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नतु लक्षणमुद्दिश्य लक्ष्यप्रवृत्तिः' इस लिए व्याकरण प्रयोगमूल होता है, प्रयोग में 'व्याकरणाल्लोक एव बलीयान् ।'
ऐसे ही 'सु, ओ, जस्' के आधार पर श्लेष-चमत्कार दिखाकर नल. प्रशंसा की गयी है। । द्रष्टव्य ३।२३ )। नलवर्णन में 'अधोतिबोधाचरणप्रचारणैः' (११४ ) के प्रयोग का आधार है पातंजल 'महाभाष्य''चतुभिश्च प्रकारविद्योपयुक्ता भवति आगमकालेन, स्वाध्यायकालेन, प्रवचनकालेन, व्यवहारकालेन (भाप्य १।११) । अनेक स्थलों पर श्रीहर्ष ने नवीन शब्द. रचना भी की है, जैसे सूननायक, प्रतीतचर और अधिगामुका । ( १८॥ १२४ या १२९ )।
षड्दर्शन - न्यायशास्त्री गौतम को ( १७।७४ या ७५में ) वैशेषिक-कर्ता कणाद को ( २२।३५ या ३६ में ) उमहास का पात्र बनाया है। वेदांतदर्शन पर व्यंग है 'स्वं च ब्रह्म च'-इत्यादिमें ( १७१७३ या ७४) । सांख्य के सत्कार्यवाद सिद्धांत ( कार्यकारणयोव्यंतिभेदो नास्ति ५।९४ ), योगदर्शन की संप्रज्ञात समाधि ( २१।११८), वैशेषिक के परमाणुवाद (३१३७ ) और मन की अणुरूपता (११५९ ) पूर्वमीमांसा की देवों की सशरीरता ( १११७ ) का उल्लेख भी श्रीहर्ष ने किया है । 'नैषध' में मीमांसकों का उपहास भी किया गया है ( १७।६०-६२ ) । पारिभाषिक शब्द भी मिलते हैं, उदाहरणार्थपूर्वपक्ष उत्तरपक्ष (१०८०)। उत्तरमीमांसा ( वेदान्त) के 'उपरतेषु हीन्द्रियेषु स्वप्नान् पश्यति' ( शंकराचार्य ) सिद्धांत के उपयोग के लिए द्रष्टव्य है 'नैषध' ११४० । ब्रह्म-प्राप्ति-पद्धति के लिए द्रष्टव्य हैं २।३, ४; ५।८ और ९।१२१ । ब्रह्मविचार (७।४८ ) भी है और मोक्षदशा का वर्णन भी ( ९:१२१)।
बौद्धदर्शन-बौद्धदर्शन के शून्यवाद, विज्ञानवाद और साकारतावाद का ( १०८८), पारमिता का (५।११), 'चतुष्कोटि' और 'षडभिज्ञा' ( २११८८ ) का उल्लेख भी श्रीहर्ष ने किया है और चार श्लोकों में ( २१८८-९१ ) बुद्धभगवान के प्रति श्रद्धा भी प्रकट की है।
जैन-दर्शन-जनदर्शन के 'पिरत्न' ( सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चरित्र ) मुख्य तत्त्व हैं । इन त र लेख 'नैषध' ( ९७१ ) में है।