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तीसरा भाग
नाओं का चिंतन करते रहे । किन्तु रोग उत्तरोत्तर बढ़ता गया
और स्वामीजीके लिये वह असह्य होगया। उनकी दैनिक चर्याम भी बाधा पड़ने लगी । स्वामी जीने देखा कि अब उनके लिये शास्त्रोक्त मुनि जीवन बिताना असम्भव है, इसलिये उन्होंने सल्ले. खना' व्रत अंगीकार कर लेना उचित समझा। शरीर के लिये अपने धर्मको छोड़ देना उनके लिए एक अनहोनी बात थी। अपने गुरुसे यह व्रत ग्रहण करने की आज्ञा मांगी । वयोवृद्ध तपोरत्न गुरुमहाराज कुछ देर तक मौन रहकर स्वामीजीकी ओर देखते रहे। उन्होंने अपने योगबल से जान लिया कि समन्तभद्र अल्पायु नहीं हैं; बल्कि उनके द्वारा धर्म और शासनके उद्धारका महन् कार्य होने को है। बस, उन्होंने समन्तभद्रको सल्लेखना करने की माज्ञा नहीं दी; प्रत्युत भादेश किया कि जिस वेशमें जैसे हो रोगके शांत करने का उपाय करो। क्योंकि रोगके शांत होनेपर पुनः प्रायश्चित्त पूर्वक मुनिधर्म धारण किया जाता है । गुरुमहाराजका यह मादेश गंभीर और दूरदर्शिता एव लोकहितकी दृष्टिको लिये हुए था। शरीर ही तो धर्मकार्य करने का मुख्य साधन है । यदि किसी उपाय द्वारा वह साधन प्राप्त होमक्ता और उसके द्वारा धर्मका महान उत्कर्ष होसक्ता हो, तो बुद्धिमत्ता इसीमें है कि शरीरको उपयुक्त बनालेने का उपाय करे।
(९) समंतभद्रजीने गुरुजीकी आज्ञाको शिरोधार्य किया। उन्होंने परम श्रेष्ठ दिगम्बर वेषको त्यागकर अपने शरीरको भस्मसे माच्छादित बना लिया। भस्मक रोगकी व्याधि उनके नेत्रों को