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प्राचीन जैन इतिहास। ४२ कहा कि इस लकड़ीको मत काटो, इममें एक सर्प और सर्पिणी हैं । भापके रोकनेपर भी उस तपस्वीने कुल्हाड़ी चलाई । उसकी चोटसे उस लकड़ी में बैठे हुए सर्प सर्पिणीके दो टुकड़े होगये । उसे देखकर मापने कहा कि इस अज्ञान तपसे इस लोकमें दु.ख होगा और परलोकमें भी दुःख मिलेगा। तुम्हें इस बातका मभिमान है कि मैं गुरु हूं, तपस्वी हूं, परन्तु तुमने अज्ञानतासे इन जीवोंकी हिंसा कर डाली। ये वचन सुनकर उस तपस्वीको और भी क्रोध माया । वह बोला कि तुम मेरे तपश्च णकी महिमा नहीं जानते इसीलिए ऐसा कहते हो, मैं पंचाग्निके मध्य बैठता हूं, वायु भक्षण कर जीवित रहता हूं, ऊपरको भुजाकर एक ही पैरसे बहुत देरतक स्टकता हूं। इस तरहके तपश्चरणसे और अधिक तपश्चरण नहीं होसकता । तब कुमारने हंसकर कहा-हमने न तो आपको गुरु ही माना है और न तिरस्कार ही किया है। किन्तु जो आप्त-मागमको छोड़कर वनमें रहते; मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ और हिंसा करते हैं, उन्हें विना सम्यग्ज्ञानके कायक्लेश दुःखका ही कारण होता है । इस तरह मापके कहनेपर उस विरुद्ध बुद्धिवाले मूर्ख तपस्वीने पहिले जन्मका वैर संस्कार होने के कारण दुष्टः स्वभाव से कुछ ध्यान नहीं दिया। तब कुमारने सर्प सर्पिणीको समझाकर समताभाव धारण कराया और उन्हें णमोकार मंत्र दिया। वे दोनों मरकर बड़ी विभूतिके धारी धरणेन्द्र पद्मावती हुए।
(७) एक दिन अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवोंको जानकर मापको वैराग्य उत्पन्न हुमा तब लौकान्तिक देवोंने भाकर स्तुति