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________________ आचीन जैन इतिहाम। ९६ वाचक कहलाते थे और उन्होंने तत्वार्यसूत्र' की रचना कुसुमपुर नामक नगरमें की यी! (४) दिगंबर शात्रोंमें उनके गृहस्थ जीवनको कुछ भी पता नहीं चलता है। साधु रूपमें वह श्री. कुंदकुंदाचार्यके पट्ट शिष्य बताये गये हैं और श्री तत्वार्थसूत्र' की रचनाके विषय में कहा गया है कि सौराष्ट्र देशके मध्य ऊर्जयंत गिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें मासन्न भव्य, स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न श्वेतांबर भक्त सिद्धय्य' नामक एक विद्वान श्वेतांवर मत के अनुकूल सकल शास्त्रका जाननेवाला था। उसने — दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः '' यह एक सुत्र बताया और उसे एक पाटियेपर लिख छोड़ा। एक समय चर्यार्थ श्री गृद्धपिच्छाचार्य 'उमास्वामि' नामके धारक मुनिवर वहांपर माये और उन्होंने माहार लेने के पश्च त्. पाटियेको देखकर उसमें उक्त सूत्र के पहले “सम्यक् ' शब्द जोड़ दिया । जब वह सिद्धय्य विद्वान वहांसे अपने घर माये और उसने पाटियेपर - सम्यक् ' शब्द लगा देखा, तो उसने प्रसन्न होकर अपनी मातासे पूछ। कि, किस. महानुभावने यह शब्द लिखा है ? ताने उत्तर दिया कि एक महानुभाव निर्ग्रन्थाचार्य ने यह बनाया है। इसपर वह गिरि और अरण्यको ढूंढ़ता हुआ उन के पाश्रममें पहुंचा और भक्तिभारसे नम्रीभूत होकर उक्त मुनिमहारानसे पुछने लगा कि आत्माका हित क्या है ? मुनिराजने कहा, 'मोक्ष है। इसपर मोक्षका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय पूछा गया, जिसके उत्तररूपमें ही इस ग्रंथका अवतार हुमा है। इसी कारण ० एका अपा 91 प।
SR No.022685
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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