Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 211
________________ द्वितीयः सर्गः जीवात-नलिन मिति । नलिनं पद्म मलिनमचारु विवृण्वती कुर्वाणे पृषती मृगीमस्पृशती असमानत्वात् दूरादेव परिहार इत्यर्थः, तदीक्षणे तल्लोचने अञ्जनाञ्चिते कज्जलपरिष्कृते सती खञ्जनं खञ्जरीटाख्यं खञ्जनामकः पक्षिविशेषः 'खजरीटस्तु खञ्जन' इत्यमरः । तमपि रुचिगर्वदुर्विधं चारुत्वगर्वनिःस्वं विदधाते कुर्वात, सर्वथाप्यनुमेये इत्यर्थः । 'निःस्वस्तु दुविधो दीनो दरिद्रो दुर्गतोऽपि स' इत्यमरः । ईक्षणयोनलिनादिमलिनीकरणाद्यसम्बन्धे सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिः, तथा चोपमा व्यज्यत इत्यलङ्कारेणालङ्कारध्वनिः ।। अन्वयः-नलिनं मलिनं विवृण्वती, पृषतीम् अस्पृशती अञ्जनाञ्चिते तदीक्षणे खञ्जनम् अपि रुचिगवंदुर्विघं विदधाते । हिन्दी-कमल को मलिन बनाने वाले, हरिणी की अगणना करनेवाले काजल लगे उसके नेत्र खंजन को भी सौन्दर्याभिमान से रहित बना देते हैं । टिप्पणी-नेत्रों के प्रायः तीन उपमान हैं, कमल, हरिणनयन, खंजन । दमयन्ती के नयनों के सम्मुख तीनों हीन है। अन्वय भेद से इसके अन्य अर्थ भी होते हैं। 'पृषती' का अर्थ हरिणी भी है और काजल लगाने की शलाका (सलाई ) भी। इस प्रकार एक यह अर्थ हुआ कि काजल की शलाका का स्पर्श किये बिना इसके विशाल कज्जल-रहित नयन कमलों को फीका कर देते हैं, अञ्जनखचित होकर तो खंजन का भी सौन्दर्य-गर्व खर्व कर देते हैं। और भी अर्थ हो जाते हैं-'मलिनं विवृण्वती' अर्थात् स्वगत श्याम गुण का दृष्टिवश प्रसार करती 'नलिन' पर भी श्यामता बिखेर कर उसे मलिन बना देती है अथवा 'मलिनं नलिनं रुचिगर्वदुविधं विदधाते', नीलोत्पल का सौन्दयं गर्व खवं कर देती है । 'अस्पृशती तदीक्षणे' विस्तार को अप्राप्त उसके नेत्र हरिणी का सौन्दर्य गवं खवं कर देते हैं, कमल को मलिन कर देते हैं, जब विस्तार पाते हैं, तो शुक्ल-कृष्ण, अतिसरल, अतिचञ्चल खंजन का भी सौन्दर्याभिमान भंग हो जाता है। भाव यह है कि दमयन्ती के नेत्रों के सम्मुख कोई उपमान ठहरता नहीं । मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ असम्बन्ध में सम्बन्ध-कथन रूपा अतिशयोक्ति से उपमा व्यंजित होती है, अतः अलंकारध्वनि है, विद्याधर के अनुसार छेका

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