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इससे स्पष्ट है कि पहली उत्थानिका की अपेक्षा दूसरी उत्थानिका अधिक स्पष्ट एवं अर्थ बोध करने वाली है। कारण मात्र इतना ही है कि पू० पद्मप्रभमलधारी देव संक्षिप्त टीका चाहते हैं जिरासे स्वाध्याय प्रेमियों को गाथा का पूर्ण अर्थ भी समझ में आ जाय और अधिक विस्तार भी न हो । स्याद्वादचन्द्रिका टीका का अभिप्राय यह है गाथा के प्रत्येक शब्द का अर्थ स्पष्ट हो भले हो उसका विस्तार क्यों न करना पड़े ।
इस चन्द्रिका टीका का प्रारंभिक रूप भी बहुत सुन्दर है । इसमें सबसे पहले जिनपति को नमस्कार किया है, दूसरे श्लोक में जिनवाणी को नमस्कार किया है, तीसरे श्लोक में गौतम आदि गुरुओं को नमस्कार किया गया है। इस प्रकार देवशास्त्र गुरु को नमस्कार करने के बाद ग्रन्थकर्ता आचार्य कुन्दकुन्द को भी नमस्कार किया है और उनसे प्रार्थना की गई है कि वे तब तक मेरे हृदय कमल में विराजमान रहें जब तक कि मेरो आत्म सिद्धि न हो जाय। इसके बाद टीका लिखने का भी अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया गया है :-भेद रत्नत्रय और अभेद रत्नत्रय इन दोनों की शीघ्र व्यक्ति के लिये नियमसार सार ग्रन्थ निवृत्ति (टीका) में लिख रही हूँ। इस प्रकार तीन श्लोकों में रत्नत्रय के धनी देव शास्त्र गुरु को नमन तथा चौथे श्लोक में भेदाभेद रत्नत्रय का ज्ञान बताने वाले आचार्य कुन्दकुन्द का स्मरण एवं पांचवें श्लोक में भेदाभेद रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त करने के लिए अपनी इच्छा प्रकट की गई है अतः इस टीका के प्रारम्भ में पञ्चश्लोकमयी जो मङ्गलाचरण किया गया है वह भी माताजी की अपनी अनन्य सूझ बूझ की देन है ।
माता ज्ञानमती जी चारों अनुयोगों की सिद्धहस्त लेखिका हैं । इन चारों अनुयोगों से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें लिख कर आपने जो जिनवाणी का प्रचार प्रसार किया है वह अभूतपूर्व है । लेखिका के साथ आप कवियत्री भी हैं तथा हिन्दी एवं संस्कृत दोनों भाषाओं में आपकी गद्य पद्यमयी रचनाएँ जिज्ञासुओं को संतुष्ट कर रही हैं। आपके प्रवचन जब भी और जहाँ भी होते हैं उससे श्रोताओं को संतुष्टि और प्रेरणा दोनों ही मिलते हैं, प्रस्तुत स्याद्वादचन्द्रिका आपको उसी लेखन कला का सुपरिणाम है । दि० जैन समाज में हिन्दी टीकाएँ तो आज वर्तमान समय के अनेक विद्वानों ने लिखी हैं लेकिन संस्कृत में टीका करने वाले शायद ही कोई आधुनिक विद्वान होंगे जबकि संस्कृत का अध्ययन अध्यापन करने वाले आज भी प्रौढ़ विद्वान हैं। यह ठीक है कि जनसाधारण के लिए हिन्दी टीकाएँ उपयुक्त रहती हैं फिर भी संस्कृत टीकाओं की परम्परा भी रहना चाहिए । अर्थ की गुरुता और पदों की महत्ता जो संस्कृत भाषा से मिलती है वह अन्य भाषा से नहीं । समयसार ग्रन्थ की संस्कृत एवं हिन्दी दोनों प्रकार की अनेक टीकाएँ हैं उसमें जो बोध संस्कृत टीकाओं में मिलता है वह हिन्दी टीकाओं से नहीं । अतः माता ज्ञानमती जी के द्वारा नियमसार को स्याद्वाद चन्द्रिका टीका एक महत्त्वपूर्ण कार्य है उसके लिए जितना माता जी का उपकार माना जाय थोड़ा है । समयसार की आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन की दोनों संस्कृत टीकाओं की तरह नियमसार की आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव एवं आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा लिखित दोनों संस्कृत टीकाएँ महत्त्वपूर्ण है ।
स्याद्वाद चन्द्रिका टीका जैसी इस महत्वपूर्ण कृति के सभी प्रबुद्ध समाज कृतज्ञ है और इसके लिए माता जी का अभिवादन करती है । टीका का नाम स्याद्वाद चन्द्रिका क्यों रखा गया इस सम्बन्ध में भी माता जी ने बड़ा स्पष्ट और सुन्दर विवेचन दिया है । वे लिखती है- "अयं