________________ विद्याओं में ये सर्वतन्त्र स्वतन्त्र व्यक्तित्व रखे हुए हैं। हमारे विचार से नल के सम्बन्ध में इनको कही हुई 'अमुष्य विद्या रसनाअनर्तकी त्रयीव नीताङ्गगुणेन विस्तरम्' यह उक्ति स्वयं इन पर भी लागू हो जाती है। शास्त्रों के अतिरिक्त कलाओं में भी श्रीहर्ष पीछे नहीं रहे। विवाहोपरान्त अपने राजमहल में नल द्वारा आयोजित संगीतगोष्ठी, जिसमें दमयन्ती की पढ़ाई-सिखाई शिष्याय, सखियाँ, किन्नरियाँ तथा स्वयं दमयन्ती मी वीणा-स्वर के साथ निषाद स्वर से मधुर गान में भाग ले रह थी, कवि की संगीतकला-कोविदता पर प्रकाश डाल देती हैं। इन्होंने कितने हो स्थलों में नृत्य भी करा रखे हैं नल के महल के प्रांगण में नाटकों के अभिनय करा रखे हैं। विवाह से पूर्व दमयन्ती द्वारा राजकीय चित्रकारों से राज-गृह की भित्ति पर लोकातिशायी सौन्दर्य वाले युगल का चित्र बनवाकर उससे अपने और नल की तुलना अपने महल के भीतर बनाये नल के चित्र, विदर्भ के लोगों के घरघर में खींचे दमयन्ती के चित्र तथा नल के महल में ब्रह्मा सरस्वती और इन्द्र अहिल्या आदि के कामुक चित्र कवि को चित्रकलाभिज्ञता व्यक्त कर देते हैं / इनका वास्तुकला-शान राजा मोम की . कुण्डनपुरी के महलों, अटारियों, 'क्षितिगर्भधाराम्बर-आलयों' 'मणिमय कुट्टिमों, एवं दमयन्ती के 'सप्त-भूमिक' हयं और नल के 'सोध-भूधर' निर्माण में झलक जाता है। इसीलिए श्रीहर्ष अपने को 'कला-सर्वश' कहा करते थे, जिस पर राजा की कला-पारखी 'कला-भारती' रानी द्वारा आपत्ति उठाने पर इन 'कलासर्वश' ने उसके नहछे पर कैसा दहला मारा-यह हम पीछे देख आये हैं। वैसे तो व्याकरण, दर्शन आदि शुष्क और गम्भीर विषयों के प्रकाण्ड विद्वान् होने के नाते श्रीहर्ष को गम्भीर प्रकृति का व्यक्तित्व वाला होना चाहिए था, लेकिन नहीं। वे जीवन में मृदु और विनोद-शील रहे। जीवन के मधुर क्षणों को, हास-परिहास के अवसरों को वे यों ही नहीं जाने देते; उनसे पूरा-पूरा विनोद-लाम करते थे। प्रथम सर्ग में ही दमयन्ती के सौन्दर्यवर्णन-प्रसङ्ग में इन्द्राणी. लक्ष्मी, सरस्वती आदि की प्रतिक्रियायें कवि ने कितनी हल्की-फुल्को, विनोदी तरङ्ग में अमिव्यक्त की हैं / दमयन्ती के स्वयंवर का सारा वातावरण, वारातियों और कन्यापक्षीय नर-नारियों का हास्यविनोद, युवा-युवतियों की परस्पर नर्म-पूर्ण चुटकियों तथा बीच-बीच में कमी-कमी शालीनता की सीमा लाँधे शृंगारिक चेष्टायें कवि की सोल्लास मनोवृत्ति की परिचायक हैं स्वयंवर के बाद अपनेअपने स्थान को लौटते हुए इन्द्रादि देवताओं को स्वयंवर में जाता हुआ जब कलि मिलता है, तो उसका और उसके साथ नास्तिक मौतिकवादियों का देवताओं के साथ हुए वार्तालाप वाले सत्रहवें सर्ग के आधे भाग में श्रीहर्ष के हास्य, ऋषि-मुनियों पर कटाक्ष और विद्रूप देखते ही बनते हैं। कामोपमोग-परायण चार्वाकों के मुँह से वेदों, यशों, एवं व्रत-नियमों का कितना उपहास करवा रखा है, धर्मशास्त्र और पुराणों की कैसी छिछालेदर करवाई है, मनु, व्यास आदि ऋषिमुनियों के व्यक्तिगत जीवन पर कैसे कटु व्यङ्गय अथवा चुमती फबतियों कसवाई हैं, मीमांसा आदि दार्शनिक सिद्धान्तों तथा उनके प्रवर्तकों को कैसा उपहासास्पद बनवाया है, यहाँ तक कि जीवात्मा 1-22 / 125-30 / 2-1138 / 3-10 // 35 //