________________
( ४१ )
( ३ ) वर्णनप्रघान तो महाकाव्य को होना ही चाहिए, पर वर्णन रोचक और सजीव हों। इससे पृष्ठभूमि, घटनाएँ, चरित्र, उनके कार्यसभी का उद्घाटन होता है ।
( ४ ) कुछ अचार्यों की मान्यता है कि 'एपिक' में 'हीरोइक मीटर' ( वीररसात्मक छंद ) का प्रयोग उचित हैं, परन्तु वीररस के अतिरिक्त अन्यरसप्रधान काव्यों के लिए यह उपयुक्त नहीं होता, अतः अन्य मनीषी मानते हैं कि भावानुरूप छन्दोयोजना उचित है । शैली मी भावानुरूपिणी ही होनी उचित है ।
( ५ ) महाकाव्य के विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न उद्देश्य बनाये हैं । प्राचीनतम आचार्यों ने नैतिकता और धार्मिकता पर बल दिया है, जबकि अरस्तू ने आनन्द और सत्य का उद्घाटन महाकाव्य का उद्देश्य माना है । जो भी हो, महाकाव्य का उद्देश्य होना महान् ही चाहिए, उनकी व्यापकता और प्रभावशीलता स्वतः लोकरंजन में समर्थ होगी !
भारतीय और पाश्चात्य दोनों प्रकार की मान्यताओं पर ध्यान देने से एक बात अवश्य स्पष्ट हो जाती है कि कथावस्तु, चरित्र, शैली और उद्देश्य – इन चारों अंगों की दृष्टि से महाकाव्य को 'महान्' होना चाहिए। उसका महान् कलेवर ही उसे 'महाकाव्य' नहीं बनाता, प्रत्युत उसकी महत्ता के आधारभूत कथावस्तु आदि अंग ही हैं. जिनकी उदात्तता उसे महाकाव्य बनाती है ।
दोनों प्रकार की मान्यताओं पर ध्यान रखते हुए 'नैषधीयचरित' की समीक्षा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि उसमें प्रायः ये सभी विशेषताएँ हैं ।
( १ ) इतिवृत्त अथवा कथावस्तु — 'नैषध' की कथा 'पुराणेतिहासादिप्रसिद्ध वृत्तांत' अर्थात् ख्यात है । जैसा कि पहिले लिखा जा चुका है कि 'महाभारत' के वनपर्व का 'नलोपाख्यान' (५८-७८ अध्याय) इसका प्रमुख आधार है । जैसा कि 'प्रकाश' कार ने लिखा है, 'नैषघ' का आरम्भ पुण्यश्लोक नलरूप विशिष्ट के निर्देश से हुआ है - ' अत्र पुण्यश्लोकनलरूपविशिष्टवस्तुनिर्देशेन निर्विघ्नग्रन्थसमाप्तिः ।' 'इतिवृत्त' – संघटन 'पञ्च सन्धि समन्वित' है । मुखसन्धि है - प्रथम, द्वितीय, तृतीय सर्ग में। इन सर्गों में 'नानार्थं रससम्भवा बीजसमुहपत्ति' हो जाती है - दमयन्ती नल का अनुरागरूप बीज समुत्पन्न हो जाता है । चतुर्थ सर्ग में प्रतिमुखसंधि है, जिसमें आरब्ध चीज का