Book Title: Nanarthodaysagar kosha
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ ३ - मोक्षपद ( धम्मपद की तरह का ग्रन्थ) प्राकृत गाथा, संस्कृत छाया और उनका हिन्दी गुजराती में अनुवाद) ४- श्री लक्ष्मीधर चरित्र ( प्राकृत संस्कृत - हिन्दी कविता सहित ) स्तोत्र स्तुतियाँ १. जवाहिर गुण किरणावली २. नव स्मरण ३. कल्याण मंगल स्तोत्र ४. महावीर अष्टक ५. जिनाष्टक ६. वर्द्धमान भक्तामर ७. नागाम्बरमञ्जरी ८. लवजीस्वामी स्तोत्र ६. माणक्य अष्टक १०. पूज्य श्रीलालकाव्य ११. संकटमोचनाष्टक १२. पुरुषोतमाष्टक १३. समर्थाष्टक १४. जैन दिवाकर स्तोत्र १५. वृत्तबोध - १६. जंनागम - तत्वदीपिका १७. सूक्तिसंग्रह १८. तत्वप्रदीप इत्यादि इस विपुल ग्रन्थराशि पर से इसके निर्माता की बहुश्र ुतता, सागरवरगम्भीरता विद्वत्ता और सर्वतोमुखी प्रतिभा का सरल परिचय मिलता है । आगमों के गूढ से गूढ विषयों का भावोद्घाटन करने वाली टीकाएँ आध्यात्मिक विवेचन करने वाले प्रकरण, विस्तृत दार्शनिक चर्चाओं के साथ अनेकान्त का विवेचन करने वाले न्याय ग्रन्थ, इनके प्रकाण्ड पाण्डित्य का परिचय कराने के लिए पर्याप्त है । आचार्यश्री घासीलालजी महाराज ने तो स्थानकवासी समाज के साहित्य को पूर्णता के उच्च शिखर पर पहुँचा दिया है । इस प्रकार व्याकरण, काव्य, छन्द, धर्मशास्त्र, नीति आदि विषयों पर विविध ग्रन्थ लिखकर आपने स्थानकवासी जैन समाज पर महान उपकार किया है। स्थानकवासी समाज के इस महान ज्योतिर्धर सन्त से स्थानकवासी साहित्य का इतिहास सदा जगमगाता रहेगा । आचार्यश्री ने साहित्य - सेवा के अतिरिक्त भी जैनधर्म की महती प्रभावना की है। आपने हजारों मनुष्यों को अहिंसा धर्मानुयायी बनाया, एक चतुर कलाकार मिट्टी के लोंदे को जिस तरह अपनी अंगुलियों की करामात से जी चाहा रूप देता है उसी तरह पूज्यश्री को लोगों के दिल अपने अनुकुल बना लेने की दिव्य शक्ति प्राप्त थीं । आपके उपदेश में एक खास विशेषता थी कि आपका उपदेश सर्व-साधारण के लिए ऐसा रोचक और उपयोगी होता था कि जिससे ब्राह्मण, जैन, क्षत्रिय, मुसलमान और पारसी आदि समस्त लोग मुग्ध हो जाते थे । आपने सैकडों राजा-महाराजाओं को उपदेश देकर लाखों मूक पशुओं को अभयदान दिलवाया और देव देवियो के नाम पर होने वाली बलि को सदा-सदा के लिए बन्द करवाई । Jain Education International समाज के उत्थान के लिए आप सतत जागृत और प्रयत्नशील थे । आप दिन-रात समाज्य के ही स्वप्न देखते रहते थे । समाज कल्याण के कार्यों में आप इतने संलग्न रहते थे कि आपको अपने शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रहता था । आपके परोपकारमय जीवन को देखकर एक कवि की ये पंक्तियाँ याद आती हैं तुम जीवन की दीप शिखा हो, जिसने केवल जलना जाना । तुम जलते दीपक की लो हो, जिसने जलने में सख माना ॥ ( १४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 412