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तीसरा भाग चामुण्डरायने “गोम्नटसा" पर एक कन्डी टीका भी रची थी। सारांशतः श्री नेमिचन्द्राचार्य और श्री चामुण्डायने धर्मप्रभावनाके लिये कुछ उठा न रक्खा था !
(१४) किन्तु चामुण्डरायके जीवनका दुसरा पहल और भी मनूठा है। परमार्थका स धन करते हुये उन्होंने लोकसम्बंधी कार्योको भुला नहीं दिया था। वह पक्के कर्मवीर थे । गङ्गराज्यकी श्री-वृद्धि उनके बाहुबलकी साक्षी देही है। एक ब्रती श्रावक होते हुए भी उन्होंने सेनापतिके पदसे बडे २ युद्धोंका संचालन किया था। अपनी जननी जन्मभूमिके लिये वह दीवाने थे। उसकी मानरक्षा और यशविस्तार के लिए उनका तेगा हरसमय म्यानके बाहर रहता था। उनसे धर्मसूपके लिये यह कोई भनोखी बात नहीं है। क्योंकि जैन महिंसा किसी भी व्यक्ति के राष्ट्रधर्ममें बाधक नहीं है। जैन धर्म कहता है, 'पहले कर्मशूर बन जामो तभी तुम धर्मशूर बन सकोगे।' चामुण्डरायके महान् व्यक्तित्व में यह मादर्श जीताजागया दिखाई पड़ रहा है।
(१५) चामुण्डगयने अपने शत्रुओंको भनेकवार परास्त किया जरूर, किन्तु मकाण. मात्र द्वेषवश उनके प्राणोंको अपहरण नहीं किया । भाग्यवशात् रणक्षेत्र में कोई कालकवलित होगया तो बह दूमरी बात है । अत्याचारका निराकरण करने के लिये चामुण्ड. रायने गङ्गसैन्यको रण ङ्गणमें वीरोचित मार्ग सुझाया था। कहा गया है कि खेड़गकी कड़ाई में अत्याचारी विजलको हराकर चामुण्डरायने 'समरधुरंधर' की उपाधि प्राप्त की थी । नोलम्ब •णमें