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________________ प्राचीन जैन इतिहास । १०२ माई न बना सकी थी, किंतु दिगम्बर मुनि वेषको सादर त्याग करते हुए उनकी आंखें डबडबा गई यह बड़ा ही करुण दृश्य था, परन्तु धर्मके लिये न करने योग्य कार्य भी एकवार करना पड़ता है। यही सोचकर स्वामीनी शांत होगये। उन्होंने कहा, 'भले ही जाहिरा मैं भस्म रमाये वैष्णव सन्यासी दीखता हूं, परन्तु भावोंमें- असल में मैं दिगम्बर साधु ही हूं।' हृदयमें जैनधर्मकी दृढ़ श्रद्धाको लिये हुये स्वामीजी मणुवक हल्ली से चलकर कांची पहुंच गये । सच है, माचरणसे भ्रष्ट हुआ मनुष्य भ्रष्ट नहीं होतावह अवश्य ही सम्यग्दर्शनकी महिमासे सिद्धपदको पालेता है, किंतु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हुए व्यक्ति के लिये कहीं भी ठिकाना नहीं है । वही वस्तुतः भ्रष्ट है और उसका अनंत संसार है । धर्मके लिये स्वामीका यह त्याग वास्तवमें चरमसीमाका था। (१०) कांची में उस समय शिवकोटि नामक राना राज्य करता था । —भीमलिंग' नामका उसका एक शिवालय था। समंतभद्रजी इसी शिवालयमें पहुंचे और उन्होंने राजाको आशीर्वाद किया तथा वह बोले- राजन् ! मैं तुम्हारे नैवेद्यको शिवार्पण करूंगा।" राजा यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। सवा मनका प्रसाद शिवार्पण के लिये भाया । मतभद्र उस भोजनके साथ अकेले मंदिर में रह गये और उन्होंने सानंद अपनी जठराग्निको शांत किया। उपरांत दरवाजा खोल दिया। संपूर्ण भोजनकी समाप्तिको देखकर राजाको बड़ा ही माश्चर्य हुआ। वह बड़ी भक्तिसे और भी अच्छे भोजन शिवार्पण के लिये भेजने लगा। किंतु अब स्वामीकी जठरामि
SR No.022685
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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