Book Title: Prachin Jain Itihas Part 03
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 119
________________ प्राचीन जैन इतिहास | १०४ ( ११ ) इस प्रकार स्वामीजीका आपत्काल शीघ्र नष्ट होगया और देहके स्वस्थ्य होजानेपर उन्होंने फिरसे जिनदीक्षा धारण कर की। वह फिर घोर तपश्चरण और यम-नियम करने लगे । उन्होंने शीघ्र ही ज्ञान-ध्यान में अपार शक्ति संचय कर ली । अब वे आचार्य होगये और लोग उन्हें जिन शासनका प्रणेता कहने लगे । वे 'गणतो . णीशः' अर्थात् गणियों यानी माचार्यों के ईश्वर (स्वामी) रूप में प्रसिद्ध होगए । 1 ( १२ ) स्वामी भी जैनधर्म और जैन सिद्धांत के अगाध मर्मज्ञ थे। इसके सिवाय वह तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यकोषादि विषयों में पूरी तौर से निष्णात थे। जैन न्यायके तो वह स्वामी थे और उन्हें 'न्याय तीर्थंकर' कहना उचित है । सचमुच खामीजीकी अलौकिक प्रतिमाने तात्कालिक ज्ञान और विज्ञान के प्रायः सब ही विषयोंपर अपना अधिकार जमा लिया था । यद्यपि वह संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी और तामिल आदि कई भाषाओंके पारंगत विद्वान थे, परन्तु संस्कृतका उनको विशेष अनुराग था । दक्षिण भारत में उच्चकोटि के संस्कृत ज्ञान के प्रोत्तेजन, प्रोत्साहन और प्रसरण में उनका नाम खास तौर से लिया जाता है । स्वामीजीके समय से संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक खास युगका प्रारम्भ होता है और इसीसे संस्कृत साहित्य में उनका नाम अमर है। सचमुच स्वामीजीकी विद्याके आलोक में एक बार सारा भारतवर्ष आलोकित होचुका है। देशमें जिससमय बौद्ध दिक्कों का प्रबल अातंक छाया हुआ था और लोग उनके नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, क्षणिकवादादि सिद्धांत से संत्रस्त थे

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