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द्वितीयः सर्गः
ने उत्प्रेक्षालंकार का उल्लेख किया है, विद्याधर ने उत्प्रेक्षा और रूपक का, चंद्रकलाकार दोनों अलंकारों की निरपेक्ष स्थिति के कारण संसृष्टि मानते हैं ।
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बसिदिवं स तथ्यवागुपरि स्माह दिवोऽपि नारदः । अधराथ कृता ययेव सा विपरीताऽजनि भूमिभूषया ॥ ८४ ॥ जीवातु - बलीति । स प्रसिद्धः तथ्यवाक् सत्यवचनः नारदः बलिसद्मदिवं पातालस्वर्गं दिवो मेरुस्वर्गादप्युपरिस्थितामुत्कृष्टाञ्चाह स्म उक्तवान् । अदानीं भूमिभूषया यया नगर्या अघरा न्यूना अघस्ताच्च कृतेवेत्युत्प्रेक्षा सा सिद्यौर्विपरीता नारदोक्तविपरीता अजनि । सर्वोपरिस्थितायाः पुनरघः स्थितिः वैपरीत्यम् ॥ ८४ ॥
अन्वयः - तथ्यवाक् सः नारदः बलिसद्द्मदिवं दिवः अपि उपरि आह स्म, अथ भूमिभूषया यया अधरा कृता इव सा विपरीता अजनि ।
हिन्दी - - सत्यवादी उन देवर्षि नारद ने बलिराज के आवास पाताल-स्वर्ग को द्यौ स्वगं से भी ऊपर ( ऊँचा, श्रेष्ठ ) कहा था, परन्तु पृथ्वी को अलंकृत करनेवाली कुडिनपुरी द्वारा जैसे नीची ( न्यून, अवर, अंग्रेजी भाषा में 'डाउन' ) कर दी गयी वह ( पातालपुरी ) विपरीत ( पुनः निम्नभागस्थिता ) हो गयी ।
टिप्पणी- --नारद ने तो ठीक ही कहा था कि बलिराज का वैभव, उनका पाताल स्वर्ग को भी तिरस्कृत करने वाला है, पर कुंडिनपुरी के वैभव के सम्मुख पातालपुरी का वैभव भी नगण्य हो गया, तो अधः स्थित पाताल पुनः अघःस्थित हो गया । नारद के कथनानुसार पाताल स्वर्ग से समृद्ध था, कुंडिन पुरी पाताल से भी समृद्ध है, इस प्रकार कुंडिनपुरी पाताल-स्वर्ग दोनों से श्रेष्ठ सिद्ध हुई । 'स्वर्लोकादपि रम्याणि पातालानीति नारदः । प्राह स्वर्गसदां मध्ये पातालेभ्यो गतो दिवि ॥' ( विष्णुपुराण २१५ - ५ ) । मल्लिनाथ ने उत्प्रेक्षा का उल्लेख किया है, विद्याधर के अनुसार यहाँ उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार है, जिनका अंगांगिभाव 'संकर' चंद्रकलाकार द्वारा निर्दिष्ट है ॥ ८४ ॥
प्रतिहट्टपथे घरट्टजात् पथिकाह् वानदसकुसौरभैः ।
कल हान्न घनान् यदुत्थितादधुनाप्युज्झति घर्घरस्वरः ॥ ८५ ॥