________________
द्वितीयः सर्गः
कर यह सौभाग्य मिला है। ऐसे ही उत्तमा गति प्राप्त होती है। 'साहित्यविद्याधरी के अनुसार यहाँ समासोक्ति है और 'चंद्रकलाख्या' के अनुसार समासोक्ति और अर्थापत्ति का अंगांगिमाव संकर ॥ ३९ ॥
सरसीः परिशीलितुं मया गमिकर्मीकृतनैकनीवृता। अतिथित्वमनायि सा दशोः सदसत्संशयगोचरोदरी ॥ ४०॥
जीवात--अथ कथं त्वमेनां वेत्सीत्यत आह-सरसीरिति । सरसीः सरांसि परिशीलितुं परिचेतु तत्र विहर्तुमित्यर्थः । चुरादिणेरनित्यत्वादण्यन्तप्रयोगः । गमिर्गमनं शब्दपरशब्देनार्थो गम्यते तस्य कर्मीकृताः कर्मकारकीकृताः नके अनेके नअर्थस्य नशब्दस्य सुप्सुपेति समासः । नितरां वर्तन्ते जना येष्विति नीवृतः जनपदाः येन तेन क्रान्तानेकदेशेनेत्यर्थः । 'नहिवती'त्या दिना दीर्घः । मया सदसद्व ति संशयगोचरः सन्देहास्पदमुदरं यस्याः सा कृशोदरीत्यर्थः । 'नासिकोदरे' त्या दिना ङीप । सा दमयन्ती दृशोरतिथित्वमनायि स्वविषयतां नीता दृष्टेत्यर्थः । नयतेः कर्मणि लुङ् ।। ४० ॥
अन्वयः--सरसीः परिशीलितुं गमिकर्मीकृतनैकनीवृता मया सदसत्संशयगोचरोदरी सा दृशोः अतिथित्वम् अनायि ।
हिन्दी-अनेक सरोवरों में अवगाहन करने की इच्छा से अनेक देशों को गमन कर्म का विषय बनाते ( अनेक दिशा-दिशान्तरों में घूमते ) मैंने जिसका उदर 'अस्ति-नास्ति' का संशय उत्पन्न कर देता है-दृष्टिपथ में आता ही नहींउस कृशोदरी) को नयनों का अतिथि बनाया ( देखा )।
टिप्पणो-विचित्र है कि जिसका अंग सरलतया दृष्टिगोचर ही नहीं हो पाता, उसे हंस ने अपने नयनों से देखा। यह दिग्दिगंत में परिभ्रमण से ही हो सका, अर्थात् अनेक देशों में वही ऐसी अकेली सुन्दरी है। अद्वितीया, अनुपमा, उस-सी और कोई नहीं। साहित्यविद्याधरी के अनुसार 'वक्रोक्ति जीवित' के आधार पर यहाँ 'अथं को प्रोढि' अर्थात् ओज गुण और पर्याय-वक्रताप्रकार है । अतिशयोक्ति ॥ ४० ॥
अवधृत्य दिवोऽपि यौवतर्न सहाधीतवतीमिमामहम् । कनमस्तु विधातुराशये पतिरस्या वसतीत्यचिन्तयम् ॥ ४१ ॥