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प्राचीन जेन इतिहास। १००
(७) जैन साधु होकर स्वामीजीने गहन तपश्चरण और अटूट ज्ञान संचय करने में समय व्यतीत किया था । उन्होंने दिगम्बर साधुका पवित्र भेष मात्र दिखावे अथवा ख्यातिलाभ या अन्य किसी लालचसे धारण नहीं किया था और न उन्होंने कभी किसी मन्य व्यक्तिकी चापलूसीमें भाकर अथवा इन्द्रियोंके विषयमें गृद्ध होकर मुनिपदको लाञ्छित ही किया था। उन्होंने ऐसे मोही मौर नामके द्रव्य लिङ्गी मुनि भेषियोंकी अच्छी भार्सना की है। उनका मत था कि " निर्मोही ( सम्यग्दृष्टि) गृहस्थ मोक्षमार्गी है, परन्तु मोही मुनि मोक्षमार्गी नहीं, और इसलिये मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ।' उनका साधु जीवन, उनकी इस उक्तिका मच्छ। प्रतिबिंब है।
(८) स्वामीजीके शांत और ज्ञानमय साधु जीवन में उनपर एक वार अचानक विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा था। स्वामीजी मणुवकहल्ली ग्राममें विचर रहे थे। एकाएक पूर्व संचित असाता वेदनीय कर्मके तीव्र उदयसे उनके शरीर में 'भस्म' नामक महा रोग उत्पन्न होगया। स्वामीजीको शरीरसे कुछ ममत्व तो था नहीं, शुरू २ में उन्होंने इस रोगकी जरा भी परवाह न की! क्षुबातृषा परीषहोंकी तरह वे इसको भी सहन करने लगे। किंतु सामान्य क्षुधा और इस · भस्म क्षुधा में बड़ा भन्तर था । उपरांत समन्तभद्रजीको इससे बड़ी वेदना होने लगी। उसपर भी उन्होंने न तो किसीसे दुवारा भोजनकी बाचना की और न स्निग्ध व गरिष्ठ भोजनके तैयार करने के लिये प्रेणा की। बल्कि वस्तुस्थितिको विचार कर वे मनित्यादि भाव