________________ [ 8 ] प्रत्येक सर्ग के अन्त में पिता के साथ-साथ माता का भी पुण्यस्मरण करते हुए ये अपने सारे नैषध काव्य को मातृ-चरणों में अर्पित कमलमाला का रूप दे गये। श्रीहर्ष त्रिपुरा देवी के मक्त थे, जिसे इन्होंने सिद्ध कर रखा था और जिसकी अमोच अनुकम्पा से हो इन्हें अप्रतिम प्रतिभा मिली थी। लेकिन अन्य देवताओं के लिए मो इनके हृदय में पूरी श्रद्धा-भक्ति रही। दमयन्ती को ब्याहकर घर लाने पर भी नल से इन्होंने शिव की 'शत-रुद्रिय' सूत्र से विष्णु को पुरुषसूक्त से और अन्यान्य कृष्ण, राम आदि सभी अवतारों तथा सूर्यादि देवों की विधिवत् पूजा-अर्चना करवाकर अपनी ही निष्ठा व्यक्त की है। दार्शनिक विचारों में ये ब्रह्मचारी थे। यही कारण है कि नैषध काव्य में प्रस्तुत कथानक के साथ-साथ ये रह-रहकर यत्र-तत्र अप्रस्तुत रूप में अपने वेदान्त-सिद्धान्त को अभिव्यक्ति देते रहे। जगत् के नानातत्व का खण्डन करके इन्होंने अद्वैत की पुष्टि कर रखी है। इनका 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थ तो अद्वैतवाद का ही समर्थक ग्रन्थ है। श्रीहर्ष को अपनी विद्वत्ता का पूरा अभिमान था। हम पीछे देख आये हैं कि जयचन्द की राज. सभा में पिता के बैरो को देखकर ये ऐसे अभिमान के साथ गरजे कि वह बेचारा पानी-पानो हो गया। उसने इन्हें विद्यारण्य का ऐसा सिंह कह डाला, जिसका 'साहंकृत हुंकृत'-अभिमान-भरी दहाड़-हो सारे विद्वत्-पाणियों को मार देती है, प्रहार दूर रहा। नैषध के अन्त में इन्होंने अपने काव्य को 'अमृत-भरा क्षोरोदन्वान्' कहते हुए अन्य कवियों को रचनाओं को क्षुद्र पहाड़ी नदियों माना है५ आर भवभूति को तरह इन्होंने अपनी रचना पर नाक-भौं सिकोड़नेवाले, अरसिक आलोचकों को आड़े हाथों खबर ली है / इनको ये सभी बातें इनको अभिमानी प्रकृति को द्योतक है। वास्तव में इनका अभिमान् अर्थवान् था, क्योंकि ऐसी कौन-सी विद्या है, जिसमें इनको गति प्रतिहत हुई हो। नैषध काव्य के सर्वप्रथम टीकाकार विद्याधर, उपनाम 'साहित्य विद्याधर' ( लगमग 1250-60 ई.) ने अन्तिम सर्ग को टीका करते हुए श्रीहर्ष के सर्वतोमुखी शास्त्रीय शान का इस प्रकार उल्लेख किया है: "अनेनास्य आत्मसर्वज्ञता अभिव्यञ्जिताअष्टौ व्याकरणानि तर्कनिवहः साहित्यसारो नयो, वेदार्थावगतिः पुराणपठितियस्यान्यशास्त्राण्यपि / नित्यं स्युः स्फुरितार्थदीपविहताज्ञान्धकाराण्यसौ, व्याख्यातुं प्रमवत्यमुं सुविषमं सर्ग सुधीः कोविदः // " क्या आठों व्याकरण, क्या तर्कशास्त्र, क्या साहित्य, क्या वेद-पुराण और क्या अन्य शास्त्रसमी में ये पारंगत थे। तर्क में तो इन्होंने स्वयं को 'तकंष्त्रसमश्च यः" कह रखा है। इसी तर्क के बल पर तो इन्होंने उदयनाचार्य के न्याय-सिद्धान्तों का खण्डन किया है। इस तरह स्पष्ट है कि 1-12 / 112 / 4-21108 / 2-21 // 32-118 / 3-1440, 2 / 1,78 / 3 / 3, 4, 62 / 5-22.152 / 6-22 / 153 / 7-101137 /