर्शकोंके मन मोहलेते हैं।
(१७) गङ्ग राष्ट्र की उस समय अपने पड़ोसी राजाओं के प्रति जो नीति थी, उससे चामुण्डरायकी गहन राजनीतिका पता चलता है। उस समय राष्ट्रकूट राजाओंकी चलती थी। चामुण्डायने गङ्ग राजाओंसे उनकी मैत्री करा दी; बल्कि उनके लिये पई लड़ाइयां लड़कर उन्हें ग्ङ्गवंशका चिर ऋणी बना दिया। इस प्रकार युगप्रधान र ठौर राजाओंसे निश्चिन्त होकर उन्होंने रङ्ग राज्यकी भी वृद्धि की थी।
(१८ ) मंत्रीप्रवर चामुण्डरायके शासनकाल में जिस प्रकार गंगवाड़ि देशको अभिवृद्धि धन संपदा और कलाकौशलके द्वारा हुई थी, वैसे ही साहित्यकी उन्नति भी खूब हुई थी। सच पूछिये तो साहित्योन्नतिके विना देशोन्नति हो ही नहीं सक्ती । चामुण्डराय इस सत्यको अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने स्वयं साहित्य रचनाका महत्तर कार्य अपने सुयोग्य हाथोंसे सम्पन्न किया था। और तो और, युद्धक्षेत्रकी शिन्हीं शांत घड़ियों में भी वह साहित्यको नहीं भूले थे। कनड़ी चामुण्डरायपुराण युद्ध क्षेत्रमें ही उन्होंने रचा था। गंगवाड़ियोंमें कनड़ी भाषाकी ही प्रधानता थी और तब उसकी उन्नति भी खूब हुई। गंगराजाओं और चामुण्डरायने श्रेष्ठ कवियोंको अपनाकर उन्हें खासा प्रोत्साहन दिया। इनमें भादिपम्प, पोन्न, रण्ण और नागवर्म उल्लेखनीय हैं। कनड़ी साहित्य के साथ ही उससमय संस्कृत और प्राकृत साहित्यकी भी उन्नति यहां हुई थी।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। ११८ भाचार्य प्रवर मजितसेन, श्री नेमिचंद्रजी सिद्धांतचक्रवर्ती, माधवचंद्र त्रैवेद्य प्रभृति रद्भट विद्वानोंने अपनी अमूल्य रचनामोंसे इन भाषा
ओंके साहित्यको उन्नत बनाया था। इस साहित्योन्नतिसे भी चामुण्डरायके सर्वोग पूर्ण राजतंत्र व्यवस्थाका समर्थन होता है ।
(१९) श्री नेमिचन्द्राचार्य से उनका घनिष्ट सम्बन्ध था, यह पहले ही बताया जाचुका है। सचमुच जिस प्रकार गजप्रबंध और देशक्षा कार्यमें चामुण्डराय प्रसिद्ध थे, उसी प्रकार श्री नेमिचन्द्रचार्य धर्मोन्नति और शासक रक्षाके कार्यमें अद्वितीय थे । उस समय वह जैन धर्मके स्तंभ थे ! जैनदर्शनका मर्मज्ञ उनसा और कोई नहीं था। विद्वानोंने उन्हें । सिद्धांतचक्रवर्ती' स्वीकार किया था। उनकी कीर्तिगरिमाके सम्बन्धमें कविका निम्न पद्य दृष्टव्य है"सिद्धांताम्भोधिचन्द्रः प्रणुतपरमदेशीगणाम्भोधिचन्द्रः। स्याद्वादाम्भोधिचन्द्रः प्रकटितनयनिक्षेपवाराशिचन्द्रः ।। एनश्चक्रोधचन्द्रः पदनुतकमलवातचन्द्रः प्रशस्तो। जीयाज्ज्ञानाब्धिचन्द्रो मुनिपकुलवियच्चन्द्रमा नेमिचन्द्रः॥"
(२०) सच पूछिये तो भारतीय इतिहास इन दोनों नर-रत्नोंके प्रकाशसे प्रदीप्त होरहा है। भारतीय साधु सम्प्रदायमें श्री नेमिचन्द्रजीका नाम प्रमुख पंक्ति में स्थान पाने के योग्य है और चामुंडराय ? वह तो भारतीय वीरोंमें अग्रणी और श्रावक संघके मुकुट हैं। उनके जनहितके कार्य और सम्यग्दर्शनकी निर्मलता उन्हें ठीक ही 'सम्यक्त रत्नाकर' प्रगट करती है। वह एक ऊंचे दर्जेके धर्मात्मा, महान योद्धा, प्रतिभाशाली कवि, परमोदार दातार मौर सत्य युधिष्ठर थे
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
११९ तीसरा भाग
पाठ २९। श्रीमद्भट्टाकलङ्क देव। 'श्रीमद्भट्टाकलङ्कस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनेकांतमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥-ज्ञानार्णव ।
(१) दिगम्बर जैन सम्बदायमें समन्तभद्रस्वामीके बाद जितने नैयायिक और दार्शनिक विद्वान हुए हैं, उनमें अकलङ्कदेवका नाम सबसे पहले लिया जाता है। उनका महत्व केवल उनकी ग्रन्थ रचनाओं के कारण ही नहीं है, उनके अवतारने जैन धर्मकी तात्कालिक दशापर भी बहुत बड़ा प्रभाव डाला था। वे अपने समयके दिग्विजयी विद्व न थे। जैनधर्मके भनुयायियोंमें उन्होंने एक नया जीवन डाल दिया था। यह उन्हीं के जीवनका प्रभाव था जो उनके बाद ही कर्नाटक प्रांत में विद्यानंदि, प्रभाचन्द्र, माणिक्यनंदि, वादिसिंह, कुमारसेन जैसे बीसों तार्किक विद्वानोंने जैनधर्मको बौद्धादि प्रबल प्रतिवादियों के लिए मजेय बना दिया था। उनकी ग्रन्थ-रचयिताके रूपमें जितनी प्रसिद्धि है, उससे कहीं अधिक प्रसिद्ध वाग्मी ( वक्ता ) या वादीके रूपमें थी। उनको वक्तृत्व शक्ति या सभामोहिनी शक्तिकी उपमा दी जाती है । महाकवि वादिराजकी प्रशंसामें कहा गया है कि वे सभामोहन करनेमें मकलङ्क देवके समान थे।
(२) प्रसिद्ध विद्वान् होने के कारण अकलक देव 'भट्टाकलङ्क' के नामसे प्रसिद्ध थे। ' भट्ट' उनकी एक तरह की पदवी थी।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। १२० 'कवि' की पदवीसे भी वे विभूषित थे। यह एक मादरणीय पदवी थी जो उस समय प्रसिद्ध और उत्तम लेखकोंको दी जाती थी। लघु समन्तभद्र और विद्यानंदने उनको ' सकलतार्किकचक्रचूडामणि' विशेषण देकर स्मरण किया है। मकलङ्कचंद्रके नामसे भी उनकी प्रसिद्धि है।
(३) अ.लङ्कदेवको कोई जिनदास नामक जैन ब्राह्मण भौर कोई जिनमती ब्राह्मणिकाका पुत्र और कई पुरुषोत्तम मंत्री तथा पद्मावती मंत्रिणी का पुत्र बतलाते हैं; परन्तु ये दोनों ही नाम यथार्थ नहीं हैं। वे वास्तवमें राजपुत्र थे। उनके 'राजवातिकालङ्कार' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रथम अध्याय के अंमें लिखा है कि वे * लघुहन्य' नामक राजाके पुत्र थे:
जीयाचिरमकलङ्कब्रह्मालधुहन्यनृपतिवरतनयः । अनवरतनिखिलविद्वज्जननुतविद्यः प्रशस्तजनहृयः ॥
(४) कलङ्कदेवका जन्म स्थान क्या है, इसका पता नहीं चलता । तो भी मान्यखेटके आसपास उसका होना संभव है। क्योंकि मान्यखेट के राजाओंकी जो , चलाबद्ध नामावली मिलती है उसमें लघुहव्व नामक राजाका नाम नहीं है, इसलिये वह उसके भासपासके मांडलिक राजा होंगे । एकर वे राजा साहसतुंग या शुभतुंगकी राजधानी मान्यखेट में माये थे । इससे मालूम होता है कि मान्यखेटसे उनका संपर्क विशेष था। कनड़ी · राजावलीकथे' में भकलङ्कदेवका जन्म स्थान कांची ( कांजीवरम् ) बतलाया गया है। संभव है कि यह सही हो ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरा भाम (५) राजपुत्र मकलदेव जन्मसे ही ब्रह्मचारी थे। उन्होंने विवाह नहीं किया था। कथाग्रंथों में उनके एक भाई निष्कलङ्क और बताये गये हैं। यद्यपि कोई २ विद्वान उनके होने में शंका करते हैं । सो जो हो, कथाग्रन्थमें कहा है कि वे भी उनकी तरह ब्रह्मचारी थे। भालङ्कदेवके समयमें बौद्धधर्म जैन धर्मके साथ २ चल रहा था और जैनियोंसे उसकी स्पर्धा अधिक थी। जगह जगहपर जैनियोंको उससे मुकाबिला लेना पड़ता था। जैनधर्मका सिक्का जमाने के लिये तब एक बड़े तार्किक विद्वान्की मावश्यक्ता थी। मकलङ्कदेवने इस बात का अनुभव कर लिया और उन्होंने अपनेको इस पुनीत कार्यके लिए उम्तर्ग कर दिया।
(६) तब पोनतग* नामक स्थान में बौद्धोंका एक विशाल महाविद्यालय था। दूर दूरसे बौद्ध विद्यार्थी उसमें पढ़ने आते थे। भकरू देव भी उसी विद्यालय में प्रविष्ट होगये ! कथाग्रन्थ कहते हैं कि बौद्ध विद्यालय में प्रविष्ट होने के लिये उन्हें और उनके भाई निकलङ्कको बौद्ध भेष धारण करना पड़ा था। यह दोनों ही भाई तीक्ष्ण बुद्धि थे। इन्होंने शीघ्र ही न्याय मौर बौद्ध सिद्धांतका खासा ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक बार बौद्धगुरुको इनके बौद्ध होनेमें संदेह हो गया और उसने पता चला लिया कि वास्तवमें यह बौद्ध नहीं जैन हैं । जैन होने के कारण बौद्धगुरुने उन्हें कैद कर दिया; किंतु भकलङ्क निकलङ्क वहांसे निकल भागे। निकलङ्कने अपने भाई मकरकको जैनधर्म प्रभावनाके लिए सुरक्षित स्थानको भेज
* पोनतग वर्तमान 'ट्रिवटूर' स्थानके निकट बताया जाता है।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास। १२१ दिया और वह स्वयं बौद्धोंके कोपभाजन बन गये। धर्मके लिये वह अमर शहीद होगये।
(७) अकलङ्कदेव संसारके वैचित्र्यको देखकर विरक्तमन होगये । वह सुधापुर ( उत्तर कनाराका सोड ग्राम ) पहुंचे और वहां जैन संघमें सम्मिलित होगये । उन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण करली। विद्या और बुद्धि दोनोंमें वह भद्वितीय थे। यम-नियमके पालनमें भी उन्होंने विशेष संयम और धैर्य का परिचय दिया था और वह शीघ्र ही इस संघके आचार्य होगये थे। यह संघ " देवसंघ देशीयगण "के नामसे प्रसिद्ध था और अकलङ्कदेव तब इसके प्रमुख हुये थे।
(८) भकलङ्कदेव तब एक बड़े भारी नैयायिक और दार्शनिक विद्वान होगये। उनके व्यक्तित्वसे उस समयके जैन संघमें नवस्फूर्ति भागई । उनकी सबसे अधिक प्रसिद्धि इस विषयमें है कि उन्होंने अपने पांडित्यसे बौद्ध विद्वानोंको पराजित करके जैन धर्मकी प्रतिष्ठा स्थापित की थी। उनका एक बड़ा भारी शास्त्रार्थ राजा हिमशीतलकी सभामें हुआ था। हिमशीतल पल्लव वंशका राजा था। और उसकी राजधानी कांची (कांजीवरम्) में थी। वह बौद्ध था। किंतु उसकी एक रानी नैनी थी। वह धर्म प्रभावना करना चाहती थी। बौद्ध उनके मार्ग में कण्टक बन जाते थे । इसलिये उन्होंने भट्टाकलङ्कदेवको निमंत्रित करके इस शास्त्रार्थकी योजना करा दी । यह शास्त्रार्थ १७ दिनतक हुमा था और इसमें जैनधर्मको बड़ी भारी विजय प्राप्त हुई थी । राजा हिमशीतल स्वयं जैनधर्ममें दीक्षित होगया था और उसकी भाज्ञासे
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
तीसरा भाग बौद्ध लोग सीलोनके " वडी" नामक नगरको निर्वासित कर दिए गए थे। बौद्धोंके साथ शास्त्रार्थ होनेकी तथा उनके जीतनेकी घटनाका उल्लेख श्रवणबेगोककी मल्लिषेण प्रशस्तिमें इस प्रकार किया है:तारा येन विनिर्मिता घटकुटीगूढावतारासमं । बौद्धों धृतपीडपीडितकुदृग्देवार्थसेवाञ्जलिः ॥ प्रायश्चित्तमिवांघ्रिवारिजरजः स्नानं च यस्यास्वरदोषाणां सुगतः स कस्य विषयो देवाकलङ्कः कृती ।। यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्य निरवयविभवोपवर्णनमाकर्ण्यते:राजनसाहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः । किं तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः ॥ तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो । नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ॥ राजन्सर्वारिदर्पपविदलनपटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्धस्तद्वरख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिलमदोत्पाटने पंडितानां ।। नोचेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा संति संतो महांतो। वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिता शेषशास्त्रो यदि स्यात्।। नाहंकारवशीकृतेन मनसा न वषिणा केवलं । नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया ॥ राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदास प्रायो विदग्धात्मनो। बौद्धौघान्सकलान्विजित्य सुगतः पादेन विस्फोटितः ॥
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । १२४
भावार्थ- 'जिसने घडेमें बैठकर गुप्तरूपमें शास्त्रार्थ करनेवाली तारादेवीको बौद्ध विद्वानों के सहित परास्त किया। और जिसके चरणकमलोंकी रजमें स्नान करके बौद्धोंने अपने दोषोंका प्रायश्चित्त किया, उस महात्मा अकलङ्कदेवकी प्रशंसा कौन कर सक्ता है ?"
" सुनते हैं उन्होंने एकवार अपने अनन्य साधारण गुणों का इस तरह वर्णन किया था-"
" साहसतुंग (शुभतुंग) रेश, यद्यपि सफेद छत्रके धारण करनेवाले राजा बहुत हैं, परन्तु तेरे समान रणविजयी और दानी राजा और न हीं। इसी तरह पण्डित तो और भी बहुतसे हैं, परन्तु मेरे समान नाना शास्त्रों का जाननेवाला पण्डत, कवि, वादीश्वर और वाग्मी इस कलिकालमें और कोई नहीं !"
राजन् ! जिस तरह तू अपने शत्रुओंका अभिमान नष्ट करने में चतुर है उसी तरह मैं भी पृथ्वी के सारे पण्डितोंका मद उतार देने में प्रसिद्ध हूं। यदि ऐसा नहीं है तो तेरी सभामें जो भनेक बड़े विद्वान मौजूद हैं उनमें से किसीकी शक्ति हो तो मुझसे वाद करे ।"
"मैंने राजा हिमशीतल की सम में जो सारे बौद्धोंको हराकर तारादेवीके घड़ेको फोड़ डाला, सो यह काम मैंने कुछ अहंकारके वशवर्ती होकर नहीं किया, मेरा उनसे द्वेष नहीं है। किंतु नैरात्म्य (आत्मा कोई चीज नहीं है) मतके प्रचारसे लोग नष्ट हो रहे थे, उनपर मुझे दया भाई और इसके कारण मैंने बौद्धोंको पराजित किया।"
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२५
तीसरा भाग
(१०) अकलङ्कदेवके इस वक्तव्य से उनके हृदयकी विशालता, निर्भीकता और धर्म तथा परोपकारवृत्तिका खासा परिचय मिलता है। वह कितने सरल हैं, जो कहते हैं कि मुझे अभिमान और द्वेष छू नहीं गया है- मैंने जीवोंके कल्याणके लिए ही बादमेरी बजायी है । और उनकी निर्भीकता तो देखिये । निःशङ्क और अम्ले राजाओं के दरबार में वह पहुंचते हैं और विद्वानों को शास्त्रार्थकेलिए चुनौती देते हैं । सचमुच वह नर- शार्दूल थे । जैनधर्मका सिक्का उन्होंने एक बार फिर भारतमें जमा दिया था । वैसे उनके पहले से ही वह दक्षिण भारत में मुख्य स्थान पाये हुये था ।
किंतु कङ्कदेवने अपने वचन और बुद्धिसे ही धर्मोत्कर्ष नहीं किया था, बल्कि ग्रंथ रचना करके उन्होंने स्थायी रूपमें प्रभावनाको मूर्तिमान बना दिया है। एक समयके नहीं अनेक समयके लोग उनकी मूल्यमयी रचनाओंसे लाभ उठाकर भात्मकल्याण कर सकेंगे । यह उनका कितना महान् उपकार है ! उनकी ग्रन्थ रचनायें निम्नप्रकार हैं:
१. अष्टशती - अक्कलङ्क देवका यह सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है । समन्तभद्रस्वामीके देवागम का यह भाष्य है ।
२. राजवार्तिक- यह उमास्वामिके ' तत्वार्थसूत्र ' का भाष्य है । इसकी लोकसंख्या १६००० है ।
३. न्यायविनिश्चय-न्यायका प्रामाणिक ग्रन्थ समझा जाता है ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैन इतिहास । १२६
४. रूघीयत्रयी-प्रमाचंद्रका 'न्यायकुमुद चन्द्रोदय ' इसी अंथका भाष्य है।
५. बृहत्त्रयी-वृद्धत्रयी भी शायद इसीका नाम है। ६. न्यायचूलिका-ग्रंथ भी माल देवका रच। हुमा है। ७. अकलकस्तोत्र-या मालकाष्टक एक श्रेष्ठ स्तुतिग्रंथ है ।
(११) भकलङ्कदेवके महान् मध्यवप्तायसे उस समय दक्षिणभारत जैन विद्वानोंकी विद्वत् प्रभासे चमत्कृत होरहा था। स्वयं अकलङ्क क्षेत्र ही कितने ही सप्रतिम शिष्य थे। श्री माणिक्यनन्दि, विद्यानंद. पुष्पपेण, वीरसेन, प्रमाचंद्र, कुमारसेन और वादीमसिंह भाचार्य उनमें उल्लेखनीय हैं । किंतु इन सबमें वृद्धत्वका मान भकल करेवको ही प्राप्त है !
(१२) मकर देवने साहसतुङ्ग राजाकी राजसभाको सुशोभित किया था, जिसका संवत् ८१० से ८३२ तक राज्य करने का उक्केख मिलता है। अतः यह कहा जासक्ता है कि अकरदेव ८१० से ८३२ तक किसी समय में जीवित थे और उनका मस्तिस्वकाल विक्रमकी नवीं शताब्दिका प्रारम्भिक समय है।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
_