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तीसरा भाग
घबरा रहे थे, अथवा उन एकांत गोंमें पड़कर अपना आत्मपतन करने के लिये विवश हो हे थे, उस समय दक्षिण भारत उदय होकर स्वामीजीने जो लोकसेवा की है वह बड़े ही महत्वकी तथा चिरस्मरणीय है और इसलिए श्री शुभचंद्राचार्यने जो भापको 'भारतभूषण, लिखा है वह बहुत ही युक्तियुक्त जान पडता है !
(१३ ) समन्तभद्राचार्यजीकी लोकसेवाका कार्य केवल दक्षिण भारतमें ही सीमित नहीं रहा था। उनकी वादशक्ति अपतिहत थी और उन्होंने वई वार गे बदन देशके इस छोरसे उस छोर तक घूमकर मिथ्यावादियोंका गर्व खण्डित किया था। स्वामीजी महान योगी थे। कहते हैं कि उनको योगवलके प्रतापसे 'चारणऋद्धि' प्राप्त थी, जिसके कारण वे अन्य जीवोंको बाधा पहुंचाये विना ही सैकड़ों कोसोंकी यात्रा शीघ्र कर लेते थे। इस कारण समंतभद्र भारतके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर प्रायः सभी देशोंमें एक अपतिद्वंदि सिंहकी तरह क्रीडा करते हुए, निर्भयताके साथ वाद के लिये घूमे थे । एक वार वह घूमते हुए 'करहाटक' नगरमें भी पहुंचे थे। जिसे कुछ विद्वानोंने सतारा जिलेका माधुनिक 'कराड' और कुछने दक्षिण महाराष्ट्र देशका 'कोल्हापुर नगर बतलाया है। और जो इस समय बहुत से भटों ( वीर योद्धाओं ) से युक्त था। विद्याका उत्कट स्थान था और जनाकीर्ण था। उस वक्त उन्होंने वहांके राजापर अपने वाद प्रयोजनको प्रकट करते हुए, उन्हें अपना तद्विषयक जो परिचय एक पद्यमें दिया था, वह श्रवणबेलगोलके ५४ वें शिलालेख में निम्नश्कारसे संग्रहीत है: