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प्राचीन जैन इतिहास । ७८० बालक पालने में झूल रहा था। वह अभी बोलना नहीं जानता था, -इन्हें घरमें पांव देते देख वह सहसा बोल उठा। जाइये ! महाराज, जाइये !! एक अबोध बालकको बोलता देख आचार्य बड़े चकित हुए। उन्होंने निमित्त ज्ञानसे विचार किया तो उन्हें जान पड़ा कि यहां बारह वर्षका भयानक दुर्भिक्ष पड़ेगा और धर्म कर्मकी रक्षा करना तो दूर रहा, मनुष्योंको कपनी जान बचाना कठिन होगा।
(८) भद्रबाहु भाचार्य उसी समय अन्तराय कर लौट • आए। इसी दिन कार्तिक शुक्ला पूर्णिमाके दिन महाराजा चन्द्रगुप्तने १६ स्वप्न देखे । उनमें मन्तिम स्वप्न एक १२ फणका सर्प देखा तब महाराजने श्री भद्रबाहुस्वामीसे उन स्वप्नों का फल पूछा तो स्वामीने अन्तिम स्वप्नका फल उत्तर भारतमें बारह वर्षका धोर दुर्भिक्ष बताया।
(९) भद्रबाहुस्वामीने संध्या के समय अपने सारे संघको इकट्ठा कर उनसे कहा कि यहां बारह वर्षका बड़ा भारी अकाल पड़नेवाला है। तब धर्म कर्मका निर्वाह होना कठिन ही नहीं मसंभव हो जायगा। इसलिये भाप लोग दक्षिण दिशाकी ओर जावें । मेरी मायु थोड़ी रह गई है । इसलिए मैं यहीं रहूंगा। यह कहकर उन्होंने दश पूर्वके जाननेवाले अपने प्रधान शिष्य श्री विशाखाचार्य को चारित्रकी क्ष के लिए बारह हजार मुनियों सहित दक्षिण चोलपाण्डकी ओर रवाना कर दिया।
(१०) रामल्प, रथूनाचार्य और स्थूलभद्र मावि मुनि श्रावकोंके सामहसे -उज्जयिनी ही रह गए। कुछ समयमें घोर दुर्भिक्ष