Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 255
________________ द्वितीयः सर्गः यस्मिन् तस्मिन् प्रतिविम्बाकान्तमम्बु परितः स्फुरति प्रतिबिम्बदेशेन स्फुरति तेनैव प्रतिबिम्बादिति भावः क्वचन कुत्रचिज्जलाशयोदरे ह्रदमध्ये कस्यचित् ह्रदस्य मध्य इत्यर्थः । अनुविम्बिता प्रतिबिम्बिता द्यौरमरावतीव विललासेत्युत्प्रेक्षा ॥ ७९ ॥ _अन्वयः-या परिखाकपटस्फुटस्फुरत्प्रतिविम्बानवलम्बिताम्बुनि क्वचन जलाशयोदरे अनुबिम्बिता द्यौः इव विललास । हिन्दी--जो ( कुडिनपुरी ) खाई के व्याज से व्यक्त, स्फुरित होते अपने प्रतिबिम्ब से निराधार जल में कहीं जलाशय के मध्य प्रतिबिम्बित होती स्वर्गपुरी जैसी विलसित होती थी। टिप्पणी नगरी के चारों ओर जल मरी विशाल खाई थी, जिसमें कहींकहीं नगरी की परछाई स्पष्ट होती थी, लगता था कि स्वर्गपुरी ही जल में उतर आयी है। जहाँ-जहाँ परछाई पड़ती थी, वहां नगरी ही दीखती थी जल नहीं । उत्प्रेक्षा, विद्याधर ने इसके अतिरिक्त अपह नुति भी मानी है, क्योंकि 'परिखा नहीं, जलाशय ही है-ऐसी भावना भी बनती है। चंद्रकलाकार ने कतावापह नुति-उत्प्रेक्षा की संसृष्टि का उल्लेख किया है ॥ ७९ ॥ व्रजते दिवि यद्ग्रहावलोचलचेलाञ्चलदण्डताडनाः। व्यतरन्नरुणाय विश्रमं सृजते हेलिहयालिकालनाम् ।। ८० ॥ जीवातु-व्रजत इति । यस्यां नगर्यां गृहावलीषु चलाः चञ्चलाः चेलाउचलाः पताकाग्राणि ता एव दण्डास्तैः ताडनाः कशाघाता इत्यर्थः । ताः को दिवि व्रजते खे गच्छते हेलिहयालेः सूर्याश्वपङ्क्तः 'हेलिरालिङ्गने रवावि'ति वैजयन्ती। कालनां चोदनां सृजते कुर्वते अरुणाय सूर्यसारथये विश्रमं स्वयं तत्कार्यकरणाद्विश्रान्ति 'नोदात्तोपदेशे'त्यादिना घनि वृद्धिप्रतिषेधः। व्यतरन् ददुः । अत्र हेलिहयालेश्च लाञ्चलदण्डताडनासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिभेदः, तेन गृहाणामर्कमण्डलपर्यन्तमौनत्यं व्यज्यत इति अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः ।। ८० ॥ __ अन्वयः-यद्गृहावलीचलचेलाञ्चलदण्डताडनाः दिवि बजते हेलिहयालिकालनां सृजते अरुणाय विश्रमं व्यतरन् ।

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