Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 10
________________ [ 5 ] हार खाया हुआ पिता लज्जा और आत्मग्लानि में घुलता-घुलता मर ही गया, लेकिन मृत्यु से पूर्व अपने पुत्र को कह गया-'बेटा, यदि तू सुपुत्र है, तो मेरे वैरी उस विद्वान् को राज-समा में परास्त करके मेरी पराजय का बदला अवश्य लेना' / पुत्र ने मरणासन्न पिता को वचन दे दिया कि मैं अवश्य ऐसा करूँगा। बालक श्रीहर्ष तीक्ष्य-बुद्धि था ही। बदला लेने की लगन मी हृदय में पकड़ गया। फिर तो क्या था, वह विद्याध्ययनार्थ घर से निकल पड़ा। थोड़े समय के भीतर ही उसने तत्तत् विषयों के विशेष शाता अनेक आचार्यों से सभी शास्त्र पढ़ लिये और किसी 'सुगुरु' द्वारा दिया हुआ चिन्तामणि मन्त्र' गंगा के तट पर एक वर्ष के मीतर सिद्ध कर के भगवती त्रिपुरा के प्रसाद से अगाध विद्वत्ता और मेधा प्राप्त कर ली और राजशेखर के शब्दों में 'खण्डनादि-ग्रन्थान् परःशतान् जग्रन्थ'। फिर श्रीहर्ष जयचन्द की राजसमा में पधारे / राजा ने उनको पण्डितोचित सम्मान दिया। इन्होंने भी उदात्त ढंग से राजा का इस तरह स्तवन किया"गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च, मास्मिन् नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः / अस्वीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री रस्त्री जनः पुनरनेन विधीयते स्त्री" // . साथ ही 'तारस्वर में इसकी व्याख्या मो को जिसे सुनकर क्या राजा और क्या समासद-सभी इनकी विद्वत्ता से दंग रह शये। राजा इनपर बड़े प्रसन्न हो गये। फिर ये राजसमा में अपने पिता के पराजेता पण्डित को ललकारते हुए बोले: "साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले, तकें वा मयि संविधातरि समं लीलायते मारती। शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाङ्करैरास्तृता, भूमिर्वा हृदयंगमो यदि पतिस्तुल्या रतियोषिताम् // पण्डित बेचारा पहले हो इनके प्रचण्ड पाण्डित्य से हत-प्रभ और हत-प्रतिम हुआ इनका लोहा मान बैठा था। उसकी सारी पंडिताई हिरन हो गई। क्या शास्त्रार्थ करता इस दिग्गज से ! उत्तर में इतना ही बोला "देव वादीन्द्र, भारतीसिद्ध, तव समः कोऽपि न किं पुनरधिकः / हिंसाः सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्यता. स्तस्यैकस्य पुनः स्तुवीमहि महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् / केतिः कोलकुलमदो मदकलः कोलाहलं नाहलैः, ___ संहर्षो महिषैश्च यस्य मुमुचे साहंकृते हुकृते // " 1. इस मन्त्र के सम्बन्ध में प्रथम सर्ग के अन्तिम श्लोक में हमारी टिप्पयो देखिए /

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