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प्रस्तावना
संस्कृत का विद्यार्थी होने के कारण प्रारम्भ से ही काव्य ग्रन्थों के अध्ययन में मेरी रूचि रही है । जिन दिनों मैं एम०ए० का विद्यार्थी था, तब पाठ्यक्रम में कुछ जैन ग्रन्थ पढ़ने का अवसर मुझे मिला। मैंने अनुभव किया कि एक विशिष्ट भारतीय सम्प्रदाय के रूप में जैनों ने संस्कृत साहित्य की महत्त्वपूर्ण सेवा की है । यदि भारतीय संस्कृति का सर्वांगीण और वास्तविक अध्ययन करना है तो भारत की सभी धाराओं के साहित्य का अध्ययन करना अनिवार्य है । तभी मेरे मन में विचार आया यदि मुझे पी० एच० डी० करने का अवसर मिला तो मैं जैन साहित्य में ही अपना शोध कार्य करूँगा ।
एम० ए०, बी० एड्॰ करने के बाद मैनें अपनी जिज्ञासा का अपने गुरुवर डा० जयकुमार जैन से निवेदन किया । उन्होंने “नेमिनिर्वाण" नामक एक ग्रन्थ मुझे इस कार्य के लिए दिया, जिसका न कोई अनुवाद था और न किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी । यह ग्रन्थ- निर्णयसागर प्रेस बम्बई से पं० श्री शिवदत्त एवं श्री काशीनाथ पाण्डुरंग परब द्वारा संपादित होकर १९३६ ई० में प्रकाशित हुआ है। गुरु की आज्ञा और अपने परिश्रम की प्रवृत्ति पर विश्वास करके मैंने उस पर ही शोध कार्य करने का निश्चय कर लिया। मैंने पूर्ण निष्ठा के साथ नेमि - निर्वाण का अध्ययन करने का यह विनम्र प्रयास किया है, जो विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत है ।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में जैनचरितकाव्य परम्परा तथा नेमि - निर्वाण का विवेचन किया गया है। इस अध्याय को तीन उपविभागों में विभाजित किया गया है । प्रथम उप विभाग में जैन चरितकाव्यों के उद्भव और विकास पर प्रकाश डाला गया है । द्वितीय उपविभाग में तीर्थङ्कर नेमिनाथ विषयक साहित्य का विवेचन है तथा तृतीय उपविभाग में नेमि - निर्वाण के कर्ता वाग्भट के व्यक्तित्व का विवेचन किया गया है। द्वितीय अध्याय में नेमि - निर्वाण की कथावस्तु पर विचार किया गया है। इस अध्याय को भी तीन उपविभागों में बाँटा गया है, जिसमें सर्वप्रथम नेमिनिर्वाण की कथावस्तु के मूल स्रोत पर विचार किया है। द्वितीय उपविभाग में नेमिनिर्वाण की कथावस्तु दी गयी है तथा तृतीय उपविभाग में मूल कथावस्तु से नेमिनिर्वाण की कथावस्तु में किये गये परिवर्तन-परिवर्धनों की चर्चा की गई है। तृतीय अध्याय को रस, महाकाव्यत्व, छन्द और अलंकार नामक चार उपविभागों में विभक्त किया गया है। रस के सन्दर्भ में अंगीरस शान्त पर विचार करते समय शान्तरस की मान्यता और स्थान का भी विवेचन किया गया है । तत्पश्चात् नेमिनिर्वाण की महाकाव्यता सिद्ध की है । छन्द उपविभाग में नेमिनिर्वाण में प्रयुक्त कुल ५० छन्दों की चर्चा की गई है । नेमिनिर्वाण में प्रयुक्त शब्दालंकार और अर्थालंकारों का उल्लेख करते हुए वाग्भट के अलंकार कौशल को प्रकट किया है । चतुर्थ अध्याय में नेमिनिर्वाण की भाषाशैली एवं गुण सन्निवेश पर विचार करते हुए स्पष्ट किया गया है