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द्वितीयः सर्गः
तथा हि साधवो निजोपयोगितां स्वोपकारित्वं फलेन कार्येण ब्रुवते बोधयन्ति, किन्तु कण्ठेन वाग्वृत्त्या न ब्रुवते । सामान्येन विशेष समर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ अन्वयः --- अत्र केवलां तव सम्मतिम् अधिगन्तुम् इदं निवेदितम् धिक्, हि साधवः निजोपयोगितां फलेन ब्रुवते न तु कण्ठेन ।
हिन्दी - इस समय केवल आपकी स्वीकृति प्राप्त करने के निमित्त जो यह निवेदन किया, उसे धिक्कार, क्योंकि मले व्यक्ति अपनी उपयोगिता फल ( कार्य ) से ही बखानते हैं, कण्ठ से ( मौखिक ) नहीं । टिप्पणी--- सज्जन अपनी सार्थकता क्रिया द्वारा प्रमाणित करते हैं, केवल बातों से नहीं । हंस ने जो इतना कहा, वह इसी कारण कि कार्य सम्पन्न करने से पूर्व वह महराज नल की 'मंजूरी' चाहता था । अर्थान्तरन्यास ॥ ४८ ॥
तदिदं विशदं वचोऽमृतं परिपीयाभ्युदितं द्विजाधिपात् । अतितृप्ततया विनिर्ममे स तदुद्गारमिव स्मितं सितम् ॥ ४९ ॥
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जीवातु - तदिति । स नलो द्विजाधिपात् हंसाच्चन्द्राच्चाम्युदितमाविभूतं विशदं प्रसन्नमवदातञ्च तत् पूर्वोक्तमिदमनुभूयमानं वच एवामृतमिति रूपकं तत्परिपीय अत एव अतितृप्ततया अतिसौहित्येन तस्य वचोऽमृतस्य उद्गारमिव सितं स्मितं विनिर्ममे निर्मितवान् । माङः कर्त्तरि लिट् । अतितृसस्य किञ्चिन्निःसार उद्गारः । सितत्वसाम्यात् स्मितस्य वागमृतोद्गारोत्प्रेक्षा ।
अन्वयः - द्विजाधिपात् अभ्युदितं विशदं तत् इदं वचोमृतं परिपीय सः अतितृष्ठतया तदुद्गारम् इव सितं स्मितं विनिर्ममे ।
हिन्दी — द्विजराज चंद्र के समान शुभ्र द्विजराज ( पक्षिराज हंस ) से उदित (निःसृत, कहे गये ) विशद ( उज्ज्वल, विस्तृत ) वचनामृत का पान कर अत्यन्त तृप्ति के कारण उस ( राजा नल ) ने उस ( हंस- वचन ) के उद्गार के सदृश मंद हास्य किया ।
टिप्पणी- राजा को हंस का मिला। हंस का वचन अमृत के उद्भव होता है । कविसमयसिद्ध
प्रस्ताव सुनकर समान शुभ्र है, मंद हास्य का
अत्यन्त सन्तोष और सुख क्योंकि श्वेत से श्वेत ही का वर्ण मो श्वेत । मल्लिनाथ