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( ५२ ) इसी स्वर्णहंस को देखकर विरही नल के भी हृदय में कुतूहल उत्पन्न हुआ। सुवर्ण-पंखी हम कहाँ दीखता है ? ( १।११९, १२९ )।
रौद्र--सप्तदश सर्ग में क्रुद्ध कलि के क्रोधपूर्ण वचन रौद्रभाव की व्यंजना करते ही हैं, उसके वे वचन इन्द्र में भी रौद्रभाव उत्पन्न कर देते हैं । (यद्यपि 'सक्रोघतां दधे' में 'स्वशब्दवाच्यत्व' दोष आ गया है) । वज्रधर का हाथ फड़क उठा, वे चीख उठे-कौन है यह जो उनके रहते धर्म-मर्मों का कृन्तन कर रहा है-'अवोचदुच्चैः कस्कोऽयं धर्ममर्माणि कन्तति । लोकत्रयों त्रयीनेत्रां वज्रवीर्यः स्फुरत्करे । क इत्थं भाषते पाकशासने मयि शासति?' ( १७४८३-८४ ) ।
बीभत्स-बीभत्स तो बाध्यता के साथ शृंगार का विरोधी रस है, अतः बीभत्स का नाममात्र का वर्णन 'नैषध' में है । विरही नल के मन में रमणीय वस्तुओं के प्रति भी जुगुप्सा उत्पन्न हो गयी। खिला लाल पलाश उसे 'पलाश' (मांसभक्षी ) लगा, झूमती लता उसे डरावनी प्रतीत हुई, चम्पे की कलियाँ पतंगों को जलाती पापिनी-सी लगीं। ( १९८४-८६)। वस्तुतः यह सब परम्परागत विरह-वर्णन है ।
भयानक-इसी प्रकार 'भय' के प्रसंग भी नहीं से हैं । झूमती लता से भय तो है ही, स्वयंवर में नागराज वासुकि को देख दमयन्ती भी भय से भर जाती है । 'आशीविष', स्फुरत्फण' नागराज को देख कर कौन कामिनी भीति से न भर जाती ? (१०।२१)। __ 'प्रकाश'-टीकाकार के द्वारा स्वीकृत 'नषध' में काव्य को 'स्वादूत्पादभृति' (टीकाकार के अनुसार सहृदयहृदयाह्लादकारक होने से अत्यन्त मधुरनवार्थसहित ) कहा गया है और सर्गविशेष को 'रसाम्भोनिधिः' ( १३॥ ५६ )। श्रीहर्ष की यह उक्ति असंदिग्ध है; 'नैषध' विभिन्न रसधाराओं का सागर ही है।
(४) छन्द-शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार महाकाव्य के नातिदीर्घ सर्गों में एक ही 'वृत्त' ( छन्द ) के पद्य होना अच्छा माना जाता है; हां सर्ग के अवसान में अन्य छन्द का प्रयोग हो । इस दृष्टि से 'नैषधीयचरित' में मर्यादा का पर्याप्त ध्यान रखा गया है। प्रथम सर्ग में परिचयात्मक अंतिमश्लोक को छोड़कर एकसौ चवालीस श्लोक हैं । परिचयात्मक श्लोक सभी सर्गों के अन्त