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तीसरा भाग अजितसेन स्वामीसे श्रावकके व्रत स्वीकार किए थे। और वह परम सम्यक्त्वी श्रावक होगये थे । आचार्य आर्यसेनके निष्ट उन्होंने शस्त्र और शास्त्रज्ञानको ग्रहण किया था। किन्तु उनके जीवनसांचेको ठीक ठीक ढलनेवाले महानुभाव श्री नेमिचन्द्राचार्य ही थे। चामुण्डरायको अध्यात्म-ज्ञान इन्हींसे प्रप्त हुआ था। स्वयं भाचार्य. नेमिचन्द्रजी कहते हैं:
सिद्धन्तुदयतडुग्गयणिम्मलवरणेमिचन्द्रकरकलिया। गुणरयणभूसणंवुहिमइवेला भरउ भुवणयलं ॥९६७ ।।
अर्थात्-उनकी वचनरूपी किरणोंसे गुण रूपी स्त्नोंसे शोभित चामुण्डरायका यश जगतमें विस्तारित हो । इन बातोंसे यह सष्ट है कि चामुण्डरायने नियमितरूपमे ब्रह्मचर्याश्रममें विद्या और कलाका मध्ययन करके युवावस्थाको प्राप्त किया था और तब वह एक सफल गृहस्थ बने थे। उनका विवाह भनितादेवी नामक रमणीरत्नसे हमा था। इन्हीं देवीसे जिनदेवन् नामक एक धर्मात्मा और सज्जन पुत्र उन्हें नसीब हुमा था।
(५) गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके चामुण्डाय एक धर्मात्मा और वीर नागरिक बन गये थे। उनकी योग्यताने उन्हें गङ्गराजा. ओंके महामंत्रों और सेनापति जैसे उच्चादपर प्रतिष्ठित किया था। दूसरे शब्दोंमें कहें तो उस समय महीशूर देशके भाग्यविधाता चामुण्डराय थे। मालूम होता है उनकी इस श्रेष्ठताको लक्ष्य करकेती विद्वानोंने उन्हें " ब्रह्मक्षत्र-कुल-मानु"-"ब्रह्मक्षत्र-कुलमणि" भादि