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श्रीसवाल जाति की उत्पत्ति
( २ ) आचार्य बध्यभट्ट सूरिजी जैन संसार में बहुत नामाङ्कित हुए हैं। आपने कन्नौज के राजा मागावलोक वा नागभट्ट पड़िहार (आम राजा) को प्रति बोध देकर जैनी बनाया था। उस राजा के एक रानी वणिकपुत्री भी थी। इससे होने वाली संतानों को इन आचार्य ने भोसवंश में मिला दिया । जिनका गौत्र राजकोष्टागर हुआ । इसी गौत्र में भागे चल कर विक्रम की सोलहवीं सदी में सुप्रसिद्ध करमाशाह हुए जिन्होंने सिद्धाचल तीर्थ का अन्तिम जीर्णोद्धार करवाया । इसका शिलालेख संवत् १५८० का ख़ुदा हुआ शत्रुंजय तीर्थ पर आदिश्वरजी के मन्दिर में है। इस लेख में दो श्लोक निम्न लिखित हैं:
इतश्च गोपाह गिरौ गरिष्टः श्रीबप्प भट्टी प्रतिबोधितश्च ।
श्री श्रमराजो ऽजति तस्य पत्नि काचित्वं भूव व्यवहारी पुत्री ॥
तत्कुक्षिजाताः किल राजकोश शाराह्न गौत्रे सुकृतैक पात्रे ।
श्री श्रोस बस विशादे विशाले तस्यान्वमेऽश्रिपुरुषाः प्रसिद्धाः ॥
आचा बच्चभट्टसूरि का जन्म संवत् ८०० में हुआ। इस से पता चलता है कि उस समय बोसवाल जाति विशाक क्षेत्र में फैली हुई थी और इसका इतना प्रभाव था कि जिस को पैदा करने में कई शताब्दियों की आवश्यकता होती है।
(३) ओसियों के मन्दिर के प्रशस्ति शिलालेख में भी उपकेशपुर के परिहार राजाओं में बत्सराज की बहुत 'तारीफ लिखी है। इस वत्सराज का समय भी विक्रम की आठवीं सदी में सिद्ध होता है । (४) सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्व० मुंशी देवीप्रसाद जी जोधपुर ने 'राजपूताने की शोध-खोज' नामक एक पुस्तक लिखी है । उसमें उन्होंने लिखा है कि कोटा राज्य के अटरू नामक ग्राम में जैन मन्दिर के एक खंडहर में एक मूर्ति के नीचे वि० सं० ५०८ का भैंसाशाह के नाम का एक शिलालेख मिला है। मुंशीजी ने लिखा है कि इन भैंसाशाह और रोड़ा बनजारा के परस्पर में इतना स्नेह था कि इन दोनों ने मिलकर अपने सम्मिलित नाम से “भैंसरोड़” नामक ग्राम बसाया । जो वर्तमान में उदयपुर रियासत में विद्यमान है । यदि यह भैंसाशाह और जैनधर्म के अन्दर प्रसिद्धि प्राप्त भादित्यनाग गोत्र का भैंसाशाह एक ही हो तो, इसका समय वि० सं० ५०८ का निश्चित करने में कोई बाधा नहीं भाती। जिससे ओसवाक जाति के समय की पहुँच और भी दूर चली जाती है ।
(५) श्वेत हूण के विषय में इतिहासकारों का यह मत है कि श्वेत हूण तोरमाण विक्रम की छठी शताब्दि में मरुस्थल की तरफ़ आया । उसने भीनमाल को अपने हस्तगत कर अपनी राजधानी वहाँ स्थापित की। नैनाचार्य्यं हरिगुप्तसूरि ने उस तोरमाण को धर्मोपदेश देकर जैनधर्म का अनुरागी बनाया । जिसके परिणाम स्वरूम तोरमाण ने भीनमाल में भगवान् ऋषभदेव का बड़ा विशाक मन्दिर बनवाया ।
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