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द्वितीयः सर्गः
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साधनभूत होता है, जैसे घट का कुलाल, उसका दण्ड आदि । कारण के गुण कार्य में आते हैं, पर केवल समवाथि कारण के, असमवायि और नित्तिम के नहीं । परन्तु दमयन्ती के कुलाल - चक्रभ्रमकारी कुचकलश में यह चक्रभ्रम गुण ( द्रव्य नहीं ) निमित्त कारण दण्ड से आया है । यह कितना विचित्र है कि न्यायशास्त्र के नियम भी बदल गये । पूर्वश्लोक में कुचयुग्म घटसम कहे गये थे, यहाँ विशिष्टता दिखाकर जैसे कवि ने भूल सुधारी ।
तार्किक मान्यता का विरोध होने कुछ विद्वान् इस पद्य में विरोधाभास अलंकार मानते हैं, मल्लिनाथ इसे उचित नहीं मानते। उनके अनुसार यहाँ कुचों में कलश- भ्रम अभेदातिशयोक्ति है, कुचात्मा कलस कार्य में झरचक्रभ्रमात्मक क्रिया निमित्ता उत्प्रेक्षा इस अतिशयोक्ति से उत्थापित है, चक्रभ्रमकारिता रूप निमित्त कारण के गुण के संक्रमण के कारण । विद्याधर के अनुसार अनुमान रूपक और भ्रान्तिमान् अलंकार हैं। चंद्रकलाकर ने रूपकउत्प्रेक्षा - श्लेषमूला अतिशयोक्ति का संकर माना है ॥ ३२ ॥
भजते खलु षण्मुखं शिखी चिकुरैर्निर्मितबर्हगर्हणः ! अपि जम्भरिपुं दमस्वसुजितकुम्भः कुचशोभयेभराट् ॥ ३३ ॥
जीवातु -- भजत इति । दमस्वसुर्दमयन्त्याश्चिकुरनिम्मित वगर्हणः कृतपिच्छनिन्दः जितबहं इत्यर्थः । शिखी मयूरः षण्मुखं कार्तिकेयं भजते खलु, तया कुचशोभया जितकुम्भ इभराडेरावतोऽपि जम्भरिपुमिन्द्रं भजते । परपरिभूताः प्राणत्रायाण प्रबलमाश्रयन्त इति प्रसिद्धम् । अत्र शिख्यं रावतयोः षण्मुख जम्भारिभजनस्य जितबर्हत्व जितकुम्भत्वपदार्थहेतुकत्वात् तद्धेतुके काव्यलिंगे तदसम्बन्धेऽपि सम्बन्धाभिधानादतिशयोक्तिश्च ।। ३३ ।।
अन्वयः - दमस्वसुः चिकुरः निर्मितबहंगणः शिखी षण्मुखं, कुचशोभया जितकुम्भः इभराट् अपि जम्भरिपुं भजते खलु ।
हिन्दी - दमयन्ती की केशराशि के द्वारा अपने पिच्छों के तिरस्कृत होने के कारण मयूर मानों छः मुखवाले स्वामिकार्तिकेय की सेवा में चला गया है और कुचों की शोभा से पराजित कुम्भस्थल वाला गजराज ऐरावत मी जैसे जम्भासुर के शत्रु इन्द्र की सेवा में ।