Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 14
________________ -१५ दिया है, प्रत्येक शब्द की व्याकरण सम्मत व्युत्पत्ति दी गई है, अर्थ के समर्थन में ग्रन्थान्तरों के प्रमाण दिये गये हैं। टीवा की भाषाशैली भी प्राचीन आचार्यों जैसी हो है । श्री पद्मप्रभमलधारी देव की प्राचीन संस्कृत ब्याख्या और आर्थिकामाता ज्ञानमतोजी नवीन स्याद्वाद चन्द्रिका टीका दोनों टीकाओं को हमने सन्तुलित दृष्टि से पढ़ा तो हमें स्याद्वाद चन्द्रिका टीका में कुछ विशेषता हो जान पड़ी । उदाहरण के रूप में यहाँ हम उसका कुछ उल्लेख करेंगे-नियमसार ग्रन्थ की मङ्गलाचरण रूप पहली गाथा है--मिग जिणं वीरं अणतवरणाण देसण सहावं वोच्छामि नियमसार केवलिस्यकेवलीभणिम इसमें 'वीर' शब्द की व्युत्पत्ति पद्मप्रभमलधारीदेव की टोका में एक ही की गई है जो इस प्रकार है-वीरो बिक्रान्तः वीरयते शूरयते विक्रातत्ति कर्मारातीन् विजयते इति वीरः अर्थात् जो कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है वह वीर है किन्तु प्रस्तुत स्याद्वाद चन्द्रिका टीका में इस व्युत्पत्ति के साथ अन्य दो त्यतात्तियाँ और की हैं जो इस प्रकार हैं ! (१) "वि-विशिष्टा ई-लक्ष्मीः तां राति-ददाति इति वीरः अर्थात् जो विशिष्टि लक्ष्मी (मुक्ति लक्ष्मी) देता है वह वीर है । यह पहली व्युत्पत्ति है। दूसरी इस प्रकार है-.. (२१ 'क, ट, प, य पुरस्थ वढी नव-नव पन्चाष्ट कल्पितैः क्रमशः इस सूत्र के अनुसार 'क' से ९, '' से ९, 'प' से पाँच, तथा 'य' से आठ अक्षरों को कम से गिनना चाहिए । अतः 'य' से आठ अक्षरों की गिनती इस प्रकार है य, र, ल, ब, श, ष, स, ह । इन अक्षरों में 'र' का नम्बर दूसरा है और 'व' का नम्बर चौथा है । वीर शब्द में यह दो ही अक्षार है इसमें 'व' नम्बर ४ और 'र' नम्बर दो इनको क्रम से रखने पर ४२ बयालीस संख्या होती है । और संख्या के विषय में नियम है 'अङ्गानां वामतो गतिः अङ्कों को उल्टी तरफ से गिनना चाहिए, तब ४२ बयालीस को उलटा करने से २४ चौबीस होती है । अर्थात् वीर शब्द का अर्थ हा २४ तोथंकर अतः "वीरं नत्वा' का स्फुट अर्थ हुआ २४ तीर्थङ्करों को नमस्कार करके । इस प्रकार माता जी द्वारा रचित इस स्याद्वाद चन्द्रिका में अनेक विशेषताएँ हैं। ___ गाथाओं को उत्थानिका में भी उक्त प्राचीन संस्कृत टीका से इस नयी टीका में अनेक विशेषताएँ हैं । मङ्गलाचरण की प्राथमिक गाथा के पहले प्राचीन टीका में उत्थानिका इस प्रकार है :"अथात्र जिनं नत्वेत्यनेन शास्त्रस्वादावसाधारण मङ्गमपि हितम्" और इस नई टोका में उत्थानिका का रूप इस प्रकार है "अथ तावच्छास्त्रस्यादी गाथायाः पूर्वार्धम निविघ्नशास्त्रपरिसमाप्त्यादिहेतुना मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमुत्तरार्धन च नियमसारग्रन्थव्याख्यानं चिकीर्षवः श्री कुन्दकुन्ददेवाः सूत्रमिदमवतारयन्ति ।" इन दोनों उत्थानिकाओं में पहली में मात्र इतनी ही सूचना दी है कि "जिनेन्द्र को नमस्कार पूर्वक शास्त्र के आदि में मङ्गलाचरण किया गया है।" लेकिन दूसरी उत्थानिका में मङ्गलाचरण गाथा का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि "गाथा के पूर्वार्द्ध में शास्त्र की निर्विघ्न समाप्ति के लिये इष्ट देवता को नमस्कार करते हुए तथा गाथा के उत्तरार्द्ध में नियमसार ग्रन्थ की व्याख्या करने के इच्छुक आचार्य कुन्दकुन्ददेव इस गाथा सूत्र को कहते हैं।"

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