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द्वितीयः सर्गः:
टिप्पणी-वैदर्भी के केलि-शैल की उच्चता द्योतित है, जो मरकत का बना है, जिनसे निकलती किरणों के अग्रभाग उत्तानगा देवगी में मुख के पहुंच गौ को ग्रास खिलाने का पुण्य निरन्तर नगरी को दिलाते रहते हैं। केलि-शैल के मरकत रत्नों की किरणें ब्रह्मांड की ओर वेग से उठीं, परन्तु ब्रह्माण्ड-संघट्टन से उनका वेग गर्व खंडित हो गया और वे फिर नीचे की ओर गिरीं कि उत्तानगा किसी सुरसुरभि के मुख में जा गिरी। इस प्रकार अनायास ही नगरी को गोग्रास देने का पुण्य मिलता रहा। मल्लिनाथ ने असंबंध में सबंधकथनरूपा अतिशयोक्ति का उल्लेख करते हुए यह भी बताया है कि कुछ टीकाकारों ने यहाँ अत्युत्तमालंकार भी माना है। विद्याधर ने रूपकातिशयोक्ति मानी है, चंद्रकलाकार ( 'अंशुदर्भः' में ) रूपक, अतिशयोक्ति, प्रतीयमानोत्प्रेक्षा और उदात्त अलंकारों की संसृष्टि मानते हैं। स्रग्धरा छंद है, जिसके प्रत्येक चरण में एक मगण (sss), एक रगण (sis), एक भगण (su), एक नगण (m), तीन यगण (Iss) के क्रम से इक्कीस वर्ण होते हैं। सात-सात-सात पर यति होती है-'भ्रम्नर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीत्तितेयम् ॥ १०५ ॥ विधुकरपरिरम्भादात्तनिष्यन्दपूर्णैः
शशिदृषदुपक्लुप्तरालवालस्तरूणाम् । विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण
व्यरचि स हृतचित्तस्तत्र भैमीवनेन ॥ १०६ ॥ जीवातु--विध्विति । तत्र तस्यां नगर्यां शशिदृषदुपक्लुप्तेश्चन्द्रकान्तशि. लाबद्धः अत एव विधुकरपरिरम्भात् चन्द्रकिरणसम्पर्कात् हेतोः आत्तनिष्यन्दैः जलप्रसवर्णरेव पूर्णस्तरूणामालवालविफलितं व्यर्थीकृतं जलसेकस्य प्रक्रियायां प्रकारे गौरवं भारो यस्य तेन भैमीवनेन स हंसो हृतचित्तो व्यरचि। कर्मणि लुङ् । अत्रालवालानां चन्द्रकान्तनिष्यन्दासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः । एतदारभ्य चतुःश्लोकपर्यन्तं मालिनीवृत्तं-'ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैरिति लक्षणात् ॥ १०६ ॥
अन्वयः-तत्र शशिषदुपक्लुप्तः विधुकरपरिरम्मात् आत्तनिष्यन्दपूर्णः