Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 272
________________ ८० नैषधमहाकाध्यम् आश्चर्यरूपा होना ही चाहिए ) । और जहाँ वाचाट अतएव अनल्पमुख ब्राह्मणों द्वारा 'आरव' (वेदपाठ ) होता है, वहाँ उदात्त; अनुदात्त, स्वरित आदि स्वरों का भेद क्यों न हो ? ( त्रिस्वर वेद-पाठ में स्वरभेद होगा ही)। (३ ) वह नगरी आश्चर्य विचित्र ( अनूठी ) क्यों न हो, जहाँ आठ (उर, कण्ठ, शिर, जिह्वामूल, दन्त, नासिका, ओष्ठ, तालु) स्थानों से उच्चरित होते वर्ण स्थित हों ? ( जहाँ सलक्षण वेदपाठ होता है, वह विचित्र है ही, क्योंकि सर्वत्र ऐसा सम्भव नहीं है )। और वह नगरी 'स्व:' ( स्वर्ग ) से 'अभेद' क्यों न स्थापित करे, जहाँ अनल्पमुख ब्राह्मण 'अनल्पमुख' अर्थात् अनेक मुख वाले (चतुमुख) ब्रह्मा जैसे स्वर्ग में वेद का 'आरव' करते रहते हैं, उसी प्रकार वेदस्वर गुजरित करते रहते हैं ? अथवा स्वर्ग में अनल्पमुख-चतुम ख ब्रह्मा पंचमुख शिव, षण्मुख स्कंद के स्वर जैसे हैं, वैसे ही नगरी में अनेक मुखों के शब्द रव होते हैं। टिप्पणी-चित्रमयी कुडिनपुरी का वर्णन विचित्र श्लिष्ट शब्दावलि में किया है, जिसके तीन अर्थ नगरी के वैचित्र्य को प्रकट करते हैं, वहाँ वर्णव्यवस्था की मर्यादा है, सलक्षण सस्वर वेदपाठ होता है, अनेक आलेख्य सजे हैं, प्रचुर जन-बल है । विद्याधर के अनुसार यहाँ श्लेष अलंकार है, जिसे मल्लिनाथ ने प्रकृत श्लेष कहा है, क्योंकि सभी अर्थ प्रकृत हैं। केवल दो अर्थों के उल्लेख करते मल्लिनाथ ने बताया है कि एक नाल में दो फलों के समान एक शब्द के दो अर्थ प्रतीत होने से प्रथमार्द्ध में अर्थश्लेष है, द्वितीयार्द्ध में जतुकाष्ठवत् एकभूत दो शब्दों से अर्थ प्रतीति होने के कारण शब्दश्लेष है। चंद्रकलाकार के अनुसार पूर्वाद्ध में अर्थापत्ति, शब्दश्लेष धीर प्रकृतश्लेष का एकाश्रयानुप्रवेशरूप संकर है, द्वितीयाद्धं में भी उसी प्रकार संकर है और सम्पूर्ण श्लोक में संसृष्टि है। स्वरुचाऽरुणया पताकया दिनमर्केण समीयुषोत्तृषः। लिलिहुर्बहुधा सुधाकरं निशि माणिक्यमया यदालयाः॥ ९९ ॥ जीवातु-स्वरुचेति । माणिक्यमयाः पद्मरागमयाः यदालयाः यस्यां नगर्यां गृहाः दिने दिने, अत्यन्तसंयागे द्वितीया । समीयुषा सङ्गतेन अर्केण हेतुना उत्तुषः अर्कसम्पर्कादुत्पन्नपिपासाः सन्तः स्वरुचा स्वप्रभया अरुणया आरुण्यं

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