Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 12
________________ तो-जैसा इन्होंने स्वीकार किया है। उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और इन्हें अन्य की शुद्धता का अपेक्षित, स्वहस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र राजा से दिलवाकर सम्मान-पूर्वक काशी के लिए विदा किया। प्रमाणपत्र लेकर भीहर्ष काशी आये और जयचन्द से मिले। प्रमाणपत्र पढ़कर राजा बहुत प्रसन्न हुए / फिर तो क्या था, इनके नैषध काव्य का सारे जगत् में डंका बज गया। ये राजकवि बन गये और 'नर-मारती' नाम से प्रसिद्ध हो गये। राजशेखर के 'प्रबन्ध कोष' के अनुसार जयचन्द ने शालापति को नवयुवति, परम-रूपवती,विधवा पत्नी सूहवदेवी 'मागिनी' (रखैल) के रूप में रखी हुई थी। वह बड़ी नीति-निपुण, कला-निष्यात और विदुषी थी। अपने वैदुष्य और कलाभिशता के अभिमान में आकर वह अपने को जगत् में 'कलाभारती' को उपाधि से विख्यात किये हुए थी। राजा पर उसने अपना पूरा जादू चढ़ा रखा था। इधर देखा तो श्रीहर्ष भी विद्या कला में कोई कम न थे। ये 'नर-मारती' थे। किन्तु वह अमि. मानिनी रानी ईर्ष्यावश मला इनका यश क्यों सहन करतो। एक समय वह श्रीहर्ष को आदर-पूर्वक अपने पास बुला बैठी और पूछ पड़ी-'तुम कौन हो ? ये बोले-'कलासर्वज्ञ हूँ'। रखैल रानी जल गई और बोली-'यदि यह सच है, तो यों करो, तुम जूते बनाकर मुझे पहनाओ' / उस कुटिलमति का भाव यह था कि जूता बनाना भी एक कला है जिसे यह बेचारा ब्राह्मण भला क्या जान सकेगा / यदि यह कह देता है कि मैं नहीं जानता, तो मैं कह दूंगी कि तुम 'कला-सर्व काहे के ?' इस प्रकार इसका सारा अभिमान चूर हो जायगा और वह हमेशा के लिए अपने को 'कलासर्वज्ञ' कहना भूल जायेगा। लेकिन हमारे 'कला-सर्वश' महाराज भी भला कब कच्ची गोली खेले थे। रानी की सारी दुरभिसन्धि तत्काल समझ गये। इन्होंने झट रानी के आगे हाँ भर ली। घर आये और वृक्षों की छालों से येन केन प्रकारेण जूते बनाकर सायं दरबार चले आये। रानी को बुलाया और अछूतों को तरह दूर ही स्थित हो स्वामिनी के पैरों में जूते पहना दिए यह कहते हुए कि 'कला-भारती' रानी जी, मैं चमार हूँ। आपको छू लिया है। गंगा-जल का छींटा मारकर अपने को शुद्ध कर लो' / सुनते ही रानी की बोलती बन्द हो गई और वह बहुत झेंपी। वाद में राजकवि ने रानी की यह कुचेष्टा राजा को सुना दी। किन्तु राज-गृह से ये खिन्न हो उठे। तत्काल राजाश्रय छोड़ दिया और अन्त में उन्होंने गंगा के तट पर संन्यास ले लिया। श्रीहर्ष को कोई सन्तान थी या नहीं-इस सम्बन्ध में ये स्वयं मूक हैं और इनका चरित-लेखक राजशेखर भी मूक है। श्रीहर्ष का व्यक्तित्व-श्रीहर्ष बहुमुखी और वैविध्यपूर्ण प्रतिभा-शाली व्यक्तित्व के धनी थे। इनके इस व्यत्तित्व को उभारने का सारा श्रेय इनके शैशव में इनके पिता की शास्त्रार्थ में पराजय को घटना और मरते समय पिता का इनसे अपने वरी से बदला लेने का वचन प्राप्त करने को जाता है। पिता के प्रति वचनबद्ध होकर इसे पूरा करने की धुन बालक के मन में ऐसा घर जमा बैठी कि विद्याध्ययन के कठिन परिश्रम में जुटकर अन्ततोगत्वा पिता के वैरी को परास्त करके उनकी दिवंगत आत्मा को पराजय के आक्रोश से और अपने को पिता के ऋण से उन्मुक्त कर ही गये / इससे इनको अटूट पितृ-भक्ति और सत्य-सन्धता प्रकट होती है। माता के भी ये कम भक्त नहीं थे। तभी तो 1. 'काश्मीरैर्महिते चतुर्दशतयीं विद्या विदद्भिर्म हाकाव्ये तद्भुवि नैषधीयचरिते' ( 16 / 132 )

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