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धावीसमो संधि [१] देवोंके साथ हजारों युद्धोंके द्वारा अजेय दशरथने जिनेन्द्रका अभिषेक किया । जिनवरके शरीरके प्रक्षालनका दिव्य गन्धोदक देवियों के लिए भिजवाया गया। केवल सुप्रभाके पास चुकी नहीं पहुँच स बसे उलसिस शरीर राजा कहता है-"हे निम्विनी, तुम उदास क्यों हो? प्राचीन चित्रित दीवालकी तरह विवर्ण क्यों हो?' तब सुप्रभाने प्रणामपूर्वक कहा-"मेरी कथासे क्या? हे देव, यदि मैं भी प्राणप्यारी होती तो गन्धोदक कैसे नहीं पाती।" जो पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान निरन्तर धवल मुखवाला था, जिसके दाँत जा चुके थे, जो अजंगम (जड़) था, जिसके हाथमें दण्ड था, जिसने स्वामीको नहीं देखा है, जिसकी वाणी स्खलित है, ऐसा कंचुकी इसी अवसरपर वहाँ पहुँचा। राजा दशरथने उसकी निन्दा की-- "हे कंचुकी, तुमने देर क्यों की जिससे जिनवचनके समान जिनाभिषेकका जल सुप्रभाको जल्दी नहीं मिला।" ||१-५||
[२] उस कंचुकीने मी प्रणाम कर यह निवेदन कियामेरे दिन चले गये हैं, यौवन ढल गया है। प्रथम आयुको बुढ़ापा सफेद करता हुआ आ गया है और वह असती स्त्रीकी तरह सिरसे जा लगा है। गति टूट चुकी है, सन्धि बन्ध विघटित हैं, कान सुनते नहीं हैं और नेत्र निरा अन्धे हैं। सिर काँपता है और. पाणी लड़खड़ाती हैं। दाँत जा चुके हैं और शरीरको कान्ति क्षीण हो चुकी है । रक्त गल चुका है, केवल चमड़ी शेष है। अब पैर पहाड़ी नदीके प्रवाहकी तरह नहीं दौड़ते; हे राजन्, वह गन्धोदक किस तरह प्राप्त करे।" इन शब्दोंसे राजाने अपने मनमें विचार किया और रामके पिता दशरथ अत्यन्त विषादको प्राप्त हुए। सचमुच जीवन चंचल है, कौन सुख है वह किया जाये और जिससे मोक्ष सिद्ध हो १ सुख मधुकी चदकी तरह है और दुःख मेरुपर्वतकी तरह बढ़ता जाता है; वही कर्म