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________________ तीसरा भाग भाग्यशाली था। वह बचपनसे ही असाधारण व्यक्तित्व बनाये हुये था । देखते ही देखते वह सब विद्याओं और कलाओंमें निपुण होगया । धर्मात्मा माता-पिताओंका पुत्र भला धर्म-कर्मका मोही भी क्यों न होता ? जैन धर्ममें उसकी विशेष भास्था थी। उसका चित्त संसारसे विरत और परमार्थमें रत रहता था ! (६) एक दिन श्री जिनचन्द्राच र्यका विहार करमुण्ड सेठके गांवमें हुमा । सेठ सेठानी पुत्र सहित भाचार्य महाराजकी वन्दना करने गये । उन्होंने मुनिराजकी धर्म-देशना सुनी । सेठपुत्र प्रति-बुद्ध होगये । वह घर न लौटे। माता-पितासे माज्ञा लेकर मुनि होगये। मुनि दशामें उन्होंने घोर तपश्चरण किया । मलय देशके अन्तर्गत हेम ग्राम (पोन्ना ) के निकट स्थित नीलगिरी पर्वत उनकी तपस्यासे पवित्र हो चुका है। पहाड़की चोटीपर उनके चरण-चिह्न भी विद्यमान हैं। (७) उस समय कांचीपुर दक्षिण भारतमें जैनधर्मका केन्द्र था। साधु कुंदकुंदका अधिक समय संभवतः यहीं व्यतीत हुभा था। पट्टावलियोंमें उन्हें श्री जिनचन्द्राचार्यका शिष्य लिखा है और बताया है कि ई० पूर्व सन् ८ में उन्हें आचार्य पद प्राप्त हुआ। था। इस अवस्थामें उनका जन्म ई० पूर्व सन् ५२ में हुमा समझना चाहिये; क्योंकि पट्टावलीके अनुसार वह ११ वर्ष गृहस्थ दशामें और ३३ वर्ष साधु रूपमें रहे थे। आचार्यपदपर वह लगभग ९६ वर्षकी दीर्घायु उन्होंने पाई थी। (८) कुन्दकुन्दाचार्यने. एक दिन ध्यानमें विदेह देशमें
SR No.022685
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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