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नैषधमहाकाव्यम्
होने से अपह नुति है, जो 'कृतमध्यबिलम्'-इस पदार्थहेतुक काव्यलिंग से अनुप्राणित है । 'हृतसारम्'-इत्यादि उत्प्रेक्षा है। इस प्रकार यहाँ अपह नुतिकाव्यलिंग-उत्प्रेक्षा का संकर है । उत्प्रेक्षा से उपमा व्यजित है, सो अलंकारध्वनि भी है ।। २५ ॥
धृतलाञ्छनगोमयाञ्चनं विधुमालेपनपाण्डरं विधिः। भ्रमयत्युचितं विदर्भजानननीराजनवद्ध मानकम् ॥ २६ ॥
जीवातु--घृतेति । विधिह्मा घृतं लाच्छनमङ्क एव गोमयाञ्चनं मध्य स्थितगोमयसंश्लेषणम् एनम् आलेपनपाण्डरं निजकान्तिसुधाधवलितमित्यर्थः, विधं चन्द्रमेव विदर्भजाननस्य वैदर्भामुखस्य नीराजनवर्द्धमानक नीराजनशरावम् 'शरावो वर्द्धमानक' इत्यमरः । किरणदीपकलिकायुक्तमिति भावः । भ्रमयत्युचितम् लोकोत्तरत्वात् इति भावः, एवं नीराजयन्तीति देशाचारः । अत्र विधुतल्लाञ्छनादेर्नीराजनशरावगोमयादित्वेन निरूपणात्सावयवरूपकम् ॥ २६ ॥ ____ अन्वयः-विधिः घृतलाञ्छनगोमयाञ्चनम् आलेपनपाण्डरं विधु विदर्भजानननीराजनवर्द्धमानकं भ्रमयति-( इति ) उचितम् ।।
हिन्दी-ब्रह्मा कलङ्क-चिह्न रूप गोवर के अँचना ( लेप ) से युक्त, पिष्टोदक ( ऐपन ) से भूरे चंद्र को विदर्भतनया ( दमयन्ती ) के मुख की आरात्तिका ( आरती ) के निमित्त मृत्पात्र (मिट्टी का वर्तन-शराब, सरैया ) के समान जो घुमाता है, सो वह उचित ही करता है ।
टिप्पणी-सूर्य-चंद्र सब ईश्वरेच्छा से घूमा ही करते हैं-यह प्रकृति का नियम है। कवि दमयन्ती के मुख के सम्मुख चंद्र कहीं निकृष्ट है-यह प्रमाणित करने के लिए चंद्र-भ्रमण का कारण बताता है कि दमयन्ती के मुख की आरती उतारने के लिए ब्रह्मा की चेष्टा, जिससे इस सलौने मुखड़े को नजर न लग जाय, संपूर्ण दृष्टिदोषों का निराकरण हो जाय-उर्दू-मुहावरे के अनुसार 'चश्मे-बदूर'। चंद्रमा को गोबर से लिपा ऐपन से भूरा किया गया मिट्टी का पात्र बनाया गया है, जिससे यह दृष्टिदोष निराकरण हो रहा है। लोकजीवन में भी