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( ५३ ) में शार्दूलविक्रीडित छन्द में है। ) इसमें सभी श्लोक वंशस्थ छन्द में हैं; अन्तिम श्लोक 'अन्यवृत्तक' अर्थात् वसन्ततिलका छन्द में है। इसी प्रकार द्वितीय सर्ग में आरम्भ के १०१ श्लोक 'वैतालीय' अथवा 'वियोगिनी' छन्द में हैं, श्लोक-संख्या १०२ और १०४ शार्दूलविक्रीडित हैं, १०३ पुष्पिताया है, १०५ स्रग्धरा है, १०६, ७, ८, और १०९ मालिनी छन्द में हैं । तृतीय सर्ग में आरम्भिक १२४ श्लोक उपजाति हैं, १२५, १२९, १३१ वसन्ततिलका हैं । शेष श्लोकों में १२६, २७, २८, ३० शार्दूलविक्रीडित हैं । १३२ वाँ स्रग्धरा है, १३३, १३४, १३५, वें श्लोक मालिनी छन्द में हैं। चतुर्थ सर्ग में प्रारम्भ के ११५ श्लोक द्रुतविलम्बित हैं, ११६ वाँ और १२२ वाँ ( अन्तिम ) शार्दूल. विक्रीडित हैं, ११७ वा वसन्ततिलका है और श्लोक संख्या ११८, १९, २०, १२१ औपच्छन्दसिक अथवा बालभारिणी वृत्त में हैं । पंचम सर्ग में आरम्भिक १३३ श्लोक स्वागता वृत्त में हैं, १३४ वा द्रुतविलंबित है, शेष अन्तिम तीन शार्दूलविक्रीडित हैं । छठे सगं में उपजाति छन्द का प्रयोग है, अन्तिम ११२ वा श्लोक मालिनी छन्द है। सप्तम सर्ग के कुछ श्लोक उपेंद्रवज्रा हैं, कुछ इन्द्रवज्रा अर्थात् उपजाति अन्तिम श्लोक में हरिणी छन्द का प्रयोग किया गया है। आठवें सर्ग की भी यही स्थिति है प्रारम्भिक १०४ श्लोक उपजाति हैं, १०५, १०६ स्रग्धरा हैं, १०७ वां पुष्पिताग्रा है और अन्तिम १०८ वाँ वसन्ततिलका। नवम सर्ग के प्रारम्भिक १५५ श्लोक वंशस्थ हैं, १५६ वां मन्दाक्रान्ता है, १५७ वा तोटक, १५८ वा शार्दूलविक्रीडित और अन्तिम १५९ वा मालिनी। दशम सर्ग में पुनः उपजातिछन्द का प्रयोग है, केवल अन्तिम 'दयामियघिरध्यम्'-इत्यादि श्लोक मालिनी छन्द में है। एकादश सर्ग वसंततिलका वृत्त में है, केवल अन्तिम १२९ वा श्लोक स्रग्धरा में है । द्वादश सर्ग में प्रथम ९० श्लोक वंशस्थ हैं, ९१ ९२, ९३, ९६, ९७, ९८, ९९ शार्दूलविक्रीडित हैं, और ९४,९५, १००, १०१, १०२ स्रग्धरा हैं, १०२, १०४, १०६, १११ पुनः शार्दूलविक्रीडित हैं, १०५, १०७, १०८, १०९ पुनः वंशस्थ है, ११० वसन्ततिलका है और अन्तिम ११२ वाँ पुनः स्रग्धरा है । त्रयोदश सर्ग के आरम्भ से 'यः स्यादमीषु' इत्यादि श्लोक पर्यन्त वसन्ततिलका का प्रयोग है, अन्तिम दो श्लोकों में मालिनी है। चतुर्दश सर्ग के