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नैषधमहाकाव्यम् की दृष्टि में विशेषोक्ति और उदात्त अलंकार, चंद्रकलाकार ने इन दोनों अलंकारों के अंगांगिमाव से स्थित होने के आधार पर दोनों का संकर माना है ॥ ९३ ।।
विधुदीधितिजेन यत्पथं पयसा नैषधशीलशीतलम् । शशिकान्तमयं तपागमे कलितीव्रस्तपति स्म नातपः ॥९४ ॥
जीवात-विध्विति। विधुदीवितिजेन इन्दुकरसम्पर्कजन्येन पयसा सलिलेन नैषधस्य नलस्य शीलं वृत्तं स्वभावो वा तद्वच्छीतलं शशिकान्तमयं यत्पथं यस्याः नगर्याः पन्थानं तपागमे ग्रीष्मप्रवेक्षे कलितीव्रः कलिकालवच्चण्डः आतपः न तपति स्म । नल कथायाः कलिनाशकत्वादिति भावः । अत्र नगरपथस्य इन्दूपलपयःसम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः, तत्सापेक्षत्वादुपमयोः सङ्करः ।। ९४ ।।
अन्वयः--विधुदीधितिजेन पयसा नषघशीलशीतलं शशिकान्तमयं यत्पथं तपागमे कलितीव्रः आतपः न तपति स्म ।
हिन्दी-चंद्रकिरणों से संजात जल के कारण निषधराज ( नल ) के शील-से शीतल चंद्रकांतमणिमय जिस (नगरी) के मार्ग को ग्रीष्मतुं के आजाने पर कलि के तुल्य तीक्ष्ण धूप ताप न दे पाती थी।
टिप्पणी-इस श्लोक में पूर्व श्लोक की भांति मार्ग के ग्रीष्मर्तु, में भी शीतल रहने का विवरण दिया गया है, साथ ही संकेत है कि नल कथा के श्रवण से कलि-प्रभाव नष्ट होता है, जैसा कि 'न. च.' (११) में "क्षितिरक्षिणः' से ( अक्षिणः क्षितिः ) अक्षी-कलि का नाश बताया गया है । मल्लिनाथ ने पूर्व श्लोक के समान अतिशयोक्ति और तत्सापेक्ष होने से उपमा के संकर का निर्देश किया है, विद्याधर के अनुसार विशेषोक्ति-उदात्त-उपमा की संसृष्टि है ॥ ९४ ।।
परिखावलयच्छलेन या न परेषां ग्रहणस्य गोचरा। फणिभाषितभाष्यफक्किका विषमा कुण्डलनामवापिता॥९५ ॥
जीवातु--परिखेति । परिखावलयच्छलेन परिखावेष्टनव्याजेन कुण्डलनां मण्डलाकाररेखामवापिता परेषां शत्रूणां ग्रहणस्याक्रमणस्य अन्यत्र अन्येषां ग्रहणस्य ज्ञानस्य न गोचरा अविषया या नगरी विषमा दुर्बोधा फणिभाषितभाष्यफक्किका पतञ्जलिप्रणीतमहाभाष्यस्थकुण्डलिग्रन्थः तद्वदिति शेषः । अत्र