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प्राचीन जैन इतिहाम।
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पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे मेरी मया ताडिता, पश्चान्मालबसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरी वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥
'इस पद्यमें दिये हुए मात्म-परिचयसे यह मालूम होता है कि 'करहाटफ' पहुंचने से पहले समंतभद्रने जिन देशों तथा नगरोंमें बादके लिए विहार किया था, उनमें पाटलीपुत्र नगर, मालव, सिन्धु तथा टक्क (पंजाब) कांचीपुर और वैदिशा (भिलसा), ये प्रधान देश तथा जनपद थे, जहां उन्होंने वादकी भेरी बजाई थी और जहांपर किसीने भी उनका विरोध नहीं किया था।
(१४ ) समंतभद्रजीकी इस सफलताका सारा रहस्य उनके मन्तःकरण की शुद्धता, चारित्रकी निर्मलता और उनकी वाणीके मह. त्वमें सन्निहित है। स्वामीजीने गजसी भोगोपभोग और ऐश्वर्यको लात मारकर निग्रन्थ साधु का पद ग्रहण किया था। फिर भला उनके हृदयमें भहंकारकी नीच भावना कैसे स्थान पासक्ती थी ? उनकी वागिण लोकहित के लिए होती थी। इसी लिए वह सर्वमान्य थे। सच पूछिये तो स्वात्महित साधनके साथ २ दुसरेका हितसाधन करना ही स्वामीजीका प्रधान कार्य था और बड़ी योग्यताके साथ उन्होंने इसका संपादन किया था। ऐसे महान् मात्मविजयी वीरपर भारत. वासी जितना गर्व करें थोड़ा है !
(१५) स्वामीनीने लोकहित कार्यके साथ२ जो श्रेष्ठ साहित्य रचना की थी, उसमें के कुछ रत्न भब भी मिलते हैं । मुख्यतः वे