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प्राचीन जैन इतिहास । ९४ कुन्दकुन्दाचार्यके ये ग्रन्थ ही मागम ग्रन्थ होरहे हैं और इसीसे इन ग्रन्थों का महत्व स्पष्ट है।
(१३) एक दफा श्री कुंदकुंदाचार्य एक बड़ासा संघ लेकर, 'जिसमें ५९४ तो मुनि ही थे, श्री गिरनारजीकी यात्राके लिये वहां पहुंचे थे। उसी समय श्वेताम्बर संप्रदायका भी एक संघ शुक्लाचा. यकी अध्यक्षतामें वहां भाया था। श्वेताम्बर लोग चाहते थे कि पहले हमारा संघ यात्रा करे क्योंकि वही प्राचीन जैन संपदाय है ! इसपर कुंदकुंदाचार्या शास्त्रार्थ शुक्लाचार्यसे हुमा, जिसमें कुंदकुंदाचार्यके मंत्रबलसे ' सरस्वतीदेवी' ने कहा कि दिगम्बर मत ही प्राचीन है और तब दिगम्बर संघने ही पहले पर्वतकी यात्रा की । इसी समय कुंकुंद स्वामीने अपने कमण्डलुमें कमल-पुष्प प्रगट करके लोगोंको चकित किया था। इस कारण वह 'पद्मनंदि' नामसे प्रसिद्ध होगये थे।
(१४) उपरांत अनेक देशोंमें विहार करके और मुमुक्षुओं को जैनधर्मकी दीक्षा देते हुए श्री कुंदकुंदाचार्य दक्षिण भारतको लौट गये। वहां अपना निकट समय जानकर वह योग-निरत होगये । ध्यान-खड्ग लेकर कर्मशत्रुओंसे वह बड़ने लगे। वह सच्चे मात्म वीर थे और थे युग-प्रधान महापुरुष । माखिर सन् ४२ के लगभग वह इस नश्वर शरीरको त्यागकर स्वर्गधाम सिधार गये।