Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 269
________________ द्वितीयः सर्ग। ওও नगर्याः कुण्डलिग्रन्थत्वेनोत्प्रेक्षा ॥ सा च परिखावलयच्छलेनेति अपह्नवोत्थापितत्वात सापह्नवा व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्या ॥ ९५ ॥ ___ अन्वयः--परिखावलयच्छलेन कुण्डलनाम् अदापिता परेषां ग्रहणस्य न गोचरा विषया फणिभाषितभाष्यफक्किका । हिन्दी-खेया-मण्डल ( खाई के घेरे ) के व्याज से कुण्डलना (गोलाकार) को प्राप्त ( घिरी ) अतएव शत्रुओं के अधीन ( पराधीन ) न हो सकने का विषय जो ( नगरी ) अन्य लोगों के ज्ञान का अविषय बनी, कुण्डलिता शेषावतार महामुनि पतञ्जलिकृत महाभाष्य की फक्किका के समान थी। टिप्पणी--जनश्रुति है कि वररुचि ने पातञ्जल महाभाष्य को फक्किका को कुण्डलित कर दिया था अर्थात् ग्रन्थ के दुर्जेय स्थलों पर घेरा बना दिया था कि इनका आशय 'शेष' ही समझ सकते हैं अन्य कोई नहीं, इसी प्रकार कुण्डिनपुरी को 'कुण्डलिता' अर्थात् खाई से घिरी होने के कारण पर-शत्रु अपने अधीन करने की बात सोच भी नहीं पाते थे। मल्लिनाथ के अनुसार अपह नव से उत्थापित 'सापह्नवा-गम्योत्प्रेक्षा' है, विद्याधर की दृष्टि में यहाँ अपह, नुति और उपमा अलंकार है । चंद्रकलाकार के अनुसार प्रतीयमानोत्प्रेक्षा-कैतवापह्न ति का संकर है। राजशेखर के अनुसार 'आक्षिप्य भाषणाद् भाष्यम्' ( काव्यमीमांसाशास्त्रनिर्देशाध्याय, अर्थात् स्वयम् शङ्काओं का आक्षेप करके उसका समाधान भाष्य है । एक और परिभाषा के अनुसार जहाँ सूत्रानुसारी पदों के द्वारा सूत्रार्थ किया जाता और स्वपदों का वर्णन होता है, वह भाष्य है-'सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र पदैः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ।।' मुखपाणिपदाक्षिण पङ्कजै रचिताऽङ्गेष्वपरेषु चम्पकैः । स्वयमादित यत्र भीमजा स्मरपूजाकुसुमस्रजः श्रियम् ॥ ९६ ।। जीवातु--सुखेति । यत्र नगर्यां मुखञ्च पाणी च पदे च अक्षिणी च यस्मिन् तस्मिन् प्राण्यङ्गत्वाद् द्वन्द्वकवद्भावः । पङ्कजैः रचिता सृष्टा अपरेषु मुखादिव्यतिरिक्तेष्वङ्गषु चम्पकैश्चम्पकपुष्पः रचिता सर्वत्र सादृश्याव्यपदेशः । भीमजा भैमी स्वयं स्मरपूजाकुसुमस्रजः श्रियं शोभामादित आत्तवती। ददातेलुङि

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