________________
द्वितीयः सर्गः
३७
टिप्पणी--'पूर्वपक्ष' होता है किसी 'विचार' का आरम्भिक, असिद्ध और संदेहास्पद पक्ष, जो उत्तरपक्ष अर्थात् सिद्धांत पक्ष की अपेक्षा दुर्बल होगा ही। पूर्वपक्षमें जो समस्या उठायी जाती है, सिद्धांत पक्ष में उस का समाधान होता है। पूर्वश्लोक के अनुसार हंत को दृष्टि में त्रिलोकी का कोई तरुण-तरुणी दमयन्तो के सदृश नहीं आया। उस स्थिति में उसके मन में स्वाभाविक विचार आया कि कौन तरुण इसका अनुरूप पति होगा ? अनेक ख्यात युवकों पर विचार किया, पर वे 'पूर्वपक्ष' ही रहे, 'समाधान' न बन पाये, 'समाधान' मिला नल के रूप में । सिद्धांत यह निर्णीत हुआ कि त्रिलोक में दमयन्ती के अनुरूप नल ही है। इस प्रकार अन्य तरुण हैं 'पूर्वपक्ष' और नल है 'सिद्धान्तपक्ष' । सम अलंकार ।। ४२॥
अनया तव रूपसीमया कृतसंस्कारविबोधनस्य मे। चिरमप्यवलोकिताऽद्य सा स्मृतिमारूढवती शुचिस्मिता ॥ ४३ ॥
जीवात-अथ त्वद्रूपदर्शनमेव सम्प्रति तत्स्मारकमित्याह--अनयेति । चिरमवलोकिताऽपि सा शुचिस्मिता सुन्दरी अद्याधुना हस्तेन निर्दिशन्नाह - अनया तव रूपसीमया सौन्दर्यकाष्ठया कृतसंस्कारविवोधनस्य उद्बुद्धसंस्कारस्य मे स्मृतिमारूढवती स्मृतिपथङ्गता, सदृशदर्शनं स्मारकमित्यर्थः ।। ४३ ॥
अन्वयः-अद्य अनया तव रूपसीमया चिरम् अवलोकिता अपि सा शुचिस्मिता कृतसंस्कारविबोधनस्य मे स्मृतिम् आरूढवती।
हिन्दी-आज इस आपकी रूप-सीमा (लावण्य की पराकाष्ठा ) द्वारा बहुत काल पूर्व देखी गयी भी वह शुभ्रमंदहासशालिनी ( दमयन्ती) पूर्व संस्कार के समुद्बोध के कारण मेरी ( हंस की ) स्मृति में आ गयी।
टिप्पणी-मदृश वस्तु के दर्शन से प्राक्तन संस्कार उबुद्ध हो जाते हैं और पूर्व दृष्ट का स्मरण हो आता है। दमयन्ती के अनुरूप नल को देख कर हंस की पुरानी स्मृति नवीन हो गयी और दमयन्ती ध्यान में आ गयी। स्मरण अलंकार ॥ ४३ ।।
त्वयि वोर ! विराजते परं दमयन्तीकिलकिंचितं किल । तरुणोस्तन एव दीप्यते मणिहारावलिरामणीयकम् ॥ ४४ ॥