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प्राचीन जैन इतिहास । ९०
श्रीमती थी। उनके मतिवरण नामका खाला चरवाहा नौकर था ।
(३) चरवाहा मतिवरण एक दिन गौवको चरानेके लिये जंगलकी ओर जा रहा था । उसने देखा, बनाभिसे सारा जंगलका जंगक भस्म हो गया है, केवल बीचमें कुछ पेड़ हरे भरे बच रहे हैं । यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, और वह उन पेड़ों को देखने के लिये उनकी ओर लपक गया। वहां उसने एक मुनि महा
राजकी बसतिका देखी और वहीं एक सन्दुक में आगम ग्रन्थ रक्खे: हुए पाए | उसने भगम ग्रन्थ उठा लिए और ले जाकर अपने घर में रख छोड़े।
( ४ ) सेठ करमुण्डके कोई पुत्र न था । सेठानी श्रीमती इस कारण बड़ी उदास रहती थी। किंतु सेठ धर्मात्मा था । वह धर्म की बातें सुना और धर्म-कर्म कराकर सेठानीका मन बहलाये रखता था । एक रोज उनके यहां एक प्रतिभाशाली मुनिराजका शुभागमन हुआ । उन्होंने पड़गाह कर भक्तिभ वसे मुनिराजको आहारदान दिया और इन दानके द्वारा अमित पुण्य संचय किया । उन्हें विश्वास होगया कि अब हमारे भाग्य खुलेंगे। उधर, चरवाहे मतिवरणने उन मुनिराजको आगम ग्रन्थ प्रदान किये । इस शास्त्रदान के प्रभाव से उसके ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण - बंघ होगये और वह मरकर सेठ करमुण्डकी सेठानी श्रीमतीकी कोख से उनके पुत्र हुआ । यही तीक्ष्णबुद्धि पुत्र भागे चलकर भगवत् कुन्दकुन्द हुये ।
( ५ ) सेठ-सेठानी पुत्रका मुंह देखकर फूले अङ्ग न समाते थे । ' होनहार बिरवानके, होत चीकने पात ।' सेठजीका पुत्र भी