Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 248
________________ ५६ नैषधमहाकाव्यम् तो लगता कि कसौटी पर कसे गये सोने की लकीर है । मल्लिनाथ के अनुसार उत्प्रेक्षा, विद्याधर के अनुसार उत्प्रेक्षा और उपमा, जिसमें उत्प्रेक्षा की अंगभूता है । इसे चंद्रकलाकार ने उपमा उत्प्रेक्षा का संकर कहा है ॥ ६९ ॥ विनमद्भिरधः स्थितैः खगैर्झटिति श्येननिपातशङ्किभिः । न निरक्षि दृशैकयोपरि स्यदसांकारिपतत्रिपद्धतिः ॥ ७० ॥ जीवातु - विनमद्भिरिति । स्यदेन वेगेन नांकारिणी सामिति शब्दं कुर्वाणा पतत्रिपद्धतिः पक्षसरणिर्यस्य स हंसः श्येननिपातं शङ्कत इति तच्छङ्किभिः अतएव विनमद्भिर्विलीयमानैरधः स्थितः खर्गः झटिति द्राक् एकया हशा उपरि निरक्षि निरीक्षितः । कर्मणि लुङ् । स्वभावोक्तिः ॥ ७० ॥ अन्वयः -- स्यदसाङ्कारिपतत्रिपद्धतिः सः श्येननिपातशङ्किभिः विनमद्भिः अधः स्थितैः खगैः झटिति एकया हशा उपरि निरंक्षि । हिन्दी - - वेग के कारण 'साँ साँ' करते पंखों वाला वह ( हंस ) बाजपक्षी के आक्रमण की शंका कर नीचे झुकते, अतएव निम्न भाग में जाकर उड़ते आकाशचारियों ( पक्षियों ) द्वारा झटपट ऊपर एक निगाह से ही देखा गया । टिप्पणी-- हंस इतने वेग से उड़ा जा रहा था कि उसके पंखों से 'साँ- सां' की ध्वनि हो रही थी, अतएव अन्य उड़ते विहंगों को शङ्का हुई कि कहीं यह आक्रांता] श्येन न हो, सो वे ऊपर केवल एक दृष्टि डाल कर उससे त्राण पाने को और नीचे जाकर उड़ने लगे । मल्लिनाथ के अनुसार स्वभावोक्ति, विद्याधर के अनुसार जाति और काव्यलिंग ।। ७० ।। ददृशे न जनेन यन्नसौ भुवि तच्छायमवेक्ष्य तत्क्षणात् । दिवि दिक्षु वितीर्णचक्षुषा पृथुवेगद्रुतमुक्तदृक्पथः ॥ ७१ ॥ जीव तु -- द --दहश इति । यन् गच्छन्, इणो लटः शत्रादेशः असौ हंसः भुवि तच्छायं तस्य हंसस्य च्छायां ' विभाषा सेनेत्यादिना नपुंसकत्वम् । अवेक्ष्य तत् क्षणात् प्रथमं दिशि पश्चात् दिक्षु च वितीर्णचक्षुषा दत्तदृष्टिना जनेन पृथुवेगेन द्रुतं शीघ्र मुक्तक्पथः सन् न ददृशे न दृष्टः । क्षणमात्रेण दृष्टिपथमतिक्रान्त इत्यर्थः ॥ ७१ ॥

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