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नैषधमहाकाव्यम्
टिप्पणी-भाव यह है कि दमयन्ती के मातृ-पितृ कुल विख्यात हैं, वह विशालनयना, आकर्णविशालनेत्रा है, उसके नारीजनोचित रूप-गुण की चर्चा लोक-जीवन का अंग है, अनेकार्थ 'श्रुति' शब्द का प्रयोग कर कवि ने पदार्थों की उत्कृष्टता का एक ही कारण निर्देश किया है-'श्रुतिगामिता' 'श्रुत' (पुराणादि, सामुद्रिक शास्त्रादि में वर्णित ) तथा 'दृष्ट' ( किन्हीं सुन्दरियों में देखी गयो ) जो नायुचित विशेषताएं हैं, वे सब दमयन्ती में हैं। इस श्लोक में 'व्यतिमाते' ( वि=अति + मा ) का प्रयोग चमत्कारपूर्ण है, 'प्रकाश'-कार के अनुसार यह 'वचनश्लेष' है, अर्थात् तीनों वचनों में एक सदृश रूप-व्यति +भा + लट् + त = व्यतिभाते ( एकवचन)। व्यति + मा+ आताम् = व्यतिभाताम्, "टित आत्मने पदानां टेरे' ( अष्टा ३।४।७९ ) से एत्व = व्यतिभाते ( द्विवचन )। व्यति+भा + झः=अत् तथा पूर्वोक्त प्रणाली से एत्व ( बहुवचन )। इस प्रकार एक 'व्यतिभाते' क्रिया तीनों कर्ताओं से सम्बन्धित हो गयी-(१) लोकयुगम्-एकवचन, (२) दृशौ-द्विवचन, (३) रमणीगुणा:-बहुवचन । 'व्यतिभाते' का अर्थ है कर्म-विनिमय से भासित होना। इस प्रकार पितृकुल मातृकुल से व्यतिमासित है और पितृकुल मातृकुल से, दक्षिण नेत्र की शोभा को वायां नयन स्वीकारता है, वामनेत्र की दक्षिण नेत्र, जो शास्त्रों में वर्णित ( श्रुत ) गुण हैं, वे दमयन्ती में दृष्ट-देखे गये हैं, जो दमयन्ती में देखे जाते हैं-'दृष्ट' हैं, वे ही शास्त्रों में 'श्रुत' हैं। अथवा इन सब युग्मों को परस्पर-एक दूसरे से शोभा है-मातृकुल पितृकुल से सुशोभित है, पितृकुल मातृकुल से, इसी प्रकार दोनों नेत्र अन्योन्यतः । शास्त्रादि में 'श्रुत'-वणित रमणीगुणों की सार्थकता दमयन्ती में 'दृष्ट' होने से है और जो उसमें दृष्ट हैं, वे ही शास्त्रविख्यात हैं। मल्लिनाथ ने इस श्लोक में तुल्य. योगिता अलंकार का उल्लेख किया है, विद्याधर के अनुसार यहां वचन श्लेषक्रियाकारक और दीपक की संसृष्टि है। चंद्रकलाकार के अनुसार वचनश्लेषतुल्ययोगिता का एकाश्रयानुप्रवेश सकर है ।। २२ ॥
नलिनं मलिनं विवृण्वती पृषतीमस्पृशती तदीक्षणे। अपि खञ्जनमञ्जनाञ्चिते विदधाते रुचिगर्वदुर्विधम् ॥ २३ ॥