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प्रथमः सर्गः
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है-'राज्ञाममावो नीराजं नीराजकरणं नोराजना तया ।' अर्थात् शत्रुनृपों का विनाश करके नल सुशोभित होते थे। इसका अन्य अर्थ जल-क्षेपण भी है'नीरस्य शान्त्युदकस्याजनया क्षेपणया' अर्थात् स्वपुरवसियों द्वारा फेंके गये शांतिसलिल से राजा शोभित होता था। तृतीय चरण का अन्य प्रकार से पदच्छेद करके यह पर्थ भी लिया जाता है कि विष्णु-रूप राजा नल को अजया -लक्ष्मो नीराजना उतारती थीं-'प्रकृष्टा दक्षिणा येषां ते प्रदक्षिणा वदान्या ते सन्ति यस्य सः 'प्रदक्षिणी (प्रकृष्ट दान करने वाले अनुगत हैं जिसके, ऐसा राजा नल ), अथवा प्रकृष्टदक्षिणा ज्योतिष्टोमादयो यस्य सन्तीति प्रदक्षिणी ( अनेक ज्योतिष्टोमादि यज्ञों का कर्ता), अतएव कृती ( कर्मकुशलः, पुण्यशीलो वा ) अजया लक्ष्म्या आय विष्णवे सृष्टया नीराजनया रेजे।
'साहित्य-विद्याधरी-कर्ता इसमें अनुप्रास और लुप्तोपमा का निर्देश करते हैं। एक यह अर्थ भी किया जाता है कि ज्वलत्प्रतापनल से उज्ज्वल नल नाना दिशाओं के विजयनिमित्त भूमंडल में परिभ्रमण करना मानों भू देवता की नीराजना उतारता था; इस प्रकार व्यंजकादि का अभाव होने के कारण यहाँ गम्योत्प्रेक्षा है। मल्लिनाथ इसे समीचीन नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार 'निजप्रतापैः' और 'नीराजनया' में सामानाधिकरण्य की संगति नहीं बैठती। यह कल्पना करके कि प्रतापानल द्वारा नीराजना हो रही है और अरिपुर उसकी वर्तिका हैं, यह उत्प्रेक्षा है कि उसी से राजा भू-वलय की आरती उतारता है। इस प्रकार रूपक और उत्प्रेक्षा के अंगांगिभाव के कारण यहाँ संकर है।
निवारितास्तेन महीतलेऽखिले निरीतिभावं गमितेऽतिवृष्टयः। न तत्यजुनूनमनन्यसंश्रयाः प्रतीपभूपालमृगीदृशां दृशः ॥ ११ ॥
जीवातुं-निवारिता इति । तेन नलेन अखिले समग्रे महीतले न सन्ति ईतयः अतिवृष्टयादयः यत्र तत् निरीति, तस्य भावः तम् ईतिराहित्यमित्यर्थः । ईतयश्चोक्ता यथा-'अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलमा मूषिकाः खगाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः' ।। इति । गमिते प्रापिते सति निवारिता: स्वराष्ट्रात निराकृता इत्यर्थः । अतिवृष्टयः नास्ति अन्यः संश्रयः आश्रयः यासां तथाभूताः