Book Title: Prachin Jain Itihas Part 03
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 142
________________ १२५ तीसरा भाग (१०) अकलङ्कदेवके इस वक्तव्य से उनके हृदयकी विशालता, निर्भीकता और धर्म तथा परोपकारवृत्तिका खासा परिचय मिलता है। वह कितने सरल हैं, जो कहते हैं कि मुझे अभिमान और द्वेष छू नहीं गया है- मैंने जीवोंके कल्याणके लिए ही बादमेरी बजायी है । और उनकी निर्भीकता तो देखिये । निःशङ्क और अम्ले राजाओं के दरबार में वह पहुंचते हैं और विद्वानों को शास्त्रार्थकेलिए चुनौती देते हैं । सचमुच वह नर- शार्दूल थे । जैनधर्मका सिक्का उन्होंने एक बार फिर भारतमें जमा दिया था । वैसे उनके पहले से ही वह दक्षिण भारत में मुख्य स्थान पाये हुये था । किंतु कङ्कदेवने अपने वचन और बुद्धिसे ही धर्मोत्कर्ष नहीं किया था, बल्कि ग्रंथ रचना करके उन्होंने स्थायी रूपमें प्रभावनाको मूर्तिमान बना दिया है। एक समयके नहीं अनेक समयके लोग उनकी मूल्यमयी रचनाओंसे लाभ उठाकर भात्मकल्याण कर सकेंगे । यह उनका कितना महान् उपकार है ! उनकी ग्रन्थ रचनायें निम्नप्रकार हैं: १. अष्टशती - अक्कलङ्क देवका यह सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है । समन्तभद्रस्वामीके देवागम का यह भाष्य है । २. राजवार्तिक- यह उमास्वामिके ' तत्वार्थसूत्र ' का भाष्य है । इसकी लोकसंख्या १६००० है । ३. न्यायविनिश्चय-न्यायका प्रामाणिक ग्रन्थ समझा जाता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 140 141 142 143 144