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________________ १०७ तीमरा भाग इसप्रकार हैं:-१-आप्तमीमांसा, २-युक्त्यनुशासन, ३-स्वयंभूस्तोत्र, ४-जिन स्तुतिशतक ५-रत्नकरण्डक उपासकाध्ययन, ६-जीव. सिद्धि, ७-तत्त्वानुशासन, ८-प्र.कृत व्याकरण, ९-प्रमाणपदार्थ, १०--मेर भृत टीका और ११-गंधहस्तिमहाभाष्य । यह महा. भाष्य आन दुर्लभ है, फिर भी इन ग्रन्थरत्नोंसे स्वामी जी की अमरकीर्ति संमार में चि स्थायी है। (१६) स्वामीजी के प्रारम्भिक जीवनकी तरह ही उनका अंतिम जीवन मी अंघकारके पर्दमे छिा हुआ है। हां, यह स्पष्ट है कि उनका अस्तित्व समय शक सं० ६० (ई० सन् १३८) था और वह एक बड़े योगी और महात्मा थे। उनके द्वारा धर्म, देश तथा समाजकी सेवा विशेष हुई थी। पाठ २८ । श्री नेमिचंद्राचार्य और वीरशिरोमणि वीरमातड चामुंडराय। (१) दक्षिण भारत के जैन इतिहासमें आचार्य प्रवर श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती और बीर शिरोमण च मुण्डरायके नाम स्वर्णाक्षरों में अङ्कित हैं । इन दोनों महानुभावों का पारस्परिक संबंध भी घनिष्ट है। सच पूछिये तो श्री नेमिचन्द्र रूपी विद्यावारिधिसे यह चामुण्डराय सदृश बिद्यारत्न उत्पन्न हुआ है। (२) चामुण्डरायके जमाने में महीशा ( Mysore ) देश
SR No.022685
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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