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द्वितीयः सर्गः
शकल निष्कलङ्कानि कुड्यानि येपान्ते 'भित्तं शकलखण्डे वे'त्यमरः, भिदेः क्विप्रत्ययः । 'भित्तं शकलमि'त्यादि निपातनात् 'रदाभ्या मि'त्यादिना निष्ठानत्वाभावः । गृहाः दयितं भीमं प्रति सन्ततं भुवः भूमेर्नायिकायाः रतिहासाः केलिहासा इव रेजिरे इत्युत्प्रेक्षा ॥ ७४ ॥
अन्वयः--यत्र स्फटिकोपलविग्रहाः शशभृद्भित्तनिरङ्कभित्तयः गृहाः दयितं प्रति सन्ततं भुवः रतिहासाः इव रेजिरे ।
हिन्दो-जिस नगरी में स्फटिकरत्नमय शरीर धारी (स्फटिकरत्नों से निर्मित), शशांक ( चंद्र ) के खंड ( कला ) के तुल्य निष्कलंक दीवारों वाले घर स्वामी (राजा) के प्रति प्रवृत्त पृथ्वी के सुरतकेलिसमय के हासों के समान सुशोभित थे।
टिप्पणी-गृहों की समृद्धि जनित शोमा के वर्णन के साथ ही 'रतिहास' के साम्य द्वारा कवि यह द्योतित करना चाहता है कि भीमनरेश पृथ्वी का प्रिय पति 'दयित' था, जिसके साथ वह निरंतर रतिकेलि में निमग्न रहती थी। मल्लिनाथ के अनुसार उत्प्रेक्षा, विद्याधर ने यहाँ अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा का उल्लेख किया है। चंद्रकलाकार उत्प्रेक्षा-उपमा की संसृष्टि का निर्देश करते हैं ।। ७४ ।।
नृपनीलमणीगृहत्विषामुपयत्र भयेन भास्वतः।
शरणाप्तमुवास वासरेऽप्यसदावृत्त्युदयत्तमं तमः ।। ७५ ।। जीवातु-नृपेति । यत्र नगर्या तमोन्धकारः भास्वतो भास्करात् भयेन नृपस्य ये नीलमणीनां गृहाः तेषां त्विषः तासामुपधेश्छलादित्यपह्नवभेदः । 'रत्नं मणियोरि'त्यमरः । 'कृदिकारादक्तिनः' इति ङीष् । शरणाप्त शरणं गृहं रक्षितारमन्वागतं 'शरणं गृहरक्षित्रोरि'त्यमरः । वासरे दिवसेऽप्यसदावृत्ति अपुनरावृत्ति किञ्चोदयत्तममुद्यत्तमं सदुवास ॥ ७५ ॥
अन्वयः--यत्र भास्वतः भयेन नृपनीलमणीगृहत्विषाम् उपधेः शरणाप्तं तमः वासरे अपि असदावृत्ति उदयत्तमम् उवास ।
हिन्दी-जहाँ सूर्य के भय से राजा के नीलमणि से बने गृहों की नील कांति के व्याज से शरण-प्राप्त अंधकार दिन में भी आवृत्तिहीन उदय को प्राप्त होता निवास करता था।