Book Title: Nanarthodaysagar kosha
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 16
________________ आप उच्चकोटि के विद्वान भी थे और गहरे दार्शनिक भी थे। संस्कृत, प्राकृत, उर्दू फारसी, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि १६ भाषाओं में पारंगत थे । जैनागमों का आपने तलस्पर्शी अध्ययन किया था और अन्य धर्मों के भी आप गहरे अभ्यासी थे। विद्वत्ता के साथ आप एक अच्छे वक्ता थे। सिर्फ आप में विद्वता ही नहीं थी, किन्तु चारित्र भी बहुत उच्चकोटि का था। आपके स्वभाव में सरलता, व्यवहार में नम्रता, वाणी में मधुरता, मुख पर सौम्यता, हृदय में गम्भीरता, मन में मृदुता, भावों में भव्यता और आत्मा में दिव्यता आदि अनेक गुण सौरभ से आप सुवासित थे। जीवन परिचय ___आपका जन्म मेवाड़ के एक छोटे से किन्तु सुरम्य लहलहाते खेतों व विशाल पर्वतों की परिधि से घिरे 'बनोल' नामक गाँव में एक वैरागी कुटुम्ब में वि. सं. १९४१ में हुआ। आपके पिता का नाम प्रभुदत्त जी और माता का नाम श्रीमती विमलाबाई था। आपने १६ वर्ष की बाल्य अवस्था में वैराग्यमय जैन समाज के ख्यातनामा आचार्य पूज्य जवाहरलालजी महाराज के पास मेवाड़ प्रान्त के जसवन्तगढ़ में वि.सं. १९५८ में दीक्षा ग्रहण की। गुरु की अनन्य कृपा से आपने आगम, संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण आदि का अध्ययन कर उच्चकोटि की विद्वता प्राप्त की। आपकी विशिष्ट विद्वता से प्रभावित होकर कोल्हापुर के महाराजा ने आपको कोल्हापुर राजगुरु एवं शास्त्राचार्य की पदवि से विभूषित किये । आपकी त्याग, तपस्या, संयम की उत्कृष्टता देखकर करांची संघ ने 'जैन दिवाकर' और 'जैन आचार्य' पद देकर अपने आपको गौरवान्वित किया। पूज्यश्री जितने महान थे, उतने ही विनम्र भी थे। आप एक पुष्पित एवं फलित विशाल वृक्ष की तरह ज्यों-ज्यों महान प्रख्यात एवं प्रतिष्ठित होते गये त्यों-त्यों अधिकाधिक विनम्र होते चले गये । गुरु जनों के प्रति ही नहीं अपने से लघुजनों के प्रति भी आपका हृदय प्रेम से छलकता रहता था। छोटे से छोटे साधुओं को भी रोगादि कारणों में आपने वह सेवा की है, जो आज भी यशोगाथा के रूप में गाई जा रही है। सुन्दरी उषा का प्रत्येक चरण-विन्यास बहुरंगी संध्या में विलीन हो जाता है । अथ के साथ इति लगी रहती है। विक्रम सं. २०२६ में पौषवदि १४ को ता०२/१/७३ को संथारा ग्रहण किया और पोषवदि अमावस्या को ता० ३/१/७३ के दिन जन जीवन को आलोकित करने वाला वह दिव्य आलोक दिव्य लोक का यात्री हो गया । ज्ञान एवं विवेक का प्रखर भास्कर जो मेवाड़ के क्षितिज पर उदय हुआ था, वह गुज रात के अस्ताचल पर अस्त हो गया । सरसपुर अहमदाबाद के स्थानकवासी जैन उपाश्रय में संथारा विधि वत् पूर्ण करके आचार्यप्रवर श्री घासीलाल जी महाराज ने इस असार संसार को छोड़कर अमर पद प्राप्त कर लिया। जन्म, जीवन और मरण यह कहानी है मनुष्य की। किन्तु पूज्यश्री का जन्म था कुछ करने के लिए । उनका जीवन था, परहित साधना के लिए। उनका मरण था फिर न मरने के लिए। बचपन, जवानी और वृद्धावस्था-यह इतिहास है मानव का । किन्तु इस इतिहास को उन्होंने नया मोड़ दिया ।उनका बचपन खेल-कूद के लिए नहीं था, वह था ज्ञान की साधना के लिए। उनकी जवानी भोगविलास के लिए नहीं, वह थी संयम की साधना के लिए। उनकी वृद्धावस्था अभिशाप नहीं, वह था एक मंगलमय वरदान । पूज्य श्री ने अपने जीवन का सर्वस्व समर्पित कर दिया था सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय । [ १५ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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