Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 270
________________ नैषधमहाकाव्यम् 'स्थाध्वोरिच्चे' तीत्वं 'ह्रस्वादङ्गादिति सलोपः । अत्र अन्यश्रियोऽन्यस्यासम्भवात् श्रियमिव श्रियमिति सादृश्याक्षेपानिदर्शनाभेदः । तथा तदङ्गानां पङ्कजाद्यभेदोक्तेरतियोक्तिः । तदुत्था पिता चेयं निदर्शनंति सङ्करः ॥ ९६ ।। अन्वयः-यत्र पङ्कजः मुखपाणिपदाक्षिण चम्पर्कः अपरेषु अंगेषु रचिता भीमजा स्मरपूजाकुसुमस्रजः श्रियं स्वयम् आदित । हिन्दी-जहाँ कमलों द्वारा जिसके मुख, हाथ, पैर और नयन रचे गये हैं और चम्पक पुष्पों से अन्य अंग, ऐसी फूलों से रची गयी भीमपुत्री (दमयन्ती) ने काम-पूजा की फूलमाला की शोभा को स्वयम् ही स्वीकार लिया था । टिप्पणी-कमलवदना, कमलकरचरणा, पंकजनयना, चम्पकतनु दमयन्ती जैसे फूलों की बनी थी, इस प्रकार वही मानों स्वयम् कामपूजा की पुष्पमाल थी। काम भी उससे सन्तुष्ट हो जाने की स्थिति में था। जो उसे एक वार देख लेता था, उसकी 'कामना' करने लगता था। मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति और तदुत्थापिता निदर्शना का संकर है, विद्याधर की दृष्टि में निदर्शना और रूपक ।।९६॥ जघनस्तनभारगौरवाद्वियदालम्ब्य विहर्तुमक्षमाः । ध्रुवमप्सरसोऽवतीर्य यां शतमध्यासत तत्सखीजनः॥ ९७ ॥ जीवातु--जघनेति । जघनानि च स्तनौ च जघनस्तनं, प्राण्यङ्गत्वाद् द्वन्द्वकवद्भावः । तदेव भारः तस्य गौरवात् गुरुत्वाद्वियदालम्ब्य विहर्तुमक्षमा शतं शतसंख्याका: 'विंशत्याद्याः सदैकत्वे संख्याः संख्येयसंख्ययोरि' त्यमरः । अप्सरसोऽवतीर्य स्वर्गादागत्य तत्सखीजनः सख्यः जातावेकवचनम् । यां नगरीमध्यासत अध्यतिष्ठन्, 'अधिशीङ्स्थासां कर्मेति कर्मत्वं ध्र वमित्युत्प्रेक्षा । अप्सरःकल्पाः शतं सख्य एनामुपासत इत्यर्थः ॥ ९७ ॥ अन्वयः--जघनस्तनभारगौरवात् वियत् आलम्ब्य विहर्तुम् अक्षमाः शतम् अप्सरसः अवतीयं तत्सखीजनः याम् अध्यासत ध्र वम् । हिन्दी--जघन ( नितंब ) और कुच-मार गुरु (गरुआ) होने से आकाश का सहारा लेकर विहार करने में अक्षम ( असमर्थ ) सैकड़ों अप्सराएँ (धरती

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