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प्रारंभ मे ही हो सकता है, आशीष-नमस्क्रिया के साथ। जहां तक सों का प्रश्न है, वे आठ से अधिक होने चाहिएं, वे न तो बहुत बड़े हो, न बहुत छोटे ही । सन्ति में कथा की सूचना दी जानी अच्छी होती है।
(२) पात्र-महाकाव्य का नायक देवता हो अथवा धीरोदात्तगुण समन्वित सवंश क्षत्रिय । धीरोदात्त अर्थात् अविकत्थन, क्षमावान्, अतिगंभीर, महासत्त्व, स्थिरमति, आत्मसंमानी, दृढव्रत व्यक्ति । एक वश में जन्मे अनेक अभिजात राजा भी नायक हो सकते हैं ।
(३ ) रस-अंगी अर्थात् प्रधान रस शृंगार, वीर, शांत में से कोई हो, शेष सब रस सहायक-अंगरूप में रहें।
(४) छंद-एक सर्ग में एक ही छद हो तो अच्छा है, पर वह नानाछंदमय भी हो सकता है। सर्ग का अंतिम छंद शेष से भिन्न हो । इससे वैविध्य और चमत्कार आजाता है।
(५) वर्णन-वर्णनों की प्रचुरता रहनी चाहिए, इससे विविधता आजाती है और यथार्थ-बोध सुगम हो जाते हैं। संध्या, रात्रि, प्रभात, दोपहरी, सूर्य वंद्रोदय, मृगया, संयोग-वियोग, वन, नदी, पर्वत, सागर रण यात्रा, मंत्र-आदि सबका अभीष्ट वर्णन महाकाव्य की उपयोगिता बढ़ा देते हैं ।
(६) नाम महाकाव्य का नाम कवि के नाम पर ( माघ ), वृत्त के आधार पर ( कुमारसंभव, रावणवध ), नायक के नाम पर अथवा और उपयुक्त आधार पर निर्धारित करना उचित है।
(७) उद्देश्य मानव जीवन का उद्देश्य है-चतुर्वर्गप्राप्ति अर्थात् यथाक्रम धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का साधन । इन्हीं चार में संपूर्ण मानवजीवन का प्राप्य आ जाता है। यही सुखपूर्वक, सरसता से, सहज ढंग से सुकुमारमति जनों को भी सुलभ बना देता है। महाकाव्य के अध्ययन से मानव प्रेरणा ले, चरित्रवान् बने और अपनी तथा समाज की गौरव-वृद्धि करे-यही उसका उद्देश्य है-'चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि'-यही काव्य का प्रयोजन है।
भारतीय परंपरा में यही महाकाव्य की उपयोगिता है और यही परिभाषा, जिसे हेमचन्द्रसूरि ( काव्यानुशासन ८।६ ) के अनुसार संक्षेप में कहा.